शोक एक सामाजिक मूल्य है, जिसे अभिव्यक्त करने के स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है। आज सोशल मीडिया पर अपने क्षेत्र की किसी प्रसिद्ध हस्ती के देहांत की खबर पर नजर जाए और उस खबर पर टिप्पणियों वाले हिस्से में देहांत का उपहास करते हुए लोग पाए जाएं तो यह संवेदना के प्रति गहरा शोक पैदा कर देता है। भारतीय मूल्य तो किसी अनजान अर्थी या जनाजे का सम्मान करने वाले हैं, न कि मृत्यु का उपहास करने वाले। मगर इस दौर में किसी के निधन उपरांत ऐसे दृश्य आम हो गए हैं, जिसमें सोशल मीडिया मंचों पर विदा हो चुके व्यक्ति का उपहास उड़ाया जा रहा हो।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के बिना नहीं रह सकता। यह तथ्य आज भी उतना ही सत्य है, लेकिन समय के साथ संशोधित हो गया है। इस दौर में मनुष्य वह सामाजिक प्राणी बन गया है जो सोशल मीडिया के बगैर नहीं रह सकता। सुख, दुख की समस्त अनुभूतियों को वह सबसे पहले आभासी मंच पर ही साझा करता है।
अपनी दिनचर्या, खान-पान, रहन-सहन आदि विषयों के बारे में चर्चा से उसका आभासी मंच समृद्ध रहता है। देश-दुनिया की किसी भी घटना पर प्रतिक्रियाओं की दौड़ में बेलगाम घोड़े की तरह वह भाग पड़ता है। कई दफा असत्य को सत्य और सत्य को असत्य भी मान बैठता है। मनुष्य भले समाज की वास्तविक दुनिया में रह कर सामाजिक हो या फिर सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में रह कर सामाजिकता को प्राप्त करे, इन दोनों ही स्थितियों में सबसे महत्त्वपूर्ण उसका संवेदनशील होना है। विडंबना इसी बात की है कि इस दौर की संवेदनशीलता का परिचय सोशल मीडिया पर नित देखने को मिल रहा है।
सोशल मीडिया पर मौत को लेकर संवेदना
देश की किसी भी घटना, ज्वलंत विषय पर संवेदनहीन टिप्पणियां प्रचुर मात्र में दिख जाती हैं। प्राणी मात्र के प्रति संवेदना रखने वाले राष्ट्र में सोशल मीडिया पर किसी की बीमारी या फिर मृत्यु तक को नहीं बख्शा जाता। जब किसी के निधन उपरांत एक ओर श्रद्धांजलि का क्रम चल रहा होता है, तब दूसरी ओर मृत्यु का परिहास उड़ाने जैसी चर्चाएं भी जोर पकड़ती लगती हैं। हालांकि यह कोई नई घटना नहीं है और न ही पहली दफा ऐसा हो रहा है। जब कभी कला, साहित्य, राजनीति, खेल आदि क्षेत्रों से जुड़ी प्रसिद्ध हस्तियों के देहावसान की खबरें आती हैं, तो इसके बाद उनके प्रति अशोभनीय टिप्पणियां और असंवेदनशील संदेशों की सोशल मीडिया पर बाढ़-सी आ जाती है। सोशल मीडिया के ऐसे दृश्यों और इस मार्ग पर लोगों को आगे बढ़ता देख हमारी संवेदनशीलता पर प्रश्न खड़े होना शुरू हो गए हैं। क्या हम वाकई मनुष्य की श्रेणी में आते हैं?
वास्तव में यह विचार किए जाने योग्य बात है कि किसी की मृत्यु किसी के लिए हास्य का कारण कैसे बन सकती है! मात्र इस आधार पर मृत्यु का मजाक बनाया जाना कि मरने वालों के विचारों से वैचारिक रूप से असहमति है, यह तथ्य शोक को हास्य में परिवर्तित करने का अधिकार नहीं दे देता। जहां तक विचारों की बात है तो किसी भी मनुष्य के हर एक विचार से सभी सहमत हों, यह जरूरी नहीं है। साथ ही उसके हर एक विचार से असहमत भी नहीं हुआ जा सकता। विचारों की अभिव्यक्ति के आधार पर विचारों के अनुरूप सहमति और असहमति बनती बिगड़ती रहती है। विचारों की स्वीकार्यता भले न हो, लेकिन जिसे मृत्यु ने स्वीकार किया है, उसके प्रति अनर्गल बातें भी न हो।
दुश्मन की मृत्यु पर भी लोगों का शोक
हमारी सभ्यता और संस्कृति में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जिनमें शत्रुता की स्थिति में भी मृत्यु के समय संवेदना का परिचय दिया गया है। ‘रामायण’ में भी वर्णित है कि युद्ध के बाद मेघनाथ के शव को लंका भेजा गया था। इस तरह के अनेक प्रसंग हमने कितनी ही बार सुने हैं, लेकिन इन प्रसंगों से मिली शिक्षा को अपने जीवन में हमने कितना आत्मसात किया है, यह विचार करने योग्य है। अब ‘सोशल’ होने का मतलब जड़ को छोड़ना तो नहीं हो सकता! इस काल की अनेक घटनाओं पर संवेदनहीनता की बूंदें बरसती देखी गई हैं, जिससे उपजे कीचड़ में मनुष्यता घुलती जा रही है।
किसी अपुष्ट खबर के आधार पर श्रद्धांजलि देकर जीवित व्यक्ति को मृत घोषित करने वाली बातें तो लंबे समय से अक्सर चली ही आ रही है। लोगों में ‘सबसे पहले हम ही’ वाली होड़ की इतनी जल्दी होती है कि वे खबर की वास्तविकता की जांच ही नहीं करते। मृत्यु के खंडन की जब तक सूचना आती है तब तक शोक संदेश और श्रद्धांजलि का दौर प्रारंभ हो चुका होता है।
दरअसल, सोशल मीडिया एक ऐसा मंच बन गया है, जिसमें उपयोगकर्ता अपनी असत्य, भ्रामक बात से पीछे हटने को तैयार नहीं होते। परसाई कहते थे कि झूठ को बार-बार कहने पर वह सच मान लिया जाता है। इस समय इन आभासी मंचों की यही स्थिति हो गई है। तर्कों और तथ्यों का स्थान बहस और विवाद ने ले लिया है। ऊर्जा और श्रम ऐसे गैरजरूरी विवादों में व्यय हो रहे हैं, जहां समय व्यर्थ करने के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं होगा। आभासी अहं इतना हावी हो गया है कि जीवन के वास्तविक रिश्तों पर इसका असर तक देखने को मिल रहा है। हम तेजी से असंवेदनशील समाज में तब्दील होते जा रहे हैं। सोशल मीडिया की असंवेदनशीलता से उपज रही शाब्दिक हिंसा बड़ा रूप धारण करें, इसके पहले इसे रोका जाना होगा। मानवता की पहचान उसकी संवेदनशीलता से है, न कि संवेदनहीन बनने से।