प्रदीप उपाध्याय
प्रकृति हमें बहुत कुछ सिखाती है। या यों कहें कि प्रकृति से हम बहुत कुछ सीखते हैं। मौसम कहां सदैव एक-सा रहता है। मौसम का परिवर्तन चक्र वर्षा ऋतु से लेकर शीत ऋतु और ग्रीष्म ऋतु तक चलता रहता है और यही क्रम दोहराता जाता है। प्रकृति का परिवर्तन चक्र निरंतर है, नियमित है। इनमें कहीं कोई ठहराव नहीं आता। प्रकृति कहीं श्वेत-श्याम बनकर नहीं दिखाई देती। उसमें सदैव सप्तवर्णी इंद्रधनुषी रंगों से साक्षात्कार होता रहता है। यह बात अवश्य है कि हम अपने निराशापूर्ण जीवन को उससे जोड़ते हुए हर समय उसमें भी श्वेत-श्याम रंग ही देखते रहते हैं।
कहीं अल्प वर्षा से असंतोष तो कहीं अतिवृष्टि से जीवन त्राहिमाम, कहीं शीत ऋतु का जीवन में उत्साह और उमंग रूपी रस तो कहीं शीत के प्रकोप से जीवन मुश्किल, कहीं उष्णता की चाह तो कहीं भीषण उष्णता से हाहाकार करता जीवन, लेकिन प्रकृति अपने क्रम में निरंतर है, चलायमान है। देश-काल, परिस्थितियों के वशीभूत रहकर ही हम अपनी धारणा कायम करते हैं और जीवन के रंगों को चुनते हैं।
वजन ढोते एक मजदूर या खेत जोत रहे एक किसान के लिए सिर पर चढ़ता सूरज त्रासद अनुभूत नहीं होता, जबकि वातानुकूलित वातावरण से सड़क पर उतरे एक कुलीन व्यक्ति के लिए सूरज की उष्णता परेशान करने वाली होती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम जीवन को किस रूप में स्वीकार करते हैं या परिस्थितियों से किस तरह तादात्म्य स्थापित करते हैं। जीवन का हर रूप-रंग एक-सा नहीं होता और न ही हरेक परिस्थिति एक जैसी होती है।
जीवन भी मौसम चक्र की तरह ही परिवर्तनशील है। परिवर्तन का नाम ही जीवन है। दुख है तो सुख भी है। निराशा है तो आशा भी है। जहां जीवन रंगहीन दिखाई देने लगे, वहां हमें निराशा के बादलों में नहीं घिर जाना चाहिए। ऐसे में जीवन में अंधेरे की आहट आने में देर नहीं लगेगी। जीवन बेनूर और बदरंग हो जाएगा। हमें जीवन को बेरंग नहीं समझना चाहिए और न ही बेरंग बनाना चाहिए।
भौतिकवाद और अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा के कारण भी जीवन के रंग बहुत जल्द बदलते महसूस होने लगते हैं। इन्हीं का परिणाम है कि पिछले कुछ समय से लोगों के बीच आत्महत्या की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ी है। छोटी-छोटी बात पर व्यक्ति आत्महत्या जैसा घातक कदम उठा लेता है। आत्महत्या अपने साथ तो नाइंसाफी है ही, अपने परिजनों के प्रति भी बहुत अन्यायपूर्ण कदम है। कई बातें प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई दे जाती हैं तो कई अनुभूत की जाती हैं। यह बात आत्महत्या कर लेने वाला शख्स शायद नहीं समझ पाता!
पिछले कुछ समय से कोटा में कोचिंग में पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं दिल को दहला रही हैं। साथ ही एक टीस-सी भी उत्पन्न कर रही है कि क्या कारण है कि जीवन उनके लिए बेरंग हो रहा है और वे आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को विवश हो रहे हैं! पति-पत्नी संबंध हो या प्रेम संबंध, कर्ज की अवस्था हो या गंभीर बीमारी की, कई लोग हताशा-निराशा की अवस्था में जीवन से मोह ही समाप्त कर बैठते हैं। जीवन उन्हें अंधकारमय दिखाई देने लगता है।वे इस बात पर विचार नहीं कर पाते कि अंधकार के बाद ही प्रकाश आता है।
जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। अगर जीवन में सभी कुछ एक-सा रहने लगे तब भी नीरसता का बोध होने लगता है। व्यक्ति में हिम्मत और साहस का भाव तभी आएगा, जब कठिनाइयों, परेशानियों, संकटों से संघर्ष करने की स्थिति निर्मित होंगी। हम कल्पना कर सकते हैं कि जहां केवल सुख ही सुख मिलता तो क्या हम चादर तान कर नहीं सोए पड़े रहते? कल की चिंता क्यों करते? अपने अच्छे कल के लिए कोई प्रयास क्यों करते? और इसी तरह यदि जीवन में निरंतर दुखों का ही अंबार होता, तब क्या होता! लेकिन ऐसा नहीं है। जीवन में सुख-दुख चलते रहते हैं। इनमें भी कहीं ठहराव नहीं है। इसीलिए हमें जीवन में इन सुख-दुख के पलों में समभाव ही रहना चाहिए।
जीवन को सतरंगी मानते हुए हमें दूसरों को दुख पहुंचाने के स्थान पर दूसरों को सुख पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए। कथाकार प्रेमचंद ने एक स्थान पर लिखा है कि जीवन का वास्तविक सुख दूसरों को सुख देने में ही है, दूसरों का सुख लूटने में कतई नहीं। आगे उन्होंने यह भी लिखा है कि केवल खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है। जीवन नाम है संघर्ष का और आगे बढ़ते रहने की लगन का।
हमें भी दूसरों के जीवन में सुख, शांति और समृद्धि के प्रयास कर सतरंगी रंग भरने की कोशिश करना चाहिए। हर किसी को यह अहसास कराने की आवश्यकता है कि जीवन बेरंग नहीं है। जीवन में रंग ही रंग हैं। बस आवश्यकता है उसमें छिपे रंगों को देखने, दिखाने और पहचानने की और यह सब तभी संभव है जब हमारा दृष्टिकोण आशावादी हो। अपने और दूसरों के जीवन में रंग भरने का काम हम एक चित्रकार की दृष्टि से भी कर सकते हैं। जरूरत अपनी दृष्टि और दृष्टिकोण में जीवन के इंद्रधनुषी रंगों से सराबोर होने की है।