बहुत समय पहले की बात है। शिवि राज्य में संजय नाम का एक राजा राज करता था। वह बहुत दयालु और धर्मात्मा था। प्रजा भी राजा का पिता की तरह आदर करती थी। काफी समय के बाद राजा के यहां एक पुत्र का जन्म हुआ। रानी की गोद भरने से सारे राज्य में खुशी छा गई। राजा-रानी भी पुत्र पाकर निहाल हो गए। उन्होंने प्यार से अपने बेटे का नाम रखा वेस्संतर।
वेस्संतर बहुत बुद्धिमान था। जल्द ही वह सभी विधाओं में निपुण हो गया। उसका साहस और लगन देख कर उसके गुरु चकित रह गए। धीरे-धीरे उसने अपने अच्छे व्यवहार से प्रजा का ही नहीं, पूरे मंत्रिमंडल का मन जीत लिया। वह हर हालत में अपनी प्रजा को प्रसन्न देखना चाहता था। धीरे-धीरे उसकी दानशीलता की कहानियां दूर-दूर तक कही-सुनी जाने लगीं। उसी समय की बात है। पड़ोसी राज्य कलिंग में अकाल पड़ा। वहां के लोग अन्न-जल के लिए तरसने लगे। हर तरफ भुखमरी, गरीबी और लूट-खसोट होने लगी। वहां के राजा ने राज्य के पंडितों और विद्वानों की एक सभा बुलाई।
इस विपदा से सभी परेशान थे। लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। उसी समय राज ज्योतिषी ने कहा, ‘एक उपाय है महाराज, मगर है बड़ा कठिन।’ यह सुनकर वहां बैठे सभी विद्वानों ने एक स्वर में कहा, ‘आप उपाय तो बताइए इस संकट की घड़ी में हम कुछ भी करने के लिए तैयार हैं।’ राज ज्योतिषी बोले, ‘शिवि राज्य में एक श्वेत हाथी है। उसे अगर हमारे देश में ले जाया आए तो हमें इस संकट से छुटकारा मिल सकता है। श्वेत हाथी के हमारे देश की सीमा में आते ही वर्षा शुरू हो जाएगी।
श्वेत हाथी का नाम सुनते ही सभी निराश हो गए क्योंकि सभी जानते थे श्वेत हाथी शिवि राज्य का शुभ चिह्र है। वह राज्य गौरव है। उस हाथी के लिए एक महल बनाया गया है। महल के चारों तरफ कड़ा पहरा रहता है। यही नहीं, युवराज वेस्संतर के अलावा उस हाथी पर दूसरा कोई नहीं बैठ सकता। उसे लाने की बात तो दूर, उस तक पहुंचना ही असंभव है। तभी मुख्य द्वार पर हो रही हलचल से राजा का ध्यान उधर गया। राजा ने सैनिकों से पूछा, क्या बात है? एक सैनिक ने बताया, ‘एक निर्धन ब्राह्मण आपसे मिलना चाहता है। हमने उसे बहुत समझाया। मगर वह सुनता ही नहीं।’
यह सुनकर महाराज ने उसे राज्य सभा में लाने का आदेश दिया। राज्यसभा में आते ही ब्राह्मण हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘महाराज तेरह साल बाद मेरे यहां पुत्र पैदा हुआ है। पुत्र इस समय मृत्य से जूझ रहा है। एक तांत्रिक ने उपाय बताया कि आपके सिंहासन के रत्नजड़ित मोर को अगर मेरे पुत्र के माथे से छुआ दिया जाए तो वह बच सकता है। ब्राह्मण की बात सुनकर राजा आगबबूला होकर बोला, ‘मूर्ख ब्राह्मण! रत्नजड़ित मोर हमारे देश का राष्ट्रीय चिह्र है। इसके सम्मान को बचाने के लिए हमने कई लड़ाइयां लड़ीं। क्या तेरे पुत्र के प्राण देश के सम्मान से अधिक कीमती हैं? तू कुछ और मांग ले।’
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राजा की बात सुन ब्राह्मण तिलमिलाकर बोला, ‘महाराज! अगर मेरे पुत्र के प्राण खतरे में न होते तो मैं ऐसी मांग न करता। युवराज वेस्संतर को देखें! उनसे राष्ट्रीय चिह्र तो क्या, कोई प्राण भी मांग ले तो बेहिचक दे देंगे। आप कैसे दानी हैं? ब्राह्मण की बात सुन राजा चौंका। उसे अचानक अंधेरे में उजाले की एक किरण दिखाई दी। बोले, ‘ब्राह्मण तुम्हारा पुत्र बच सकता है। लेकिन बदले में तुम्हें एक काम करना होगा।’ मैं तैयार हूं महाराज जल्दी बताइए। तब राजा ने ब्राह्मण को श्वेत हाथी लाने के बारे में सब कुछ बता दिया।
राजा की बात सुन कर ब्राह्मण पहले सोच-विचार में पड़ गया। मगर मरता क्या न करता। आखिर उसने श्वेत हाथी को कलिंग लाने का बीड़ा अपने कंधों पर ले लिया। इसके बाद सौ सैनिकों को बुलाकर राजा ने महापंडितों से कहा, वे ब्राह्मण के साथ रत्नजड़ित मोर लेकर चले जाएं और तांत्रिक के हिसाब से विधि संपन्न कराकर उसे लौटा लाएं। जल्द ही ब्राह्मण का पुत्र ठीक हो गया। उसके बाद ब्राह्मण शिवि राज्य की ओर चल पड़ा। वहां पहुंच कर वह एक धर्मशाला में ठहरा और युवराज वेस्संतर से मिलने का उपाय सोचने लगा।
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उस दिन युवराज का जन्मदिन था। वे श्वेत हाथी पर बैठ कर प्रजा का अभिनंदन स्वीकार करने नगर में निकले। घूमते-घूमते वे धर्मशाला के पास पहुंचे। उन्हें देखते ही ब्राह्मण को एक तरकीब सूझी। वह जोर से चिल्लाता हुआ उनकी ओर दौड़ा। युवराज के सामने आते ही ब्राह्मण रोने लगा। उसने युवराज के पैर पकड़ लिए। बोला, ‘मेरी रक्षा करो युवराज! मेरी रक्षा करो!’ ‘क्या चाहते हो?’ युवराज ने बड़े आदर से पूछा। ‘युवराज अभयदान दें तो कहूं।’
ब्राह्मण ने हाथ जोड़ कर विनती की। ‘युवराज! मेरा इकलौता पुत्र मृत्यु से जूझ रहा है। तांत्रिकों का कहना है अगर आप यह श्वेत हाथी मुझे दान दे दें तो उसकी जान बच जाएगी।’ ब्राह्मण की बात सुनते ही युवराज हाथी से उतर गए। उन्होंने जल मंगवाया। अपनी अंजुली में जल भर कर दान संस्कार की विधि वहीं खड़े-खड़े संपन्न की। हाथी दान में देकर वे पैदल ही आगे बढ़ गए। ब्राह्मण खुशी-खुशी हाथी के साथ कलिंग की ओर चल पड़ा।
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जंगल की आग की तरह यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। राजा-प्रजा सभी इस दान से चकित रह गए। प्रजा की परवाह किए बिना शुभ चिह्र का दान? गुस्से में भरे हुए लोग राजमहल के सामने इकट्ठा होने लगे। युवराज को कुछ लोग राष्ट्रद्रोही मान रहे थे। कुछ ने उन्हें युवराज पद से हटाने की मांग की। इस पर युवराज के पिता राजा संजय ने जनता से कहा, ‘यह सही है कि श्वेत हाथी राष्ट्र का शुभ चिह्र था। युवराज ने उसे दान देकर अपराध किया है। मगर आप लोगों से मेरी प्रार्थना है। आप युवराज को क्षमा कर दें। उन्होंने यह दान अपने किसी स्वार्थ के लिए नहीं किया है बल्कि किसी के प्राण बचाने के लिए किया है।’
लेकिन लोगों का गुस्सा शांत नहीं हुआ। वे युवराज के किए इस कृत्य के खिलाफ डटे रहे। उसी समय युवराज प्रजा के सामने आ गए और बोले, ‘मैं आपका अपराधी हूं। आप जो भी दंड देंगे, मुझे स्वीकार होगा।’ यह कह कर वे सिर झुका कर खड़े हो गए। प्रजा ने उनसे प्रायश्चित के तौर पर एक पर्वत पर जाकर तपस्या करने के लिए कहा। युवराज बिना कुछ सोचे-समझे तैयार हो गए। उनके साथ उनकी पत्नी मद्दी देवी और दोनों बच्चे भी वंक पर्वत की ओर चल पड़े। युवराज ने अपनी सारी संपत्ति दान कर दी और अपना सारा जीवन दीन-दुखिया की सेवा में लगा दिया। आगे चलकर यही युवराज वेस्संतर बोधिसत्व हुए।