विनोद शाही
कुछ स्त्री रचनाकार-आलोचक, स्त्री-साहित्य के मूल्यांकन के लिए ‘स्त्री की दृष्टि’ की बात करते हैं। तो, क्या हिंदी की अधिकांश आलोचना ‘पितृसत्तात्मक दृष्टि’ से काम लेती है? इस संबंध में पुनर्विचार जरूरी है। मगर यह जरूरी नहीं कि स्त्री अनिवार्यत: ‘स्त्री दृष्टि’ से युक्त होगी ही और पुरुष को इस दृष्टि से इसलिए रहित मान लिया जाएगा कि वह पुरुष है। स्त्री-दृष्टि और पुरुष-दृष्टि को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करना और एक को दूसरे का विकल्प बनाना सम्यक नहीं है। पर यह बात विववेचनीय अवश्य है कि पुरुष-दृष्टि के केंद्र में पितृसत्ता के मूल्य इतनी गहरी जड़ें जमा कर बैठे हैं कि उन्हें चुनौती देना कई दफा कठिन हो जाता है। स्त्री-दृष्टि से उसके विस्थापन का मकसद अगर स्त्री को केंद्र में लाना है, तो वह भी सम्यक स्त्री-दृष्टि नहीं है। ये दोनों दृष्टियां, गहरे में, ‘मनुष्य दृष्टि’ के परस्पर पूरक अंग मात्र हैं।
पितृसत्ता के पतनशील हो जाने की वजह से स्त्री-दृष्टि द्वारा उसका विखंडन जरूरी हो गया है। मगर उसकी मंजिल आत्मपोषण और महिमामंडन न होकर, उस मनुष्य की वापसी के लिए प्रयास करना है, जो अपने केंद्र में आने का इंतजार कर रहा है। इसलिए स्त्री विमर्श पर दोहरा दायित्व आ गया है- पितृसत्ता का विखंडन और मनुष्य की वापसी की संभावनाओं को खोलने का प्रयास।
दलित समाज में एक ओर दलित होने की वजह से स्त्री पीड़ित
एक अन्य बात यहां यह भी दिखाई देती है कि जो काम दलित साहित्य को करना है, वह भी गहरे में अंतत: स्त्री को ही करना है। स्त्री, दलित समाज में एक ओर दलित होने की वजह से पीड़ित होती है, दूसरे इस वजह से कि आखिर वह एक स्त्री है। दलित दृष्टि से भी उसके शोषण की संभावना गहनतर है। वह जातिगत और वर्गगत आधार पर ही नहीं, एक सामान्य मानवी होने के आधार पर भी अधिक व्यापक लड़ाई लड़ने को विवश है।
दलित साहित्य हमारे सामाजिक यथार्थ में, जिस जातिविहीन, वर्गविहीन भविष्य के सपनों के साथ हस्तक्षेप करता है, उसका वास्तविक और मूर्त्त रूप अगर कहीं प्रकट होता है, तो वह स्त्री की सामान्य कोटि के रूप में देखा जा सकता है। जाति, वर्ग विभक्त होकर भी, स्त्री, स्त्री के तौर पर सर्वजातीय और सर्ववर्गीय मानव समूह ही है।
हर दौर अपने आकाश को छूने के लिए अपनी अलग खिड़कियां खोलता है। हालांकि वे खिड़कियां अपने इतिहास से इतनी भी अलग नहीं होतीं कि हम उस इतिहास को वहां पहचान ही न सकें। ध्यान से देखें, तो हिंदी साहित्य के इतिहास में आदिकाल के सिद्ध और नाथ, मध्यकाल के निरगुन और सूफी तथा आधुनिक काल के छायावादी दौर के कवि और प्रेमचंद, प्रसाद जैसे कथाकार, जिस यथार्थ की अभिव्यक्ति करते रहे हैं, वह समाज-सांस्कृतिक बदलाव के लिए स्त्री और दलित की मुक्ति के प्रश्न को केंद्र में मौजूद पाता है।
साहित्य के प्रगतिशील रूपांतरकारी इतिहास के केंद्र में भी शोषण
हमारे साहित्य के प्रगतिशील रूपांतरकारी इतिहास के केंद्र में स्त्री और दलित की मौजूदगी, आज उल्टे और अधिक साफ साफ देखी और पहचानी जा सकती है। इस आधार पर हम यह भी देख सकते हैं कि स्त्री और दलित के प्रति सामंती, ब्राह्मणवादी और पितृसत्तात्मक रूप से देखने वाला साहित्य, अपने तौर पर उतना नहीं, जितना परंपरागत काव्यशास्त्र का प्रश्रय लेकर अधिक प्रतिष्ठित होता रहा है। उस इतिहास और उसकी इतिहास-दृष्टि को अभी तक पूरी तरह विखंडित करने में हमें सफलता नहीं मिली है।
सवाल दृष्टि का है और समस्या की जड़ है परंपरागत रूप में स्वीकृत स्थापित पितृसत्तात्मक काव्यशास्त्र। यह काव्यशास्त्र पुरुष प्रधान और नायक वर्चस्वी काव्यशास्त्र है। यह ऐसे इतिहास विख्यात नायकों के चरित को केंद्र में लाता है, जिनके पितृसत्तावादी मूल्य और उन पर आधारित संबंध बोध, लोक हृदय में निवास करने लायक बनाए जाते हैं। इस तरह लोकचित्त के पितृसत्तात्मक ढांचे को खड़ा करने में यह काव्यशास्त्र मददगार हो जाता है।
आधुनिक काल में बमुश्किल छायावादी काल में तब कहीं जाकर थोड़ी राहत भरी सांस आती है, जब वह ‘प्रेम, प्रकृति और स्त्री’ पर केंद्रित साहित्य की रचना करता है। अब हम एक नए दौर में प्रवेश कर चुके हैं। यहां से हम अपने साहित्य की पहचान और परख के लिए स्त्री-दृष्टि के रूप में खुलते एक नए विकल्प की ओर देख सकते हैं। हालांकि इतने आशावादी होने से पहले हमें यह देखना होगा कि स्त्री विमर्श का मौजूदा दौर, हमें वहां तक ले जा पाने लायक भी हुआ है या नहीं, जहां से हम स्त्री-दृष्टि से युक्त होने की गुंजाइश पाते हैं।
स्त्री विमर्श के मुख्य रूपों का संबंध मूल्य, आचरण और मनोविश्लेषण में है
स्त्री विमर्श के मुख्य रूपों का संबंध मूल्य, आचरण और मनोविश्लेषण से दिखाई देता है। अपने मूल्यगत रूप में, स्त्री विमर्श का मुख्य क्षेत्र समाज-सांस्कृतिक है। ये मूल्य मुख्यत: नैतिक वर्जनाओं को चुनौती देने से निर्मित होते हैं। यह चुनौती संबंधों के परंपरागत रूपों के अंतर्विरोधों को अपना निशाना बनाती है। इससे प्रकट संघर्षशीलता से इन मूल्यों का अंतर्विकास होता है। आचरण से संबंधित स्त्री विमर्श में आंदोलनधर्मिता और संवैधानिक सुधारों से जुड़ी जद्दोजहद का विशेष महत्त्व रहता है।
इस स्त्री विमर्श में पूर्व पश्चिम में विभाजित आचरण पद्धतियों और भिन्नताओं के अलावा, नस्लों और प्रवासी जन-समूहों की भूमिकाएं विवेचन का आधार हो जाती हैं। मनोविश्लेषण को आधार बनाने वाला स्त्री विमर्श, एक अलग तरह की ‘स्त्री भाषा’ और ‘ज्ञान क्षेत्र’ की मौजूदगी की बात करता है। वैसे हकीकत यह है कि स्त्री विमर्श के ये सभी रूप एक दूसरे से गुंथे हुए रहते हैं।
अब जब स्त्री पुरुष की समानता, सापेक्ष स्वतंत्रता, परिवार और व्यावसायिक क्षेत्र में स्त्री के अधिकार और वर्चस्व के सवाल उठाए जाते हैं, तो वे न केवल नए समाज-सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण की जरूरत तक ले जाते हैं, वे परिवेश और सभ्यता के बदलाव की भूमिका भी बनाते हैं। स्त्री देह की प्राथमिकता से जुड़े हुए यौनिक हिंसा, गर्भ धारण और प्रसव संबंधी सवाल, एक साथ सभ्यतामूलक, मूल्यगत और राजनीतिक सवाल तक मालूम पड़ते हैं।
पुरुष वर्चस्वी समाज में, स्त्री विरोधी दमन, उत्पीड़न, अन्यायपूर्ण और अमानवीय व्यवहार विशेष स्थितियों में तो दिखाई देते हैं, पर यह स्त्री विमर्श की एक सीमा है कि उसमें इन बातों को, आम तौर पर उपस्थित रहने वाली एक सामान्य स्थिति की तरह प्रस्तुत किया जाता है। इससे वह यथार्थ की समग्रता को व्यक्त करने वाला न रह कर, समस्या के अतिशयोक्तीकरण और राजनीतिकरण की ओर अधिक झुक जाता है। इससे बहस मूल मुद्दे से भटक कर लोकप्रिय आग्रहों और पूर्वाग्रहों की शक्ल लेने लगती है। इससे ‘स्त्रीवादी होना’ या ‘न होना’, गर्व, फैशन या नारे जैसी स्थिति में बदल जाता है।
समान अधिकार, सम्मान, न्याय और स्वतंत्रता जैसी धारणाएं, सामान्यत: स्वीकृत होने के बावजूद, व्यवहार में इस सवाल से उलझ जाती हैं कि उनकी सीमारेखा या मर्यादा क्या है? यहां विचारणीय बात यह है कि पितृसत्ता द्वारा किए गए दमन से स्त्री की मुक्ति का सवाल, पुरुषों के दमन से मुक्ति का सवाल भर नहीं है। वह एक ‘व्यवस्था’ से मुक्ति का सवाल है। व्यवस्था से मुक्ति के बिना इसे पाया नहीं जा सकेगा।
स्त्री विमर्श का अंतिम सरोकार समाज से विषमता के सभी रूपों का अंत है। स्त्री के दमन से संबंधित हिंसा के अनेक रूप होते हैं। इन सबसे मुक्ति की बात समाज-सांस्कृतिक चेतना में बुनियादी तब्दीली लाए बिना मुमकिन नहीं।