हमें यह समझना होगा कि हिंदी की महत्ता और प्रधानता की चर्चा करने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि अन्य भारतीय भाषाओं को कमतर समझा जा रहा है। यह स्वीकार योग्य है कि अन्य भाषा हिंदी से कम नहीं है, अपितु सबका स्थान और मान बराबर है। लेकिन, देश को एक सूत्र में बांधे रखने और संस्कृतियों का संवहन करने का सर्वाधिक सामर्थ्य अगर किसी भाषा में है तो यह फिलहाल हिंदी में ही है। अंग्रेजीवाद को रोकने की शक्ति इसी में है। अन्य कोई भाषा अंग्रेजी का सामना करने की हालत में नहीं है। तमिलनाडु ने जब हिंदी का विरोध किया तो उसकी भाषा तमिल का प्रवाहीकरण भी अंग्रेजी में हो गया।
यह मेरे लिए अपमान का विषय होना चाहिए, जिसमें औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी की दासता से न तो सरकार मुक्त हो सकी और न हमारी दिनचर्या। पिछले दो सालों में कई विदेश भ्रमणों में मैंने अनुभव किया कि हिंदुस्तानी पर्यटक जो अच्छी तरह हिंदी बोल, लिख सकते हैं मिथ्या मर्यादा के परिपालन में अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते थे। मुझे अपनी हिंदी पर गर्व रहने के कारण मेरा भी संकल्प था कि जहां अति अनिवार्य होगा वहीं अंग्रेजी का उपयोग किया जाएगा। अंतत: ज्यादातर पर्यटक जो मेरे भ्रमण दल में थे, देर-सबेर हिंदी की बिंदी अपने माथे पर लगाने को तत्पर दिखे, भले ही कभी-कभी उनकी जुबान अटक जाया करती थी।

आजादी के बाद देश के नीति नियंताओं ने हिंदी की प्रधानता को मूल धारा में चलने में अवरोध उत्पन्न किया जिसे हम ऐतिहासिक भूल कह सकते हैं। अपने अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए हिंदी को अंग्रेजी से संघर्ष करना पड़ रहा है। आजादी के बाद सरकार ने अंग्रेजी को राजभाषा अधिनियम में मात्र दशक भर के लिए रखा था लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सका। हालांकि, महात्मा गांधी ने कहा था कि किसी विदेशी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाना मैं राष्टÑ का बड़ा दुर्भाग्य मानता हूं। फिर भी आज अंग्रेजी हमारी उच्चताबोध का साधन और प्रतीक है। यह पीड़ाजनक है कि हिंदी आज अपने घर में पड़ोसी की भूमिका में है। जरूरत है आज हिंदी को बढ़ावा देने की जिसके लिए सबसे बेहतर यही होगा की देश में शिक्षा का माध्यम हिंदी समेत भारतीय भाषाएं हों। अंग्रेजी एक भाषा के रूप में पढ़ाए जाने तक सीमित रहे।
-डॉक्टर अशोक कुमार,
पूर्व सदस्य, बिहार लोक सेवा आयोग, पटना</p>