कलबुर्गी की हत्या का विरोध करते हुए कथाकार-कवि उदय प्रकाश ने अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार वापस करने का निर्णय लिया है। निश्चित रूप से यह कदम उनकी संवेदनशीलता और स्थितियों के प्रति सरोकार को उजागर करता है। यह हत्या अपनी शृंखला की पहली घटना नहीं है बल्कि हाल के समय में दक्षिणपंथी लोगों ने जो सिलसिला शुरू किया है उसी क्रम में यह एक कड़ी है।

इस संदर्भ में यह भी समझा जा सकता है कि हत्यारे केवल मोहरे हैं और उन्हें सांप्रदायिक शक्तियों का वरदहस्त है। हवा में एक सनसनी यह भी है कि ये क्रमिक होती जा रही हत्याएं हिंदुत्व के पक्षधर वर्ग का शक्ति प्रदर्शन है। यह विचार का एक पक्ष है।

दूसरी ओर, देश असहाय होकर देख रहा है कि राजनीतिक सत्ता द्वारा सभी साहित्यिक, सांस्कृतिक और कला अकादमियां कब्जे में की जा रही हैं और प्रगतिशील रचनात्मकता को अवरुद्ध किया जा रहा है। इस क्रम में ताजा उदाहरण नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी का है जिसकी चारिक संपदा पर भी गाज गिरने की स्थिति बन रही है।

ऐसे में समझा जा सकता है कि तमाम दूसरी संस्थाओं की तरह देश की साहित्य अकादेमी भी दबाव में है और उसकी स्वायत्तता वर्तमान राजनीतिक परिवेश के आगे घुटन महसूस कर रही है। ऐसे में, उदय प्रकाश के पुरस्कार लौटाने की घटना साहित्य अकादेमी को और अधिक दबाव में लाने की स्थिति रचेगी और यह प्रभाव वर्तमान राजनीतिक सत्ता के मंसूबे के अनुकूल ही होगा।

मैं सोचता हूं कि कलबुर्गी और इस क्रम में होने वाली हत्याओं का विरोध राजनीतिक सत्ता पर दबाव बना कर और साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं के पक्ष में खड़े होकर ज्यादा सार्थक ढंग से व्यक्त किया जा सकता है। मेरी राय है कि उदय प्रकाश साहित्य अकादेमी के साथ बने रह कर लेखकों को संगठित करने का अभियान चलाएं ताकि दबाव का केंद्र राजनीतिक सत्ता के कुटिल मंसूबों को तोड़ने में सक्षम होे।

अभी तो उदय प्रकाश के पुरस्कार लौटाने से सत्ता के ऊपर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ेगा, उलटे साहित्य अकादेमी और उसके लेखक आपस में अलग-थलग पड़ जाएंगे।
’अशोक गुप्ता, इंदिरापुरम, गाजियाबाद

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