पुण्य प्रसून वाजपेयी
हिंदुत्व तो दर्शन और व्यवहार दोनों स्तर पर ‘सर्व धर्म समभाव’ को लेकर चलता है। हिंदुत्व को कभी भी अपनी संख्या वृद्धि के लिए धोखाधड़ी और जबरदस्ती का आश्रय लेना नहीं पड़ा है…।’ धर्मांतरण को लेकर चल रही बहस के बीचे ये विचार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हैं। अगर प्रधानमंत्री मोदी को धर्मांतरण पर अपनी बात कहनी है तो फिर संघ के इस विचार से इतर वे कैसे कोई दूसरी व्याख्या धर्मांतरण को लेकर कर सकते हैं।
यह वह सवाल है जो प्रधानमंत्री को राज्यसभा के हंगामे के बीच धर्मांतरण पर अपनी बात कहने से रोक रहा है। सवाल यह भी नहीं है कि धर्मांतरण को लेकर जो सोच संघ का है, वह प्रधानमंत्री मोदी राज्यसभा में कह नहीं सकते। सवाल यह है कि हिंदुत्व की छवि तोड़कर विकास की जो छवि प्रधानमंत्री मोदी लगातार बना रहे हैं, उसमें धर्मांतरण सरीके सवाल पर जवाब देने का मतलब अपनी ही छवि पर मट्ठा डालने जैसा हो जाएगा। लेकिन यह भी पहली बार है कि इस सवाल पर मोदी सरकार को मुश्किल हो रही है तो इससे बेचैनी संघ में भी है। माना यही जा रहा है कि जो काम खामोशी से हो सकता है, उसे हंगामे के साथ करने का विचार धर्म जागरण मंच में आया ही क्यों? क्योंकि मोदी सरकार को लेकर संघ की संवेदनशीलता कहीं ज्यादा है। वाजपेयी सरकार के दौर में एक वक्त संघ रूठा भी और वाजपेयी सरकार के खिलाफ खुलकर खड़ा भी हुआ। लेकिन मोदी सरकार को लेकर संघ की उड़ान किस हद तक है, इसका अंदाजा इससे भी लग सकता है कि सपनों के भारत को बनाने वाले नायक के तर्ज पर प्रधानमंत्री मोदी को सरसंघचालक मोहन भागवत लगातार देख रहे हैं और कह भी रहे हैं। हालांकि इन सबके बीच संघ परिवार के तमाम संगठनों को यह भी कहा गया है कि वे अपने मुद्दों पर नरम न हों। यानी मजदूरों के हक के सवाल पर भारतीय मजदूर संघ लड़ता हुआ दिखेगा जरूर। एफडीआइ के सवाल पर स्वदेशी जागरण मंच कुलबुलाता हुआ नजर जरूर आएगा और घर वापसी को धर्मांतरण के तौर पर धर्म जागरण मंच नहीं देखेगा।
दरअसल धर्म जागरण मंच की आगरा शाखा ने घर वापसी को ही जिस अंदाज में सबके सामने पेश किया, उसने तीन सवाल खड़े किए हंै। पहला, क्या संघ के भीतर अब भी कोई मठाधीशी चल रही है जो मोदी सरकार के प्रतिकूल है। दूसरा, क्या विहिप को खामोश कर जिस तरह जागरण मंच को उभारा गया उससे विहिप खफा है और उसी की प्रतिक्रिया में आगरा कांड हो गया। तीसरा, क्या मोदी सरकार के अनुकूल संघ के तमाम संगठनों को मथने की तैयारी हो रही है जिससे बहुतेरे सवाल मोदी सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं।
जो भी हो, लेकिन संघ को जानने-समझने वाले नागपुर के दिलिप देवधर का मानना है कि जब अपनी ही सरकार हो और अपने ही संगठन हों और दोनो में तालमेल न हो तो संकेत साफ है कि संघ की कार्यपद्धति निचले स्तर तक जा नहीं पाई है। यानी सरसंघचतालक संघ की उस परंपरा को कार्यशैली के तौर पर अपनाना चाह रहे हंै जिसका जिक्र गुरु गोलवलकर अक्सर किया करते थे। संघ परिवार की संस्थाओं में आकाश तक उछाल आना चाहिए। लेकिन जब हम दक्ष बोलें तो सभी एक लाइन में खड़े हो जाएं। मौजूदा वक्त में मोदी सरकार और संघ परिवार के बीच मुश्किल यह है कि दक्ष बोलते ही क्या वाकई सभी एक लाइन में खड़े हो पा रहे हैं।
वैसे, पहली बार संघ की सक्रियता किस हद तक सरकार और पार्टी को नैतिकता के धागे में पिरोकर मजबूती के साथ खड़ा करना चाह रही है, यह संघ परिवार के भीतर के परिवर्तनों से भी समझा जा सकता है। क्योंकि मोहन भागवत के बाद तीन स्तर पर कार्य हो रहा है, जिसमें भैयाजी जोशी संघ और सरकार के बीच नीतिगत फैसलों पर ध्यान दे रहे हैं। सुरेश सोनी की जगह आए कृष्णगोपाल संघ और भाजपा के बीच तालमेल बैठा रहे हैं। और दत्तात्रेय होसंबोले संघ की कमान को मजबूत कर संगठन को बनाने में लगे है।
यानी बारीकी से सरकार और संघ का काम आपसी तालमेल से चल रहा है । ऐसे में धर्मांतरण के मुद्दे ने पहली बार संघ के बीच एक नया सवाल खड़ा किया है कि अगर संघ के विस्तार को लेकर कोई भी मुश्किल सरकार के सामने आती है तो फिर रास्ता निकालेगा कौन? प्रधानमंत्री मोदी विकास की जिस छवि के आसरे मजबूत हो रहे हैं, उसके दायरे में देश के वोटरो को बांटा नहीं जा सकता और धर्मांतरण सरीखे मुद्दे पर अगर प्रधानमंत्री को जवाब देना पड़े तो फिर वोटरों का भी विभाजन जातीय तौर पर और धर्म के आधार पर होगा। मतलब यह कि एक तरफ संघ का विस्तार भी हो और दूसरी तरफ भाजपा को सत्ता भी हर राज्य में मिलती चले, इसके लिए संघ और सरकार के बीच तालमेल न सिर्फ गुरु गोलवलकर के सोच के मुताबिक होना चाहिए , बल्कि प्रचारक से पीएम बने मोदी दोबारा प्रचारक की भूमिका में न दिखायी दें, जरूरी यह भी है।
धर्मांतरण का सवाल कितना संवैधानिक है या कितना असंवैधानिक, दोनों हालात के बीच घर वापसी पर अडिग संघ परिवार की लकीर इतनी मोटी है कि सरकार को भी उसी लकीर पर चलने को बाध्य कर रही है। ऐसे में संघ का पाठ प्रधानमंत्री कैसे पढ़ सकता है। इसे विपक्ष समझ रहा है या नहीं, लेकिन प्रचारक से प्रधानमंत्री बने मोदी जरूर समझ रहे हैं।