डॉ. वरुण वीर
आजादी के बाद से भारतीय शिक्षा-व्यवस्था शायद उन लोगों के हाथ में रही, जिनको भविष्य की कल्पना नहीं थी और साथ शायद भारत की मूल प्रकृति को भी समझने में असमर्थ थे या जानबूझ कर समझना नहीं चाहते थे। उस समय भारत की शिक्षा नीति में अगर भारतीय संस्कार होते, तो आज इक्कीसवीं सदी में भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की कमी, नागरिकों में कर्तव्य की अवहेलना, स्वच्छता का अभाव, भ्रष्टाचार तथा सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों में काम करने में लापरवाही और आलस्य आदि दोष न होते। आज समस्त विश्व यूरोप और अमेरिका का अनुसरण इसलिए करता है, क्योंकि वहां धन तथा विकास की पराकाष्ठा दिखाई देती है, व्यवहार तथा आचरण की दृष्टि से भी समूचे विश्व से लोग वहां पर जाकर बसना चाहते हैं। पश्चिमी देशों में भी केवल भौतिक सुविधाएं तथा संपन्नता है। वे राष्ट्र विश्व के दूसरे विकासशील राष्ट्रों से बेहतर हैं, लेकिन केवल शरीर की सुविधाओं तक सीमित हैं। मन उनका भी अत्यधिक अशांत और बेचैन है।
विश्व के देशों का अगर ध्यानपूर्वक अध्ययन करें तो कोई भी देश विश्व का आदर्श नहीं कहा जा सकता, क्योंकि किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का विकास या फिर कहें शिक्षित नहीं करती है। सभी देशों की शिक्षा केवल रोजगार देने तक सीमित रहती है। रोजगार देना ही आज के विश्वविद्यालयों तथा शैक्षिक संस्थानों का अंतिम लक्ष्य है। यह बुरा नहीं है, लेकिन अधूरा है। इस अधूरे लक्ष्य को पूरा बनाने के लिए शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा आत्मा को सुखी, स्वस्थ बनाने के लिए योग को शिक्षा नीति का आधार बनाना चाहिए। योग को प्रतिदिन कक्षा में अनिवार्य रूप से अपनाना चाहिए। योग, जिसमें शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा आत्मा के स्तर तक लाभ पहुंचाया जाता है। आज की शिक्षा विद्यार्थी को इंजीनियर, डॉक्टर, पायलट, व्यापारी, कर्मचारी या अधिकारी तो बना रही है, लेकिन अच्छा संस्कारी मनुष्य नहीं बना पा रही है। अच्छा मनुष्य बनाने के लिए वर्तमान शिक्षा के साथ-साथ योगिक संस्कारों की शिक्षा देना परम आवश्यक है। आज की शिक्षा प्रकृति तक तो जाती है, लेकिन आत्मा और परमात्मा को नकारती या फिर धार्मिक मान्यताओं को बिना समझे उनसे दूरी बना कर रखना चाहती है।
विद्यार्थियों के साथ-साथ सभी निजी, सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों में अनुशासन की आवश्यकता है। समय का अनुशासन यानी समय पर कक्षा तथा कार्यालय पहुंचना, समय पर अपने कार्य को निपटाना अनिवार्य होना चाहिए। किसी भी प्रकार का आलस्य तथा लापरवाही से बचना योग का प्रथम नियम है। विद्यालयों में अहिंसा का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। जिस प्रकार हम में आत्मा है उसी प्रकार सभी जीवों में आत्मा है। सभी को आत्मवत समझना और हिंसा का त्याग कर देना। इसलिए हमारा भोजन भी अहिंसक होना जरूरी है अर्थात शाकाहारी होना चाहिए। लेकिन अहिंसा का यह अर्थ कदापि नहीं होना चाहिए कि हम अपने परिवार और राष्ट्र की रक्षा भी न करें। दुष्ट, अधर्मी, अत्याचारी के सामने साहस और दृढ़ता से खड़े होकर उसका नाश करना भी अहिंसा की रक्षा करना ही है। विद्यार्थियों को सत्य आचरण की शिक्षा देना भविष्य में भ्रष्टाचार की समस्या को समाप्त करने में सहायक होगी। व्यवहार तथा व्यापार में विश्वास को स्थापित करेगी और विश्वास ही सुख व सफलता का आधार है। आज व्यापारियों के व्यवहार में विश्वास की कमी है। व्यापार में ढेरों प्रकार के अनुबंध होने के बाद भी लोग बेईमानी कर लेते हैं और न्यायालय में केस लड़ने वाले व्यापारियों की लंबी-लंबी कतारें लगी रहती हैं। यह शिक्षा में सत्य आचरण ना होने के कारण है। किसी भी पदार्थ की चोरी न करना, परिश्रम से धन कमाना, किसी के हिस्से को हड़पने का प्रयास न करना, चोरी की भावना नहीं रखना, धन-संपत्ति, विद्या आदि ऐसी किसी भी वस्तु, जिसे अपने पुरुषार्थ से नहीं कमाया, मन में चुराने का विचार भी नहीं लाना।
ब्रह्मचर्य की शिक्षा शरीर को बलिष्ठ तथा कठिन परिश्रम वाला बनाती है। आज संपूर्ण विश्व में जो भी व्यभिचार फैला हुआ है, उसी कारण वैवाहिक संबंधों में टकराव आ रहा है और तलाक की समस्या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप लेती जा रही है। ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म की चर्या का आचरण करना और शरीर की अंतिम धातु ‘वीर्य’ की अधिक से अधिक रक्षा करना। जीवन को संयमित रूप से चलाना, सभ्य समाज में एक से अधिक शारीरिक संबंध बनाना अनैतिक है। परिवार और समाज की व्यवस्था को बिगड़ता है। इस कारण वासना को नियंत्रित करने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए, जिससे पारिवारिक जीवन लंबे समय तक आनंद पूर्वक चले। अपरिग्रह यानी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह प्रकृति में असंतुलन लाता है। जीवन में खर्चे तथा वस्तुओं का संग्रह जरूरत से अधिक नहीं होना चाहिए। कम से कम बिजली, पानी और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर किसी भी प्रकार से सरकारी संपत्ति को नुकसान न पहुंचाना। देश से लेने की बजाय देश को कुछ देने की भावना रखना तथा देश के लिए कुछ ना कुछ अपना श्रम देना आदि। अपने शरीर, मन तथा नगर को स्वच्छ रखने की शिक्षा आवश्यक है। मौजूदा भारत सरकार ने स्वच्छता का अभियान चला कर योग के इस अंग को स्थापित करने का सराहनीय कार्य किया है। इस नियम को आध्यात्मिक स्तर पर भी गहराई तक स्थापित करने की आवश्यकता है। बुद्धि पूर्वक तथा पूर्ण परिश्रम से काम कर उसकी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना और जो कुछ भी मिला, उसमें संतुष्ट रहना। असंतोषी स्वभाव हृदयाघात तथा ब्रेन हेमरेज का कारण बनता है। असंतोषी व्यक्ति कभी भी सुख शांति से जीवन यापन नहीं कर सकता है।
प्राण के स्तर पर तपस्या करना अर्थात प्राण को नियंत्रण में रखना। प्राणायाम द्वारा शारीरिक तथा मानसिक दोषों को दूर करना, उपवास, व्रत रखना इस प्रकार शरीर और मन हल्का अनुभव करता है और काम करने की शक्ति अधिक बढ़ जाती है। सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा लाभ-हानि आदि द्वंद्वो में सम रहना। यह गुण तप के द्वारा अर्जित किए जा सकते हैं। ज्ञानवर्धक आध्यात्मिक ग्रंथों का स्वाध्याय तथा अपने स्वभाव का अध्ययन स्वअध्ययन कहलाता है। स्वअध्ययन से अपने भीतर दुर्गुणों को पहचान कर उन्हें निकालने का यत्न दृढ़ता पूर्वक करना चाहिए और गुणों का ग्रहण सदैव करते रहना चाहिए। जिस प्रकार व्यक्ति शीशे में अपना चेहरा देखता और फिर उसे साफ करके सुंदर बनाना चाहता है उसी प्रकार स्वाध्यायशील व्यक्ति अपने व्यवहार तथा आचरण को सुंदर बनाता है, जिसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। ईश्वर की सत्ता में पूर्ण विश्वास तथा समर्पण का भाव रखना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में अहंकार का भाव जन्म नहीं लेता, जिससे उसके व्यवहार में नम्रता बनी रहती है। विनम्र स्वभाव ही परिवार तथा समाज में सफलता की नींव रखता है। विनम्र होना जीवन का सबसे अहम गुण है। विनम्र व्यक्ति से सभी प्रेम का संबंध बनाना चाहते हैं। विनम्र व्यवहार में सभी को जो आनंद मिलता है वह श्रेष्ठ है। अगर योग शिक्षा को विद्यालयों में पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जाए तो भारत कुछ ही वर्षों में अत्यंत बुद्धिमान, विनम्र, स्वाभिमानी, सेवाभावी तथा राष्ट्रभक्ति के साथ विश्व गुरु बन जाएगा और किसी धर्म, जाति, भाषा, प्रांत, तथा धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को कोई हानि भी नहीं है। योग ही है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाने का कार्य करता है। केवल योग शिक्षा के माध्यम से भारत विश्व गुरु बनने का आदर्श स्थापित कर सकता है, क्योंकि योग शिक्षा का मूल मानवता है। मनुष्य में पंचकोश होते हैं और योग शिक्षा पंचकोश अर्थात शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा आत्मा के स्तर तक मनुष्य को मनुष्य बनाती है।

