भारत में हर साल करीब दो सौ बीस लाख टन अनाज रखरखाव ठीक न होने के कारण खराब हो जाता है, जबकि करोड़ों लोग भुखमरी के शिकार हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार खराब हो रहे अनाज को गरीबों में बांट देने की भी सलाह दी थी। सरकारें इस दिशा में अभी तक कोई सार्थक कदम नहीं उठा पाई हैं। इस बारे में बता रहे हैं अभिषेक रंजन सिंह।
भारत में हर साल करीब पचास हजार करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद हो जाता है, जबकि दूसरी तरफ लाखों लोग भूख से मर जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र की भूख संबंधी सालाना रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में सबसे ज्यादा भुखमरी के शिकार भारतीय हैं। खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होकर भी भारत में भूख से जूझ रहे लोगों की संख्या चीन से भी ज्यादा है। इसकी एक बड़ी वजह हर स्तर पर होने वाली अन्न की बर्बादी है क्योंकि भारत में हर साल करोड़ों टन अनाज रखरखाव ठीक न होने की वजह से बर्बाद हो जाता है।
दुनिया भर में अस्सी करोड़ लोग हैं, जिन्हें दोनों जून खाना नहीं मिलता। इन में से करीब चालीस करोड़ लोग भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में है। विरोधाभास यह है कि इन देशों में खाद्यान्नों के अतिरिक्त भंडार भरे पड़े हैं, फिर भी भुखमरी पसरी हुई है। ुदुनिया में प्रतिदिन चौबीस हजार लोग किसी जानलेवा बीमारी से नहीं, बल्कि भूख से मर जाते हैं। इस संख्या का एक तिहाई हिस्सा भारत में रहता है। भूख से मरने वाले लोगों में अठारह हजार बच्चे होते हैं। इसमें छह हजार बच्चे भारतीय हैं। भारत में प्रति वर्ष लाखों टन अनाज सिर्फ भंडारण की सही व्यवस्था न होने की वजह से बर्बाद हो जाता है। घरेलू बाजार में खाद्यान्न की कमी और बढ़ती कीमतों के मुद्दे पर सरकारी दलीलें खुद सरकार की कार्यक्षमता पर सवालिया निशान लगाती हैं। आश्चर्य की बात यह है कि समुचित भंडारण न हो पाने के कारण अनाज के सड़ने की खबरें अक्सर समाचार पत्रों और चैनलों की सुर्खियां बनती हैं। लेकिन इस दिशा में केंद्र और कई राज्य सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठातीं।
फिलहाल देश में चार करोड़ टन भंडारण क्षमता की जरूरत है। भंडारण सही तरीके से न होने के कारण लगभग चालीस फीसद अनाज खुले में रखा जाता है, जिसका अंत बर्बादी में ही होता है। अवैज्ञानिक और गैरव्यावसायिक तरीके से किए गए भंडारण और गोदामों की उपलब्धता में क्षेत्रीय विसंगतियों के चलते देश में कुल उपज का बीस से तीस फीसद अनाज बर्बाद हो जाता है। यह सिलसिला बरसों से चला अ रहा है, लेकिन इस दिशा में कोई कारगर इंतजाम अभी तक नहीं हो पाया है। भंडारण की कमी की वजह से बड़े पैमाने पर अनाज खराब होता है। साथ ही, अन्न की बर्बादी कुछ दूसरे कारणों से भी होती है, जिनमें शादी-विवाह आदि मौके पर बनने वाले भोजन से जुड़ी है। भारत की संस्कृति में तो यों भी अन्न को ब्रह्म का दर्जा दिया गया है। इसीलिए थाली में जूठन छोड़ना भी अन्नपूर्णा का अपमान माना जाता है। लेकिन देखने में आता है कि घरों में ही नहीं शादी-पार्टियों में भी जूठन के रूप में खाने की खूब बर्बादी होती है। अन्न को सहेजने का काम हर कोई कर सकता है। हर जगह कर सकता है। लेकिन एक अजीब सी उदासीनता है हम सबके व्यवहार में। आज की जीवन शैली में न केवल ये संस्कार गुम हो गए लगते हैं बल्कि बदलते माहौल में दिखावे की संस्कृति ने अन्न की बर्बादी में और इजाफा भी कर दिया है। एक अध्ययन के मुताबिक शादी जैसे समारोहों खाने का बीस फीसद हिस्सा बर्बाद ही हो जाता है। ऐसे में आज जरूरत इस बात की है कि हम फिर अपनी परम्पराओं का चिंतन करें और अपनी आदतों में सुधार लाएं। कुछ लोगों का भूखे पेट सोना और खाने का कचरे में फेंका जाना कैसा विरोधभासी व्यवहार है? अनाज को सहेजने की दिशा में कई देश पहल कर रहे हैं ।
भंडारण में व्यापक खामियों के चलते कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई थी कि अगर भंडारण का इंतजाम नहीं किया जा रहा है तो क्यों नहीं अनाज को गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाता? लेकिन लगता है कि न तो सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास खुद होता है न ही उसे अदालतों की फटकार की कोई परवाह है। दूसरी ओर देश में बढ़ती आबादी की खाद्यान्न जरूरतें और उपलब्धता का हवाला देकर सरकारें अक्सर महंगाई के सवाल की अनदेखी करती हंै और भविष्य में अनाज की कमी न हो, इसलिए जीन संशोधित फसलों की वकालत करती हैं। जबकि जीएम तकनीक से पैदा ऐसी फसलों के जोखिम से भरे होने को लेकर कई अध्ययन आ चुके हैं। अभाव और जरूरत की इस दलील के बरअक्स तथ्य यह है कि सिर्फ प्रबंधन या व्यवस्थागत लापरवाही के चलते देश में लाखों टन अनाज बर्बाद हो जाता है। ऐसी स्थिति में आबादी के अनुपात में अनाज की उपलब्धता को लेकर चिंता जताने या महंगाई के मसले पर दी जाने वाली सरकारी दलीलें कई बार बेहद लचर नजर आती हैं।
ब्रिटेन की एक संस्था की ओर से जारी एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया था कि भारत में भंडारण की खामियों के चलते हर साल लगभग करोड़ों टन गेहूं और चावल बर्बाद हो जाता है, जबकि देश में ऐसे लाखों लोग हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिल पाता या फिर पर्याप्त पोषण के अभाव में वे गंभीर बीमारियों का शिकार होकर जान गवां देते हैं। ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य भंडारण के लिए कोई कानून नहीं है। 1979 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने खाद्यान्न बचाओ कार्यक्रम शुरू किया था। इसके तहत किसानों में जागरूकता पैदा करने और उन्हें सस्ते दामों पर भंडारण के लिए टंकियां उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। इसके बावजूद अनाजों की बर्बादी का सिलसिला बदस्तूर जारी है। देश में अनाज भंडारण की अहम जिम्मेदारी भारतीय खाद्य निगम की है। लेकिन देश में एफसीआई के गोदामों की हालत किसी से छिपी नहीं है। पुराने जर्जर हो चुके गोदामों में बगैर किसी इंतजाम के लाखों टन अनाज रखा जाता है, लेकिन कुछ ही महीने में अनाज का एक बड़ा हिस्सा बर्बादी की भेंट चढ़ जाता है। देश की जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। ऐसे में सभी लोगों को अन्न कैसे मिले, यह एक बड़ी चुनौती है।
निश्चित रूप से इस देश में हरित क्रांति सफल हुई और खाद्यान्न संकट खत्म हो गया। लेकिन इसे सरकारी नीतियों की खामी ही कहा जाएगा कि अन्न सुरक्षा के प्रति इस देश में कोई अभियान नहीं चलाया गया। मिसाल के तौर पर बिहार के गंगा और कोसी इलाके में मक्का की खेती सर्वाधिक होती है। एशिया में सबसे अधिक मक्का इसी क्षेत्र में उगाया जाता है, लेकिन भंडारण के अभाव में हजारों टन मक्का बर्बाद हो जाता है। अगर आप रबी सीजन के दौरान खगड़िया, भागलपुर, बेगूसराय, सहरसा और पूर्णिया जाएगें तो सड़कों के दोनों किनारे मक्का सूखते नजर आएंगे। बारिश होने की स्थिति में उसे बचाना मुश्किल हो जाता है। इस तरह एक उत्तम गुणवत्ता का मक्का पशुओं के खिलाने काम आता है। वहीं आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी मक्के की खेती की जाती है, लेकिन सरकार की ओर से किसानों के लिए कई सारे गोदाम बनाए गए हैं, जहां वे अपने अनाज का भंडारण करते हैं। इस हकीकत से भला कौन इनकार करेगा कि भारत जैसे देश में जहां इतने बड़े पैमाने पर अनाज का उत्पादन किया जाता है, वहां पर्याप्त संख्या में गोदाम का न होना किसानों के लिए एक बड़ी त्रासदी है।
निश्चित रूप से मौजूदा केंद्र सरकार किसानों के लिए प्रधानमंत्री सिंचाई योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार नीति जैसी योजनाओं की शुरुआत की है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है किसानों के अनाज को सुरक्षित रखना। अगर ऐसा नहीं होता है तो सरकार की तमाम योजनाओं का कोई फायदा नहीं होगा। भारत में सालाना 220 लाख टन गेंहू भंडारण की सही व्यवस्था के अभाव में बर्बाद हो जाता है, जो आस्ट्रेलिया में प्रतिवर्ष पैदा होने वाले गेहंू के बराबर है। भारत जैसे विशाल देश में बाढ़ और सूखा एक बड़ी प्राकृतिक आपदा है, ऐसे में यह आवश्यक है कि देश में भंडारण की सुविधा बढ़ाई जाए, ताकि अनाज के हर दाने की हिफाजत हो।
भारत सरकार ने फसल बीमा योजना को और बेहतर बनाने की कोशिश की है। इस दिशा में सरकार को एक और कदम उठाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि किसानों के अनाज का भी बीमा हो। अक्सर देखा जाता है कि किसान किसी तरह मौसम की मार से बचाते हुए अनाज घर तक तो ले आते हैं, लेकिन भंडारण की व्यवस्था न होने के कारण अनाज बर्बाद हो जाता है। सरकार को चाहिए कि हर पंचायत में सरकारी गोदामों का निर्माण कराया जाए। कृषि मंत्रालय का कहना है कि भारत अब अन्न की कमी से ऊपर उठकर खाद्यान्न के मामले में सरप्लस देश बन गया है। एक ओर हमारे और आपके घर में रोज सुबह रात का बचा हुआ खाना बासी समझकर फेंक दिया जाता है तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वह भूख से मर रहे हैं।
अफसोस तो यह कि दुनिया भर में निर्यात करने वाले देश में ही तीस करोड़ गरीब जनता भूखी सोती है। फिर हम इस खुशफहमी में कैसे जी सकते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है, जो सबका पेट भरता है। अगर वाकई ऐसा है तो हमारा देश भूखा क्यों हैं? आज भी छत्तीसगढ़, बुंदेलखंड, ओडिशा, झारखंड और बिहार में भुखमरी का प्रतिशत ज्यादा क्यों बना हुआ है? एक तरफ देश में भुखमरी का खतरा मंडरा रहा है वहीं सरकारी लापरवाही के चलते लाखों टन अनाज बारिश की भेंट चढ़ रहा है। अनाजों के सड़ाने का एक अर्थशास्त्र यह भी देखा गया है कि मंहगे दर खरीद गए गेहूं को सड़ाकर उसे औने-पौने शराब कंपनियों को बेच दिया जाता है। यानी जितना अधिक अन्न सड़ेगा, शराब कंपनियों को उतना ही अधिक लाभ होगा। दरअसल, देखा जाए तो अनाज सड़ाने के पीछे एक राजनीति भी काम कर रही है।
देश के दस लोगों के पास जितनी संपत्ति बताई जाती है, उतनी निचले तबके के दस करोड़ लोगों के पास कुल मिलाकर नहीं है। करोड़ों लोगों को दिन शुरू करने के साथ ही यह सोचना पड़ता है कि आज पूरे दिन पेट भरने की व्यवस्था कैसे होगी। जाहिर है अभी हम अन्न की बर्बादी के अप्रत्यक्ष परिणामों से वाकिफ नहीं हैं। इसका बड़ा खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ेगा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर पौन घंटे के अंतराल में देश का एक किसान आत्महत्या कर लेता है। जाहिर है किसानों का संकट सिर्फ उन्हीं तक महदूद नहीं है। यह सवाल देश की खाद्य सुरक्षा से भी जुड़ा है। औद्योगिक विकास और विदेशी पूंजी निवेश की चिंता में दुबली होती हमारी सरकारों ने किसानों की लगातार अनदेखी की है। शहरीकरण और औद्योगीकरण के चलते खेती का रकबा लगातार घटता जा रहा है। खेती घाटे का सौदा बन गई है और किसान कर्ज के कुचक्र में फंस गया है। नतीजतन खेती से उसका मोहभंग होता जा रहा है। कहा जा सकता है कि हमारी खेती और किसानों की मौजूदा हालत देश की कृषि नीति की ही नहीं, बल्कि विकास नीति की भी विफलता है। ०