नरेंद्र नागदेव
साहित्य शब्दों के माध्यम से मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है, जबकि वास्तुकला ठोस उपयोगिता पर आधारित एक सामाजिक उपक्रम। फिर भी उनमें अंतर्निहित साम्य और संबंधों से इंकार नहीं किया जा सकता। साहित्य में लेखक अपनी संवेदना को लेखन कला के माध्यम से इस तरह गढ़ कर प्रस्तुत करता है कि वह पाठक की संवेदना बन जाती है। वास्तुकला में भी वास्तुकार जिस भाव को संप्रेषित करना चाहता है, उसे आकार और उनके संयोजन से इस तरह गढ़ता है कि दर्शक वहां उसी भाव को ग्रहण करते हैं। प्रत्येक लेखक की प्रस्तुतीकरण की अपनी शैली होती है, जो उसके शब्द चयन और वाक्य विन्यास से रूप ग्रहण करती है। ठीक वैसे ही प्रत्येक वास्तुकार की भी अपनी शैली होती है, जो उसके द्वारा सृजित आकारों और उनके बीच ‘स्पेस’ के सृजन से परिभाषित होती है।
साहित्य समय के अनुसार अपना स्वरूप बदलता है। इसलिए भिन्न कालखंडों में लिखे गए साहित्य का उसकी प्रकृति के अनुसार वर्गीकरण किया जाता है। ठीक वैसे ही वास्तुकला भी वक्त के अनुसार अपना स्वरूप बदलती है, और उसे भी वैसे ही वर्गीकृत किया जाता है। साहित्य जैसे अपने समय का बिंब होता है, वैसे ही वास्तुकला भी अपने समय को प्रतिबिंबित करती है। रामायण-महाभारत से लेकर मीरां-सूर-तुलसीदास तक, युग-युगांतर से साहित्य पाठकों को अपनी तरह से ईश्वर का अहसास कराता रहा है। ठीक वही अहसास वास्तुकला दर्शकों को कराती है अपने पूजास्थलों की रचना में, वहां के शिखरों-गर्भगृहों-जलकुंडों द्वारा, वहां आकारों और संरचनाओं से सृजित चाक्षुष अनुभूति द्वारा। प्रेम की उदात्त भावना की अनुभूति साहित्य अपने पाठकों को कराता रहा है अपनी अमर रचनाओं द्वारा, और उसी अनुभूति तक वास्तुकला अपने दर्शक को ले जाती है, ताजमहल जैसी अद्भुत इमारत के सृजन द्वारा। किसी मेमोरियल या समाधि पर घूमते हुए दर्शक के मन मे वही भाव और स्मृतियां उत्पन्न होती हैं, जैसी उसका साहित्य पढ़ते समय उत्पन्न हुई होंगी।
वास्तुकला के दो स्पष्ट भाग होते हैं। पहला है ‘डिजाइन’ या संरचना, और दूसरा है वास्तविक निर्माण। संरचना वाला पहला भाग सृजन आधारित होता है। सृजन का यही भाग उसे साहित्य से सीधे संबद्ध करता है, क्योंकि वहां भी मूल स्वर तो सृजन ही है। दोनों अपने-अपने माध्यमों से वह सब सृजित करते हैं जो जीवन को पूर्णता, सार्थकता और गति देता है। इमारतें भी न महज उपयोगिता होती हैं, न महज सौंदर्य। वे संस्कृति का प्रतीक होती हैं। वे प्रश्रय भर नहीं होतीं, बल्कि जीवन पद्धति की संवाहक होती हैं। वे वर्तमान का प्रतिबिंब ही नहींं, भविष्य की आहट भी होती हैं। साहित्य स्वयं अपने माध्यम से इन्हीं तमाम संचेतनाओं का संवाहक होता है। साहित्य अमूर्त में, भावनाओं के प्रस्तुतीकरण के जरिए जीवन को वही पूर्णता प्रदान करता है, जो वस्तुकला ठोस भौतिक स्वरूप में अपने विशिष्ट माध्यमों के जरिए प्रदान करती है।
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी जगह का साहित्य वहां की कला के तमाम प्रारूपों को किसी न किसी रूप में प्रभावित करता है, जिनमें वास्तुकला भी एक है। किसी स्थान की वास्तुकला को समझने के लिए वहां के साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। हालांकि सीधे तौर पर वास्तुकला अपने आकार साहित्य की प्रेरणा से ग्रहण नहींं करती। उसका अपना एक विशिष्ट तंत्र है। उसकी संरचना और आकार कई आयामों पर आधारित होते हैं। जैसे वह कारण तथा उपयोगिता जिसके लिए निर्माण प्रस्तावित है, उसकी जरूरतें, उस क्षेत्र विशेष की संस्कृति, वहां उपलब्ध निर्माण सामग्री, वहां की जलवायु, वहां के निर्माण से संबंधित नियम-उपनियम आदि अनेक स्थितियां। इन सभी के साथ सामंजस्य बनाते हुए उसे वह पूर्णता प्राप्त करनी होती है, जिसमें दर्शक स्वयं को उस भावना के साथ एकाकार कर सके, जिसके लिए उसे सृजित किया गया है। धार्मिक-आध्यात्मिक अवधारणाएं अवश्य संरचना तथा आकारों के निर्धारण का आधार होती हैं।
तथापि यह भी सच है कि वास्तुकला की उपलब्धियां साहित्य में दर्ज होकर शाश्वत और कालातीत हो जाती हैं। प्राचीन काल से एक देश से दूसरे देश में पहुंचे यात्रियों के यात्रा वृत्तांतों मे उस समय की समृद्ध वास्तुकला परंपरा सुरक्षित होती रही है- उनके मिट जाने के बाद भी। कालिदास के मेघदूत में मेघ के रास्ते में आए मंदिरों, नगरों के वर्णन से लेकर चीनी यात्रियों के नालंदा-तक्षशिला विद्यापीठों तक, और बाद में प्रत्येक युग में लिखे गए साहित्य और यात्रा वर्णनों मे तत्कालीन वास्तुकला आगे आने वाले युगों के लिए सुरक्षित हो जाती है और सुरक्षित हो जाती है अपनी तरह से धार्मिक ग्रंथों में भी, जहां सोने की लंका के नख-शिख वर्णण होते हैं या सुदामा के द्वारका पहुंचने पर देखी गई नगरी की जगमग और संपन्नता, या देवताओं के लिए संरचना करने वाले महान वास्तुकार विश्वकर्मा सृजित भवन और नगरियां। कौन भूल सकता है ताजमहल पर लिखी गई रवींद्रनाथ ठाकुर की वे पंक्तियां- ‘काल गाल पर शुभ्र समुज्ज्वल, एक बूंद नयनों का खारा जल, यह ताजमहल।’
लेकिन वास्तुकला का जो दूसरा भाग होता है, अर्थात वास्तविक निर्माण, उसमें बड़े पैमाने पर धन का जुड़ाव होने के कारण उसके साथ अक्सर निहित स्वार्थ, भ्रष्टाचार, धन लोलुपता आदि तमाम बुराइयां आ जुड़ती हैं। मूल्यों का विघटन चरम तक पहुंच जाता है। अक्सर यह एक रणभूमि होती है, जहां संघर्ष जारी रहता है- सही और गलत के बीच, सच और झूठ के बीच। इसी पृष्ठभूमि पर विख्यात अमेरिकी लेखिका आईन रेंड ने अपने क्लासिक उपन्यास ‘फाउंटन हेड’ की रचना की, जो अंगे्रजी साहित्य के सार्वकालिक श्रेष्ठ उपन्यासों में शुमार किया जाता है। इसमें अपनी कला और सिद्धांतों को समर्पित एक युवा वास्तुकार की संघर्ष गाथा है, जो विकट विपरीत परिस्थितियों में एक भ्रष्ट तंत्र से संघर्ष करते हुए अंत में सफल होता है।
ज्ञातव्य है कि आईन रेंड स्वयं वस्तुकार नहीं थी, लेकिन उन्होंने इस उपन्यास में वास्तुकला जगत को इतनी विश्वसनीयता के साथ चित्रित किया है कि हर सही संघर्षशील वास्तुकार को यह अपनी कहानी लगती है। हालांकि इसमें अमेरिका के वास्तुकला जगत का चित्रण है, लेकिन विश्व भर के वास्तुकार इसे कभी न कभी पढ़ चुके होते हैं। पश्चिम में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियां भी इस विषय पर लिखी गई हैं। अब तो कतिपय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में साहित्य और वास्तुकला के अंतर्संबंधों पर शोध और आलेखों का प्रकाशन भी जारी है।