कमलेश भारतीय

नानी पूरी हो गई, पर उसकी कहानी अभी अधूरी है। नानी अब इस दुनिया में नहीं रही, पर उसकी कहानी अभी बाकी है। वैसे भी नानी और कहानी का नाता सदियों पुराना है। नानी की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जाती है कि वह कहानी सुनाती है। नानी के बिना कहानी का मजा क्या? नानी है तो कहानी है।

कहानी है तो… पर अब नानी नहीं रही, इसलिए उसकी कहानी कहनी होगी। बेशक, नानी के कहने का अंदाज मेरे बस का रोग नहीं है, फिर भी कहानी तो कहूंगा ही। कोशिश कर लेने में हर्ज ही क्या है? कोशिश नहीं करूंगा तो कहूंगा कैसे?

जन्म के बाद अपनी पहली किलकारी मैंने अपनी नानी की गोद में ही भरी थी। बदले में नानी ने मुझे अपने चुंबनों से नहला दिया था। उसे नानी बनने का गौरव या कहें तमगा मैंने ही तो प्रदान किया था भाई। मेरे जन्म के साथ ही नानी की चिंता भी दूर हो गई थी। अब उसकी बड़ी बेटी के पांव ससुराल में अच्छे से जम सकेंगे। खैर भाई, मुझे तो नानी की कहानी कहनी है।

नानी ने अपने सुनहरे दिनों की गाथा अपने दिल में ही छिपा रखी थी, जबकि उसकी व्यथा-कथा ही मेरी पकड़ में आई। फिर भी घर के बाहर, घर के मुख्य द्वार पर नाना के नाम और उनके ओहदे की नेमप्लेट जाहिर करती है कि कभी नानी भी महारानी थी। कभी मेरी नानी के सिक्के भी चलते थे।

नाना ऊंचे ओहदे पर थे और ओहदे की ऊंचाई पर नानी बड़ी शानो-शौकत के साथ विराजमान थी। नाना काम करते थे, नानी शान मारती थी। नाना की आवाज पास बैठे आदमी को भी मुश्किल से सुनाई देती थी, जबकि नानी की आवाज सारे घर में गूंजती थी।

नानी के आदेश नाना ‘जो हुकुम सरकार’ कह कर खुशी-खुशी मान लिया करते थे। नाना होंगे बड़े अफसर अपने दफ्तर में, पर घर में नानी उनकी भी बड़ी अफसर थी। वैसे भी हर अच्छी पत्नी का अपने पति का अफसर होना बहुत आम बात है और होनी चाहिए भी। नहीं तो पति पत्नी के बीच किसी ‘वो’ के आने का डर सताता रहता है।

नानी ने सबकी वो काट कर रखी थी। मजाल है कि कोई वो बीच में आ सकती। नानी किसी सर्कस की अनुभवी रिंग मिसस्ट्रेस से कम न थी। वह सबको अपनी अंगुलियों पर नचाने में कुशल थी। नाना एकदम खामोश रहने वाले, तो नानी बहुत बातूनी।

वैसे भी बातें उसे सूझती हैं, जिसकी चलती हो और सुनी जाती हो। नाना पढ़ाकू किस्म के आदमी थे, तो नानी झांसी की रानी जितनी लड़ाकू थी। आप ही कहिए, कि जिस औरत को चूल्हे से लेकर पति तक को संभालना पड़े, तो उसे किसी न किसी के साथ तो उलझना ही पड़ता है। मेरे नाना सीधे-सादे, तो नानी एक ही पल में सब कुछ उलट-पुलट कर देने वाली। सारा घर नानी की रियासत था, जिस पर उसी का हुक्म चलता था।

नाना रिटायर हुए और मेरे मामा लोग बड़े हुए। मामा नौकरियों पर लगे, तो नाना स्वर्गवासी हुए। जैसे किसी नाटक का दृश्य बदल गया हो। दृश्य यहां तक बदला कि मामा ब्याहे गए और नए जमाने की बहुओं ने नानी को रिटायर होने की घोषणा कर देने पर मजबूर कर दिया। मामियों को राजपाट मिला, तो नानी को संन्यास। भाई, सचमुच का संन्यास नहीं, लेकिन आप ही कहिए कि घर के किसी कोने में चारपाई डाल कर बिठा देना संन्यास देने के बराबर है या नहीं? संन्यास ही तो माना जाएगा न?

नानी पुरानी यादों और नाना के चित्रों को समेटती-समेटती सिमटती गई। धूल में सने चित्र धीरे-धीरे संदूक में जमा होते गए। बेटे-बहुओं के नए-नए चित्र दीवारों पर सजते गए। नहीं उतरी या बदली, तो नाना के नाम की ऊंचे ओहदे वाली नेमप्लेट। शायद इसलिए कि आने-जाने वाले लोगों पर रौब पड़ता रहे। शायद इसलिए भी कि कोई भी ‘सुपुत्र’ उस ऊंचाई को छू नहीं पाया, जिस ऊंचाई पर नाना पहुंचे थे।

मामूली काम-धंधों पर लगे बेटों के मान-सम्मान की प्रतीक थी नाना के नाम की नेमप्लेट! वही नानी जिसकी कभी पर चांदी की चाबियों का गुच्छा लटकता रहता था, वही नानी अब बैठक में अपनी दुनिया समेटे, चांदी हुए बिखरे बालों से यादों में खोई रहती थी! नानी की चारपाई, चौका-बर्तन, यहां तक कि नहाना-धोना, सबके लिए कुल जमा एक बैठक बची थी और गुजारे के लिए सरकार की ओर से मिलने वाली बुढ़ापा पेंशन!

बेचारे बेटों के लिए अपनी घर-गृहस्थियां चलाना ही पहाड़ पार करने जैसा काम था। ऊपर से एक बुढ़िया का बोझ इस कमरतोड़ महंगाई में उठाना बहुत ही मुश्किल चढ़ाई चढ़ने जैसा था! वैसे जब कभी किसी बच्चे का जन्म निकट होता, तब नानी का महत्त्व बढ़ जाता। भारतीय संस्कृति की गौरव-गाथा गाते हुए नानी का आदर-सत्कार बढ़ जाता।

उस सुनहरे दौर के बीत जाने के बाद नानी को धीरे-धीरे उसी बैठक में धकेल दिया जाता। नानी उस दौर को किसी बुद्धू की तरह आंखें झपकाती याद करती और बहुओं की खिलखिलाहट सब कुछ समझा देती।

नाना के बाद जहां इतना कुछ बदला था, वहीं घर का नक्शा भी बदल गया था। कारीगरों की ठक-ठक जैसे वक्त की मार की तरह ऐन दिल-दिमाग पर पड़ती थी। एक की जगह देखते-देखते तीन-तीन रसोइयां हो गई थीं। बच्चों की किलकारियों से गूंजने वाला और मुस्कानों से महकने वाला आंगन बंटवारे की राह देख रहा था।

बंटवारे की लकीरें खींच दी गई थीं, लेकिन अपनी बची-खुशी ताकत से नानी इनकी बुनियाद पर बैठ गई थी कि मेरे मरने के बाद ही घर का बंटवारा होगा। यानी नानी की मौत ही बंटवारे को हरी झंडी दे सकती थी और जैसे सब इस इंतजार में थे। नानी ने जिन आखों से घर को सजाने-संवारने के सपने देखे थे, उन्हीं आंखों से घर को टूटते-बिखरते तो नहीं देख सकती थी न! तब जब कभी ननिहाल जाना होता, तो मानो दम घुटने-घुटने को हो जाता! नानी के हाथों की छुअन और मीठे बोल ही जैसे सुखद हवा के झोंके जैसे लगते।

पर अब नानी नहीं रही। नानी के बीमार होने की खबर पाकर जब तक मैं ननिहाल पहुंचा, तब तक उसे बिस्तर से जमीन पर उतारा जा चुका था और उसके-बचे खुचे सामान की गठरी बांध कर एक कोने में रख दिया गया था। मुझे रेलवे स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करते मुसाफिरों का मंजर याद हो आया, जो विदाई को उतावले होते हैं। क्या नानी भी विदाई के लिए इतनी ही उतावली थी? शायद हां!

अचानक नाना की नेमप्लेट पर मेरी नजर चली गई। यह नेमप्लेट समय की धूल-मिट्टी के साथ काफी धूमिल हो चुकी थी। रौब-दाब डालने वाले अक्षर अब बहुत मद्धिम पड़ चुके थे। बहुत बदरंग हो चुकी थी नेमप्लेट! बदले हुए जमाने और नए दौर के बीच यह नेमप्लेट आधुनिकता के बीच सांस लेने वाले लोगों के माथे पर मात्र तिलक लगाने के समान रह गई थी।

आग की लपटों ने जब नानी को अपनी आगोश में ले लिया, मुझे लगा कि नानी अपनी असली जगह पहुंच गई है। खैर! यह तो थी मेरी नानी की कहानी! आपको क्या? अरे, समझा! आपकी, सबकी नानी है और सबकी नानी की कहानियां हैं भाई। वे कहानियां आप कहिएगा, पर थोड़े हेर-फेर के साथ क्या ऐसी ही कहानियां नहीं हैं सबकी नानी की!