खेल और खिलाड़ियों के फायदे के लिए बनते हैं नियम। लेकिन कभी-कभार यही नियम खिलाड़ियों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं। ऐसे ही एक नियम से परेशानी के दौर से गुजर रहा है महाराष्ट्र का पहलवान नरसिंह पंचन यादव। पिछले साल सितंबर में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप के दौरान 26 वर्षीय इस पहलवान ने 74 किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में भारत को ओलंपिक कोटा दिलाया था। नरसिंह ने तब कांस्य पदक जीता था। लेकिन आज इसी कोटे को लेकर विवाद है। विवाद पनपा है ख्याति प्राप्त पहलवान सुशील कुमार की दावेदारी की वजह से।

नियमों के तहत यह जरूरी नहीं कि जो पहलवान ओलंपिक कोटा हासिल करे, उसे ही खेलों में शिरकत करने का हक मिले। कोटा स्थान खिलाड़ी विशेष को नहीं बल्कि देश को मिलता है। ऐसा सिर्फ कुश्ती में ही नहीं, निशानेबाजी और मुक्केबाजी में भी होता है। कुश्ती के एक वजन वर्ग में एक देश सिर्फ एक कोटा स्थान हासिल कर सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि अगस्त में ब्राजील के शहर रियो डि जनेरियो में होने वाले ओलंपिक खेलों की 74 किलोग्राम फ्रीस्टाइल केटेगरी में नरसिंह यादव और सुशील कुमार में से कोई एक जाएगा। ओलंपिक में किसे भेजा जाए, इसका फैसला भारतीय कुश्ती संघ को करना है। इसमें राजनीतिक दांवपेच भी चलेंगे और हो सकता है कानूनी भी।

इस स्थिति ने भारतीय कुश्ती फेडरेशन को पसोपेश में डाल दिया है। एक ओर नरसिंह यादव हैं जिन्होंने देश को ओलंपिक कोटा दिलाया था तो दूसरी तरफ हैं भारत के सबसे सफल पहलवान सुशील कुमार जिन्होंने पिछले दो ओलंपिक खेलों में पदक जीतकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कुश्ती को चमकाया है। सुशील कुमार अनुभवी हैं और बेहतरीन पहलवान भी। देश का यह सबसे सम्मानित पहलवान कुश्ती प्रेमियों में भी खासा लोकप्रिय है।

पर यहां सवाल अनुभव या लोकप्रियता का नहीं है। यह भी नहीं है कि सुशील कुमार सर्वश्रेष्ठ है या नरसिंह यादव। सुशील कुमार भले ही कितने बड़े पहलवान हों लेकिन वास्तविकता तो यह है कि 2012 में लंदन ओलंपिक में 66 किलोग्राम वर्ग में रजत पदक जीतने के बाद से सुशील कुमार ने सिर्फ दो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शिरकत की है। इसमें 2014 के राष्ट्रमंडल खेल भी हैं जहां उन्होंने 74 किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीतने का कमाल किया था। कंधे की चोट ने उन्हें काफी लंबे समय तक खेल से दूर रखा। यही वजह है कि जिस चैंपियनशिप में नरसिंह ने कांस्य पदक के साथ देश के लिए ओलंपिक कोटा जीताए उसमें सुशील कुमार भाग नहीं ले पाए थे।

इससे विवाद सुलझाने का एकमात्र विकल्प बचता है कि देश की खातिर दोनों पहलवानों के बीच मुकाबला करा दिया जाए। जो पहलवान अपनी श्रेष्ठता साबित करे, उसे ओलंपिक भेज दिया जाए। पर इसके लिए नरसिंह यादव तैयार नहीं लगते हैं। उनका तर्क है कि ओलंपिक कोटा उन्होंने जीता है तो खेलों में भाग लेने का पहला हक भी उन्हीं का बनता है। अब ट्रायल क्यों? हैं तो नरसिंह यादव भी अपनी जगह सही। उन्होंने कड़ी मेहनत से ओलंपिक कोटा हासिल किया है। वे कैसे उस अवसर को जाया जाने दें जो उन्हें ओलंपिक पदक दिलाने के साथ-साथ मालामाल भी बना सकता है। वर्षों की तपस्या के बाद ओलंपिक में शिरकत का सुअवसर मिला है।

यों नरसिंह के लिए भी यह पहला ओलंपिक नहीं है। पर लंदन ओलंपिक की विफलता की भरपाई वह इस बार जरूर करना चाहेंगे। वैसे कोटा स्थान हासिल करने की राह में उन्होंने लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता पहलवान को धूल चटाकर अपनी ताकत का आभास करवाया था।

नरसिंह यादव के लिए मजबूत पहलू यह भी है कि वह हमेशा से 74 किलोग्राम वर्ग में ही लड़ते रहे हैं। दूसरी ओर सुशील कुमार मूलरूप से 66 किलोग्राम वजन वर्ग के पहलवान हैं। इसी वेट केटेगरी में उन्होंने 2008 के बेजिंग ओलंपिक में कांस्य और 2012 के लंदन ओलंपिक में रजत पदक जीता था। लेकिन अंतरराष्ट्रीय कुश्ती महासंघ (फीला) से 2013 में इस वेट केटेगरी को ओलंपिक से हटाने का फैसला किया जिस कारण सुशील कुमार को अपना वजन बढ़ाकर 74 किलोग्राम केटेगरी में आना पड़ा। इसी केटेगरी में उन्होंने 2014 में राष्ट्रमंडल खेलों का स्वर्ण पदक भी जीता है।

डबल ओलंपिक मेडलिस्ट होने के कारण सुशील कुमार से सहानुभूति रखने वाले भी कम नहीं हैं। उनका मानना है कि अगर सुशील कुमार चोटिल नहीं हुए होते तो जरूर ओलंपिक कोटा हासिल कर लेते। पदक जीतने का अभी भी उनमें माद्दा है। इसलिए उन्हें ट्रायल के जरिए मौका दिया जाना चाहिए।

सुशील कुमार के कोच पद्मश्री सतपाल का नजरिया भी ऐसा ही है। उनका कहना है कि सुशील कुमार का कुश्ती जगत में नाम है। दो ओलंपिक पदक और विश्व चैंपियनशिप में गोल्ड से कुश्ती बिरादरी में सुशील कुमार की अच्छी धाक है। दूसरे देशों के पहलवानों में उनका खौफ है। वही पहलवान ओलंपिक में जाना चाहिए जो मेडल ला सके। नरसिंह भी बढ़िया पहलवान है। इसलिए दोनों के बीच मुकाबला करा दिया जाए, जो जीते उसे ओलंपिक भेज दिया जाए।

पिछले दो ओलंपिक खेलों में सुशील कुमार ने अपने पदक का रंग बदला है। अब उनका लक्ष्य गोल्ड मेडल जीतना है। इसीलिए वह गंभीरता से तैयारी कर रहे हैं। 40 दिन जार्जिया में प्रशिक्षण के बाद वे स्वदेश लौटे हैं। पहले भी वे इसी देश में एक माह प्रशिक्षण ले चुके हैं। सुशील कुमार फिलहाल पूरी तरह फिट हैं। अब वह कंधे के दर्द से भी उबर चुके हैं। सरकार भी उनके प्रशिक्षण का ध्यान रख रही है। तभी तो कुश्ती फेडरेशन उनके प्रशिक्षण के लिए उन्हें विदेशों में भेज रही है और सरकार उनका खर्च उठा रही है। उनके प्रशिक्षण पर लाखों रुपए खर्च हो चुके हैं।

इससे ऐसा लगता है कि सरकारी स्तर पर भी उनको मौका देने वाले हिमायती हैं। भारतीय कुश्ती फेडरेशन के एक अधिकारी का तो कहना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुशील कुमार के बेहतरीन कीर्तिमान को देखते हुए आप अनदेखी कैसे कर सकते हो। फेडरेशन के लिए स्थिति बड़ी पेचीदा है। 2004 के एथेंस ओलंपिक के लिए जब योगेश्वर दत्त ने ओलंपिक कोटा हासिल किया था तब फेडरेशन ने उनका साथ दिया था। तब उच्च न्यायालय में कृपा शंकर पटेल ने यह गुहार लगाई थी कि वह बेहतर पहलवान है। ओलंपिक कोटा पहलवान का हक नहीं है। यह कोटा स्थान देश को मिलता है और फेडरेशन जिसे ठीक समझे उसे भेज सकती है। उन्होंने चयन परीक्षण की भी मांग की थी। पर फेडरेशन और अदालत का फैसला योगेश्वर के पक्ष में हुआ था।
अब अगर फेडरेशन सुशील कुमार और नरसिंह यादव के बीच 74 किलोग्राम वजन वर्ग का परीक्षण करवाने का फैसला लेती है तो स्थिति और विकट हो जाएगी। तब दूसरे वजन वर्गों, जिसमें भारत को ओलंपिक कोटा मिला है, के लिए भी परीक्षण की मांग उठ सकती है। फिर सबसे खराब स्थिति तो तब हो जाएगी अगर इस मुद्दे पर नरसिंह यादव अदालत चले जाएं। तब फेडरेशन की भी किरकिरी हो सकती है। दोहरे मापदंड के लिए कुश्ती फेडरेशन के पदाधिकारियों की खिंचाई हो सकती है।

सुशील कुमार के कोच महाबली सतपाल को परीक्षण कराने में कुछ भी गलत नहीं लगता। उनका कहना है कि अमेरिका में भी पहलवानों के बीच परीक्षण कराए गए हैं। इसका मकसद है कि ओलंपिक में सर्वश्रेष्ठ पहलवान ही जाएं ताकि पदक जीतने की संभावना बढ़ जाए। यों जिस पहलवान ने कड़ी मेहनत और जज्बे से कोटा स्थान दिलाया हो, उसके दावे को दरकिनार करना उचित प्रतीत नहीं होता। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति और उससे संबद्ध खेल महासंघों को इस पर मंथन करना चाहिए। कोटा स्थान देश को दिए जाने के पीछे शायद यह मकसद रहा हो कि क्वालीफाई करने वाला खिलाड़ी अगर किन्हीं कारणों से खेलों में भाग नहीं ले पाए तो कोटा खराब हो जाए। इसका विकल्प निकाला जा सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय ओलंपिक समितियों को बदलाव करने का अधिकार दिया जा सकता है।

समस्या गंभीर है लेकिन इसका समाधान जल्द निकालना होगा। दोनों पहलवान शारीरिक रूप से भले ही फिट हों लेकिन ओलंपिक से पहले उन्हें मानसिक रूप से भी मजबूत बनाना पड़ेगा। अंतिम समय तक इस मामले को लटकाना उचित नहीं है। तनाव के माहौल के बीच आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कोई पहलवान पदक जीतकर लाए।

डर इस बात का है कि ‘ओलंपिक कोटे’ यानी हक की लड़ाई दोनों पहलवानों के रिश्तों में कड़वाहट न ले आए। जो पहलवान सुशील कुमार की महानता का सम्मान कर उनके पांव छूता था, आज उन्हीं के खिलाफ बोलने से परहेज नहीं कर रहा। वाराणसी में जनमे पहलवान ने कह दिया है कि नाम से मेडल नहीं जीते जाते, जीतने के लिए मैट पर कमाल दिखाना होता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मैंने भी सफल प्रदर्शन किया है। अगर ओलंपिक जैसे मेले में खिलाड़ी की प्रतिष्ठा देखकर प्रविष्टि भेजी जाएगी तो खेल आगे बढ़ने की बजाय कई कदम पीछे चला जाएगा। 74 किलोग्राम केटेगरी में मैं सर्वश्रेष्ठ पहलवान हूं, सुशील कुमार नहीं। मैंने मैट पर इसे प्रमाणित भी कर दिखाया है।