सुशांत सुप्रिय
त से ठीक पहले, ढलती शाम में एक समय ऐसा आता है जब आकाश कुछ कहना चाहता है, धरती कुछ सुनना चाहती है। जब दिन की अंतिम रोशनी रात के पहले अंधेरे से मिलती है। यह कुछ-कुछ वैसा ही समय था। कनॉट प्लेस में दुकानों की बत्तियां जगमगाने लगी थीं। मैं ‘वोल्गा’ रेस्त्रां पहुंचा। कोने वाली टेबल पर एक अधेड़ उम्र के सरदारजी अकेले बीयर पी रहे थे। न जाने क्यों मेरे कदम उनकी ओर मुड़ गए।
‘क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?’ मैंने कहा।
‘बैठो बाश्शाओ! बीयर-शीयर लो।’ सरदारजी दरियादिली से बोले।
‘शुक्रिया जी।’ मैंने बैठते हुए कहा।
बातचीत के दौरान पता चला कि करोलबाग में सरदारजी का होजरी का कारोबार है। जनकपुरी में कोठी। उनके पास वाहेगुरु का दिया सब कुछ था। पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनके चेहरे पर एक खालीपन का भाव दिखा। जैसे उनके जीवन में कहीं किसी चीज की कमी हो। शायद उन्हें किसी बात की चिंता थी। या कोई और चीज थी, जो उन्हें भीतर ही भीतर खाए जा रही थी।
बातचीत के दौरान सरदारजी ने तीन-चार बार मुझसे पूछ लिया, ‘मेरे कपड़ों पर कोई दाग-वाग तो नहीं लगा जी?’
मुझे यह बात कुछ अजीब लगी। उनके कपड़े बिल्कुल साफ-सुथरे थे। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि उनके कपड़ों पर कहीं कोई दाग नहीं है। हालांकि उनके दाएं हाथ की कलाई के ऊपर कटने का एक लंबा निशान था। जैसे वहां कोई धारदार चाकू या छुरा लगा हो।
मैं सरदारजी को अपने बारे में बताने लगा।
फिर अचानक उन्होंने पूछा- ‘मेरे कपड़ों पर कोई दाग-वाग तो नहीं लगा जी?’ उनके स्वर में उत्तेजना थी। जैसे उनके भीतर कहीं कांच-सा कुछ चटक गया हो, जिसकी नुकीली किरचें उन्हें चुभ रही हों।
मैंने हैरान होकर कहा- ‘सरदारजी, आप निश्चिंत रहो, आपके कपड़े बिल्कुल साफ-सुथरे हैं। कहीं कोई दाग नहीं लगा। हालांकि मैं यह जरूर जानना चाहूंगा कि आपके दाएं हाथ की कलाई के ऊपर यह लंबा-सा दाग कैसा है?’
यह सुन कर सरदारजी का चेहरा अचानक जर्द हो गया। जैसे मैंने उनकी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।
कुछ देर हम दोनों चुपचाप बैठे रहे। मुझे लगा जैसे मैंने उनसे उनकी चोट के बारे में पूछ कर उनका कोई पुराना जख्म हरा कर दिया हो। उनकी चुप्पी की वजह से मुझे अपनी गलती का अहसास और भी शिद्दत से हो रहा था। कई बार आप अनजाने में ही किसी के व्यक्तिगत जीवन में झांक कर देखने की भूल कर बैठते हैं, हालांकि इसके जड़ में केवल उत्सुकता होती है।
‘मैंने आज तक इस जख्म के दाग की कहानी किसी को नहीं बताई। अपने बीवी-बच्चों को भी नहीं। पर न जाने क्यों, आज आपको बताने का दिल कर रहा है।’ सरदारजी संयत हो गए थे। उन्होंने कहना शुरू किया- ‘मेरा नाम जसबीर है। बात तब की है, जब पंजाब में खालिस्तान का आंदोलन जोरों पर था। हालांकि सरकार ने आॅपरेशन ब्लू-स्टार में बहुत से दहशतगर्दों को मार दिया था, पर खालिस्तान का आंदोलन जारी था। हमें लगता था, हमारे साथ भेदभाव हो रहा है। पंजाब के बाहर लोग हमें देख कर ताने मारते थे! मैं उन दिनों खालसा कॉलेज, अमृतसर में पढ़ता था। हममें से कुछ सिख युवकों के लिए खालिस्तान का सपना दिल्ली दरबार की ज्यादतियों के विरुद्ध हमारे विद्रोह का प्रतीक बन गया। मैं सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन का सरगर्म कार्यकर्ता था। पुलिस के अत्याचार देख कर मेरा खून खौल उठता। मैं मिलिटेंट मूवमेंट में शामिल हो गया। हथियार हमें पड़ोसी देश से मिल जाते थे। उसका अपना एजेंडा था। अत्याचारियों से बदला लेना और खालिस्तान की राह में आ रही रुकावटों को दूर करना ही हमारा मिशन था। मैं अपने काम में माहिर निकला। दो-तीन सालों के भीतर ही मैं अपनी फोर्स का कमांडर बन गया। पुलिस ने मुझे ‘ए’ कैटेगरी का आतंकवादी घोषित कर दिया। मेरे सिर पर बीस लाख रुपए का इनाम रख दिया गया।
‘उन्हीं दिनों हमारी फोर्स में एक नया लड़का सुरिंदर शामिल हुआ। उसने मुझे बताया कि दिल्ली में हुए सिख-विरोधी दंगों में उसका पूरा परिवार मारा गया। उसके अनुसार दंगाइयों ने उसके बूढ़े मां-बाप और भाई-बहनों के केश कतरने के बाद उनके गले में टायर डाल कर जिंदा जला दिया था। सुरिंदर ने कहा कि अब वह केवल बदला लेने के लिए जीवित था। उसने बताया कि वह सिखों के दुश्मनों को मिट्टी में मिला देना चाहता था। उसकी बातें सुन कर मुझे लगा कि हमारी फोर्स को ऐसे ही नौजवान की जरूरत थी। मुझे सुरिंदर अपने मिशन के लिए हर लिहाज से सही लगा।
‘कुछ दिनों बाद एक रात हमने मिशन के एक काम पर जाने का फैसला किया। मैं, सुरिंदर और हमारे कुछ और लड़के मोटर साइकिलों पर सवार होकर रात बारह बजे अमृतसर के सुल्तानविंड इलाके से गुजर रहे थे। हमारे पास एके 47 राइफलें थीं। हम सबने शालें ओढ़ी हुई थीं। सुरिंदर मोटरसाइकिल चला रहा था और मैं उसके पीछे बैठा था।
‘अचानक बीस-पच्चीस मीटर आगे हमें पुलिस का नाका दिखाई दिया। पुलिस की दो-तीन गाड़ियां और दस-पंद्रह जवान वहां खड़े थे। हम सबने अपनी-अपनी मोटर साइकिलें रोक लीं। पुलिस वालों ने देखते ही हमें ललकारा। मैं वहां मुठभेड़ नहीं चाहता था। मेरे इशारे पर बाकी लड़के अपनी-अपनी मोटरसाइकिलें मोड़ कर पास की गलियों में निकल भागे। पर सुरिंदर हथियारबंद पुलिसवालों को देखते ही डर के मारे कांपने लगा। मेरे लाख आवाज देने के बावजूद वह मोटरसाइकिल पकड़े अपनी जगह जड़-सा हो गया। पुलिस वाले पास आते जा रहे थे। मजबूरन मैंने अपनी शाल हटाई और पुलिस वालों को डराने के लिए हवाई फायरिंग की। पुलिस वाले रुक गए। इस मौके का फायदा उठा कर मैं सुरिंदर को घसीटते हुए पास की गली की ओर ले भागा। हमें भागता देख कर पुलिस वालों ने हम पर फायरिंग शुरू कर दी। एक गोली सुरिंदर की जांघ में आ लगी। तब तक मेरे कुछ साथी हमें बचाने के लिए वापस लौट आए थे। गोलीबारी के बीच घायल सुरिंदर को सहारा दिए मैं और मेरे साथी मोटरसाइकिलों पर बैठ कर किसी तरह बचते-बचाते वहां से निकल भागे।
‘अपने छिपने के ठिकाने पर पहुंच कर मैंने सुरिंदर से पूछा, ‘तू भागा क्यों नहीं था?’ उसके मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। हमने उसकी जांघ में लगी गोली निकाल कर उसकी मरहम-पट्टी की। अब वह अगले पंद्रह-बीस दिनों तक वैसे भी किसी मिशन पर जाने के लायक नहीं था। पर मेरा दिल उस घटना से खट्टा हो गया था। उस दिन सुरिंदर को पुलिसवालों के सामने डर से थर-थर कांपता देख कर मैं खुद से शर्मिंदा हुआ कि यह मैंने किस कायर को अपनी फोर्स में शामिल कर लिया।
‘पर मिशन के काम तो नहीं रुक सकते थे। खालिस्तान बनाने का सपना लिए हम दिन-रात अपने काम पर जुटे रहते। कभी सिख युवकों पर अत्याचार करने वाले किसी व्यक्ति को रास्ते से हटाना होता, कभी अपने किसी साथी को पुलिस की हिरासत से छुड़ाना होता। मैं और मेरी फोर्स के बाकी लड़के सुरिंदर को अपने ठिकाने पर छोड़ कर हर दूसरी-तीसरी रात किसी न किसी मिशन पर निकल जाते। सुबह चार-पांच बजे तक हम अपना काम करके वापस लौट आते। कभी-कभी दिन में भी मिशन के काम से जाना पड़ता। हालांकि सुरिंदर का हमारी फोर्स में आना हमारे लिए बदकिस्मती जैसा ही था। जबसे वह आया था, हमारे बहुत-से साथी पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ों में मारे जाने लगे थे। खैर, यही हमारा जीवन था। कभी मिशन के कामयाबी की खुशी। कभी साथियों के बिछुड़ने का गम।
‘हमारी देखभाल के कारण सुरिंदर की जांघ में लगी गोली का जख्म धीरे-धीरे ठीक होने लगा था। मुझे लगा, उसे खुद को साबित करने का एक और मौका देना चाहिए। शायद वह इस बार हमारी उम्मीदों पर खरा उतर सके। मैं उसके पूरी तरह ठीक हो जाने का इंतजार करने लगा।
‘एक रात अपना काम निबटा कर हम वापस अपनी रिहाइश लौटे थे। सुबह के चार बज रहे थे। मैं सबसे आगे था। घर में चुपके से घुसा, तो मैंने पाया कि सुरिंदर जगा हुआ था और दूसरे कमरे में किसी से फोन पर बातें कर रहा था। मुझे हैरानी हुई। मैंने छिप कर उसकी बातें सुनीं तो मेरे होश उड़ गए। सुरिंदर पुलिसवालों से बातें कर रहा था और उन्हें हमारे बारे में खुफिया जानकारी दे रहा था। उसने हमें पकड़वाने के लिए शायद पहले से ही पुलिसवाले भी बुला रखे थे। मैं सन्न रह गया।
‘हमारे साथ धोखा हुआ था। दुश्मन दोस्त का भेस बना कर आया था। वह पुलिस का मुखबिर है, यह जान कर मेरा खून खौल उठा। ‘ओए गद्दारा…’ मैं गुस्से से चीखा और अपनी किरपान निकाल कर उस पर हमला कर दिया। हम दोनों गुत्थमगुत्था हो गए। पर तभी आसपास छिपे पुलिसवाले घर का दरवाजा तोड़ कर अंदर आ गए और उन्होंने मुझे घेर लिया। उनकी स्टेन-गन और कार्बाइन मेरे सीने पर तनी हुई थीं।’ इतना कह कर सरदारजी चुप हो गए। उन्होंने धीरे से अपना गिलास उठाया और बची बीयर खत्म की।
‘सुरिंदर का क्या हुआ?’ मैंने उत्सुकतावश पूछा।
‘पुलिस ने उसे मेरे सिर पर रखे इनाम के बीस लाख की रकम का आधा हिस्सा दे दिया। दस लाख रुपए लेकर वह वापस दिल्ली भाग गया।’ सरदारजी बोले।
‘आपको उसके बारे में इतना कैसे पता?’ मैं हैरान था।
यह सुन कर सरदारजी का चेहरा स्याह हो गया। उनके हाथ कांपने लगे। उनके माथे पर पसीना छलक आया।
आखिर किसी तरह कोशिश करके उन्होंने कहा, ‘क्योंकि मैं जसबीर नहीं हूं। मैं ही वह बदनसीब सुरिंदर हूं। वह गद्दार मैं ही हूं। मैंने वह कहानी जान-बूझ कर आपको दूसरे ढंग से सुनाई थी।’ सरदारजी के हाथ अब भी थरथरा रहे थे।
उनकी बात सुन कर मैं हतप्रभ रह गया। प्याज की परतों की तरह इस कहानी में रहस्य की कई तहें थीं, जो एक-एक करके खुल रही थीं।
‘मेरे दाएं हाथ की कलाई के ऊपर इस जख्म का दाग मुझे जसबीर ने दिया था, जब मेरी असलियत जान कर उसने किरपान से मुझ पर हमला किया था।’ सरदारजी ने कहा।
‘जसबीर का क्या हुआ?’ मैं अब भी इस अजीब पहेली को समझने का प्रयास कर रहा था।
‘उस दिन सुबह साढ़े चार बजे के आसपास उसके लिए दुनिया रुक गई। पुलिसवालों ने उसे मेरे सामने ही गोली मार दी। उस समय वह निहत्था था। उस दिन उसके फोर्स के ज्यादातर लड़कों को पुलिसवालों ने धोखे से मार दिया। उन सबकी मौत का जिम्मेदार मैं हूं।’ सरदारजी ने भारी स्वर में कहा। कुएं के तल जैसा अंधेरा मुझे उनकी आंखों में नजर आया।
‘आप दुखी क्यों होते हैं? आखिर वे सब आतंकवादी थे।’ मैंने उन्हें दिलासा दिया।
‘हर आदमी के भीतर कई आदमी रहते हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसके किस रूप के दरवाजे पर दस्तक देते हैं। मुझे नहीं मालूम, वे आतंकवादी थे या गुमराह नौजवान। मैं तो सिर्फ इतना जानता हूं कि पैसों के लालच में मैंने उस आदमी को धोखा दिया, उससे गद्दारी की, जिसने अपनी जान पर खेल कर मुसीबत में मेरी जान बचाई थी। जिसने देखभाल करके मेरे जख्म ठीक किए थे। उसे पुलिस के हाथों मरवा कर मुझे रुपए-पैसे तो बहुत मिले, पर उस दिन से मेरे दिल का चैन खो गया। मेरी अंतरात्मा मुझे रह-रह कर धिक्कारती है। मैं रात में बिना नींद की गोली खाए नहीं सो पाता। मेरे सपने मेरी वजह से मरे हुए लोगों से भरे होते हैं। मेरे सपनों में अक्सर दर्द से तड़पता और लहूलुहान जसबीर आता है। हालांकि इस घटना को हुए पच्चीस साल गुजर गए।’ इतना कह कर सरदारजी ने लंबी सांस ली।
‘होनी को कौन टाल सकता है, भाई। पर अब तो आपके पास काफी पैसा होगा। आप प्लास्टिक-सर्जरी करवा कर अपने हाथ का यह दाग क्यों नहीं हटा लेते? जब यह दाग नहीं देखेंगे, तो वक्त बीतने के साथ-साथ शायद आप इस हादसे को भी भूल जाएंगे।’ मैंने सरदारजी को सांत्वना दी।
सरदारजी ने कातर निगाहों से मुझे देखा और बोले- ‘समंदर के पास केवल खारा पानी होता है। अक्सर वह भी प्यासा ही मर जाता है। जब पुलिसवालों ने जसबीर को गोली मारी थी, तो मैं उसके बगल में ही खड़ा था। मेरे कपड़े उसके खून के दाग से भर गए थे। मेरे हाथ उसके खून के छींटों से सन गए थे। अब भी मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे कपड़ों पर, मेरे हाथों पर खून के दाग लगे हुए हैं। मैं बार-बार जाकर वाश-बेसिन में साबुन से हाथ धोता हूं। पर मुझे इन दागों से छुटकारा नहीं मिलता। मैंने बहुत दवाइयां खार्इं जी। साइकैट्रिस्ट से भी अपना इलाज करवाया। पर कोई फायदा नहीं हुआ। आज मेरे पास पैसे की कमी नहीं। वाहेगुरु का दिया सब कुछ है। प्लास्टिक सर्जरी करवा कर मैं अपने इस दाग से छुटकारा भी पा जाऊंगा। पर मेरे जेहन पर, मेरे मन पर जो दाग पड़ गए हैं, उन्हें मैं कैसे मिटा पाऊंगा?’
मैं चुपचाप उन्हें देखता-सुनता रहा। मेरे पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था। हम ‘वोल्गा’ से बाहर निकल आए। नौ बज रहे थे। जगमगाते शो-रूमों के पीछे से आकाश में आधा कटा हुआ पीला चांद ऊपर निकल आया था।
अचानक उन्होंने खोए हुए अंदाज में फिर से पूछा- ‘मेरे कपड़ों पर कोई दाग-वाग तो नहीं लगा जी?’ उनके माथे पर परेशानी की शिकन पड़ गई थी।
मैंने सहानुभूतिपूर्वक उनके कंधे पर हाथ रखा। वे जैसे दूर कहीं से वापस लौट आए। समय के विराट समुद्र में कुछ खामोश पल ओस की बूंदों-से टप-टप गिरते रहे। ०