पार्क के पास से निकलो, तो वहां सवेरे के वक्त बहुत-सी बुजुर्ग महिलाएं बैठी दिखाई देती हैं। कोई जमीन पर बैठी योग कर रही है, तो कोई प्राणायाम, कोई अपने नाती-पोते के साथ घास पर इधर से उधर दौड़ रही है, किसी के हाथ में कुत्ते की डोरी है, और कुत्ता डोरी छुड़ा कर भाग जाना चाहता है। वह ऐसा नहीं कर पाता, तो घसीटता हुआ एक ओर ले जाता है। कोई बालों में लगाने के लिए पार्क में लगी मेंहदी के पत्तों को तोड़ रही है। कोई घर से मेथी, बथुआ, पालक और मटर लेकर आई है। एक पंथ दो काज। सर्दी में धूप का लुत्फ लिया और सब्जी को साफ करने, छीलने, काटने का काम भी निपटा लिया।

इसी को तो आज की भाषा में मल्टी टास्किंग कहते हैं। यही नहीं, कोई यों ही खामोश किसी सोच-विचार में मगन है, तो कहीं अलग-अलग जगहों पर महिलाओं के कई गुट बैठे हैं। उनमें से कइयों के हाथ में सलाइयां हैं, वे बातें भी कर रही हैं, स्वेटर भी बुन रही हैं। यही नहीं, इन दिनों बाजार में, माल्स में, मेट्रो में, मेलों में, वोट देने की लाइन में, कार चलाते बुजुर्ग महिलाएं खूब दिखाई देती हैं।

लेकिन हमारे नीति-नियंता, कानून बनाने वालों, उद्योग, स्व-सहायता समूहों, फिल्म बनाने वालों, साहित्यकारों, नाटककारों, तमाम आनलाइन साइटों, मीडिया और विज्ञापनदाताओं की नजरों से ये महिलाएं ओझल हैं। आखिर बुजुर्गों, खासकर महिलाओं को सपने क्यों नहीं देखने चाहिए। उनके सपनों पर उम्र का बंधन क्यों होना चाहिए। जो भी कानून बनते हैं वे युवा महिला को देख कर बनाए जाते हैं।

जब भी महिला सुरक्षा की बात होती है तो यही महिलाएं ध्यान में रहती हैं। नौकरी, शादी, खेल-कूद, घूमना, कपड़े, दवाएं, खानपान सबमें युवा महिलाओं का ही बोलबाला नजर आता है। पता नहीं क्यों बुजुर्ग महिलाओं की बड़ी आबादी को भगवान के भरोसे छोड़ दिया गया है। जबकि ये महिलाएं भी युवा महिलाओं की तरह तमाम उत्पादों की खरीदार हैं। ये भी हर ग्राहक को भगवान मानने वाले उद्योग की पोटैंशियल ग्राहक हैं। ये भी अब समूह बना कर न केवल देश में, बल्कि विदेशों में घूम रही हैं। इनकी भी ‘च्वाइसेज’ हैं। पसंद-नापसंद हैं। ये भी तरह-तरह के अपराधों कीा शिकार होती हैं। मगर देखा गया है कि अक्सर ये चिंताओं से बाहर रहती हैं। इनके बारे में सदियों पुराना वह स्टीरियो टाइप नहीं टूटा है कि एक बार औरत चालीस-पचास की हुई, तो उसे हरिभजन करना चाहिए और मौत के इंतजार में रहना चाहिए।

अगर वक्त बदला है तो वह बदलाव इन उम्रदराज महिलों के जीवन में क्यों चिह्नित नहीं किया जाना चाहिए। कानून बनाने वालों की हालत तो यह है कि युवा स्त्रियों को ध्यान में रख कर दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा के तहत अक्सर बुजुर्ग महिलाओं को अपराधी मान कर पकड़ लिया जाता है। वहां यह भुला दिया जाता है कि ये भी महिलाएं हैं। कानून को इनकी भी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि कानून सबके लिए होता है। वह उम्र को देख कर नहीं बनाया जाता, उसके दायरे में हर औरत को आना चाहिए। उसे महिला, महिला में भेदभाव नहीं करना चाहिए। लेकिन ऐसा खूब होता है, और किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता।

कहा जाता है कि ‘मिलेनियल्स’ की यह पीढ़ी, ‘एसपिरेशनल’ पीढ़ी है। ‘एसपिरेशंस’ पूरी करने और सपनों की उड़ान के लिए इन दिनों उम्र कोई बाधा नहीं है। कोई जब चाहे सपने देख सकता है और उन्हें पूरा करने के लिए आगे बढ़ सकता है। तब बुजुर्ग औरतें ही भला क्यों पीछे रहें। अक्सर बहुत-सी बुजुर्ग औरतों के बारे में छपता रहता है, नजर जाती रहती है। इनका जज्बा देख कर गर्व होता है। जहां साधनहीनता से लेकर बड़ी उम्र तक इनके हौसलों को कम नहीं कर पाती। ठान लें तो तमाम रोग-शोक को मात देते अपने लक्ष्य पर पहुंच ही जाती हैं।

हुनर और जज्बा

हरभजन कौर की उम्र तिरानबे वर्ष। पति की मृत्यु के बाद वे अपनी बेटी के साथ चंडीगढ़ में रहती हैं। कुछ साल पहले उनकी बेटी ने सोचा कि अब उनकी मां की उम्र हो चली है। कहीं कोई ऐसी इच्छा तो नहीं, जो पूरी न हुई हो। अगर ऐसी कोई इच्छा है और मां उन्हें बताती हैं, तो वह पूरी करने की कोशिश करेंगी। उन्होंने हरभजन से पूछा कि क्या उनकी ऐसी कोई इच्छा है, जिसे पूरी न होने का उन्हें मलाल है। बूढ़ी दादी हरभजन कुछ देर सोचती रहीं। फिर बोलीं- वैसे तो सब ठीक है, मगर जिंदगी में कभी पैसे नहीं कमा सकी, इस बात का दुख है।

मां की इस बात को सुन कर बेटी चकित हो उठीं। उनकी समझ में नहीं आया कि कैसे वह अपनी मां की इच्छा पूरी करें कि वह पैसे कमा सकें। उन्होंने अपनी मां से पूछा कि कौन-सा ऐसा काम है, जो वह कर सकती हैं। और जिससे पैसे भी कमाए जा सकते हैं। हरभजन ने कहा कि वे बेसन की बर्फी बहुत अच्छी बना सकती हैं। बेटी को लगा कि बर्फी अगर बन भी जाए, तो उसे बेचा कैसे जाएगा, जिससे कि मां को पैसे मिल सकें और उनकी इच्छा पूरी हो सके। बेटी ने आर्गेनिक इंडिया से बात की। वे मां की बनी बर्फी लेकर वहां पहुंचीं।

हरभजन की बर्फी उन्हें बहुत पसंद आई। बेचने के लिए रखी, तो हाथों हाथ बिक गई। यही नहीं, चंडीगढ़ के लोगों को भी इस बर्फी का स्वाद इतना भाया कि मांग लगातार बढ़ने लगी और इसकी बिक्री होने लगी। तीन साल पहले शुरू किए गए बर्फी के इस काम को ग्राहकों ने इतना पसंद किया है कि हरभजन एक ब्रांड बन गई हैं। अब वे टमाटर की चटनी, दाल का हलवा, बादाम का शर्बत भी बनाती हैं। उम्र के कारण वे धीरे-धीरे काम करती हैं। मगर हर कोई उनकी बनाई चीजों का इंतजार करता है। मोहल्ले, पड़ोस हर जगह उनकी ख्याति जा पहुंची है। जब पहली बार बर्फी बेच कर उनके हाथ में पैसे आए, तो उन्होंने कहा- अपने कमाए पैसे की बात ही कुछ और होती है।

अपने इस पैसे को उन्होंने अपनी तीनों बेटियों में बराबर बांट दिया। सोचें, कि पैसा एक स्त्री को कितना शक्तिशाली बनाता है। साहित्यकार भले कहते रहें कि सब माया है, मगर औरतों से बेहतर कोई नहीं जानता कि पैसे में कितनी ताकत होती है। इसका कारण यह भी है कि औरतों के पास पैसा कभी रहा नहीं। हरभजन ने जब पैसे कमाने की बात कही, तब उनकी मूल भावना भी यही तो थी कि अगर पैसा कमा सकी होतीं तो और भी बहुत कुछ कर सकती थीं। उनकी टैग लाइन है- बचपन की याद आ जाए। हरभजन की इस कहानी से देश भर के और भी बहुत से युवा प्रभावित हुए हैं। वे भी अपने माता-पिता की इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं।

लतिका चक्रवर्ती नवासी साल की हैं। इस उम्र में उन्होंने पोटली बैग्स को बेचने का आनलाइन व्यापार शुरू किया है। नाम है- लतिका के बैग्स। उनका कहना है कि उन्हें चीजों को बर्बाद करना पसंद नहीं है। उनका जन्म असम में हुआ था। उनके पति की नौकरी ऐसी थी कि उनका जगह-जगह ट्रांसफर होता रहता था। लतिका हर जगह की साड़ियां और कपड़े खरीदती थीं। पुराने हो जाने पर इन्हें फेंकने की जगह इनसे तरह-तरह की चीजें बनाती थीं। जैसे कि तरह-तरह के कपड़े, स्वेटर, गुड़िया, पोटली बैग्स। वे छोटी उम्र से ही सिलाई, कढ़ाई, बुनाई भी कर रही हैं। उन दिनों माताएं अपने बच्चों को अपने हाथ से बने कपड़े पहना कर गर्व महसूस करती थीं। जब उनके बच्चे बड़े हो गए, तो वह तरह-तरह की गुड़ियां बनाने लगीं। चार-पांच साल पहले उनकी बहू ने कहा कि वह उनके लिए एक पोटली बैग बना दें, जो उसके सूट से मैच करे। तब लतिका को अहसास हुआ कि बैग बनाने का हुनर उन्हें ईश्वर से मिला है। वह तरह-तरह के बैग बनाने लगीं, बुनने लगीं।

दोस्तों को उपहार में देने लगीं। एक बार उनका पोता जन्य जर्मनी से आया तो उसने दादी के बनाए आकर्षक बैग को देखा। उसने सोचा कि क्यों न दादी की कला को एक मंच प्रदान किया जाए। और उसने एक वेबसाइट बना दी। ये बैग्स लोगों को इतने पसंद आए कि व्यापार खूब बढ़ने लगा। अब यह पारिवारिक व्यवसाय बन गया है। बेटा बिजनेस संभालता है और बहू लतिका को बैग्स बनाने में मदद करती है। पुराने कपड़ों से बनाए सामान के पीछे एक कथा भी छिपी रहती है। कब वह साड़ी खरीदी गई थी, कहां से खरीदी थी, किस अवसर पर पहनी गई थी। लतिका अब भी उस सिलाई मशीन पर काम करती हैं, जो उनके पति ने उन्हें उपहार में दी थी। यह मशीन चौंसठ साल पुरानी है। उनका कहना है कि उनके पति की मृत्यु को अड़तीस साल बीत चुके हैं, मगर जब भी मैं सिलाई मशीन की ओर देखती हूं, मुझे उनकी याद जाती है। लतिका का कहना है कि वह जो कुछ भी करती हैं, वह आनंद के लिए है, पैसे के लिए नहीं।