योग दर्शन- डा. वरुण वीर

उन्नसवीं सदी में सभ्य कहलाने जाने वाले समाज ने आत्मा का बहिष्कार कर दिया था। ज्ञान का स्रोत केवल इंद्रियों तक ही सीमित बतलाया जाता था। शरीर और मन को ही जीवन जीने का आधार माना जाता था लेकिन समय बदला और इस भ्रम से धीरे-धीरे समाज ने निकलना शुरू किया। एक लेखक ने लिखा कि जिस प्रकार पेड़ से गोंद निकलता है उसी प्रकार मस्तिष्क से विचार निकलते हैं।  बीसवीं सदी में नई लहर उठी और अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक जेम्स ने लिखा कि कोई नहीं कह सकता कि इंद्रियों के अतिरिक्त हमें ज्ञान नहीं हो सकता। मार्कोनी से पूछा कि तुमने कैसे ‘बेतार से तार’ वाली विद्या का पता लगाया, उन्होंने कहा मैंने कोई परीक्षण नहीं किया, अपने आप ही मेरे मस्तिष्क में यह विचार आया और मैंने इसे कर दिखाया।

वर्तमान समय के महान गणितज्ञ और सबसे बड़े वैज्ञानिक आइंस्टीन से जब पूछा गया कि तुमने अपनी गणित की स्थापनाओं को स्थापित करने के लिए गणित की क्रियाओं का सहारा लिया ‘तब वह कहता है कि स्वभाविक रूप से यह विचार मेरे मन में आए जो कि मैं नहीं जानता कि कहां से आए? ‘द वर्ल्ड ब्रेथ’ नामक पुस्तक जो कि इंग्लैंड से प्रकाशित हुई, उसमें लिखा है कि भारत में हिंदू लोग हजारों साल पहले ही यूरोप वासियों से अनुसंधान में आगे निकल चुके थे कि यह आत्मा-परमात्मा तथा प्रकृति का मूल गुण कर्म स्वभाव क्या है?

आध्यात्मिक विज्ञान के कारण भारतवासियों की बुद्धि आज भी निर्मल है। मैत्रेय उपनिषद का प्रमाण देकर लेखक एलसी बेकेट कहते हैं कि प्राण विद्या ही सब विधाओं का मूल है। प्राणायाम के माध्यम से बुद्धि को तीव्र तथा सूक्ष्म बनाया जा सकता है, ज्ञान-विज्ञान को सरलता से ग्रहण और मन को स्थिर किया जा सकता है। उसने योगसूत्र का प्रमाण देकर बुद्धि को विकसित करने के प्रमाण बताए हैं। ध्यान तक पहुंचने के लिए प्राणायाम अत्यंत आवश्यक है। मन के विचारों को नियंत्रित तथा स्थिर करने के लिए ध्यान की अनेक विधियां हैं लेकिन उससे पहले यह समझना है कि ध्यान क्या है? और क्यों किया जाए?

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यान्म् ॥ योग दर्शन
उन चक्रों आदि के स्थान में जहां धारणा की जाए वहां जो ध्येय का लक्ष्य परमात्मा है, उसके गुणों व ज्ञान में चित का लय हो जाना अर्थात परमात्मा के ज्ञान के अलावा किसी दूसरे के ज्ञान का अभाव हो जाने की स्थिति को ध्यान कहते हैं। धारण करने के बाद उसी स्थान में ध्यान करने से परमात्मा के प्रकाश और आनंद में अत्यंत प्रेम भक्ति के साथ इस प्रकार मिल जाए जैसे नदी समुद्र में प्रवेश करती है और उसी में विलीन हो जाती है। उस समय परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना तथा परमात्मा के आनंद में लीन हो जाना ही ध्यान है। ध्यान का अंतिम लक्ष्य परमात्मा को पाना है। ध्यान के आरंभ में कई पड़ाव रहते हैं जैसे ध्यान को शरीर के बाहर प्रकृति के अनेक स्थान, आकार तथा रंग पर ध्यान लगाना। उससे यदि सूक्ष्म स्तर पर जाएं तब शरीर के भीतर चल रहे श्वास-प्रश्वास पर ध्यान लगाना, उससे भी सूक्ष्म यदि जाएं तब मन में आने वाले विचारों पर ध्यान केंद्रित करें। उन विचारों को साक्षी भाव से देखना। उससे भी सूक्ष्म जाएं तब भाव तथा संवेदना के ऊपर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

अधिक सूक्ष्म आत्मा की अनुभूति करना, ध्यान द्वारा उसका साक्षात्कार करना जो कि गहरे ज्ञान और आनंद को प्राप्त कराता है तथा अंत में सभी से अत्यंत सूक्ष्म सर्वव्यापक अंतर्यामी परमात्मा का ज्ञान और उसके आनंद पर ध्यान केंद्रित करना ही मुख्य ध्यान है। ध्यान की परंपरा मुख्य रूप से भारत व भारत में जन्मी विचारधाराओं में ही उपलब्ध है। सत्य सनातन वैदिक विचारधारा तथा उससे उत्पन्न बौद्ध-जैन तथा अन्य परंपराओं में ध्यान का महत्व है। अन्यथा दूसरी विचारधाराओं में ध्यान कर्म की जगह प्रार्थना तथा शरीर से की जाने वाली सेवाओं को महत्व दिया गया है जो कि जीवन को चलाने के लिए जरूरी है। दूसरी विचारधाराओं में पुनर्जन्म को स्वीकार न करने के कारण केवल इस जीवन को सुखी बनाने पर जोर दिया गया है और जीवन का लक्ष्य केवल ‘अर्थ’ तथा ‘काम’ तक ही सीमित कर दिया गया है। धर्म और मोक्ष को गौण बना दिया गया है। लेकिन योग की परंपरा में धर्म अर्थ काम तथा मोक्ष चारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज इस आधुनिक शिक्षा प्रणाली के चलते ध्यान का कोई महत्व नहीं है फिर भी हमारे परिवारों में ध्यान कहीं ना कहीं प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान है। जैसे अभी भी बच्चों को कहा जाता है कि ‘ध्यान से खाना खाओ’, ‘ध्यान से पढ़ो’, ‘ध्यान से बोलो’, ‘ध्यान से काम करो’ इत्यादि प्रत्येक कर्म में हमारे यहां ध्यान को जोड़ दिया जाता है।

यह ध्यान करने का गुण आगे चलकर जीवन में क्या वास्तविक ध्यान की ओर मोड़ देता है। ध्यान केवल आत्मा से परमात्मा को ही मिलाने का साधन नहीं है बल्कि सांसारिक सुखों को भी प्राप्त करवाने की उत्तम विधि है। शरीर तथा मानसिक रोगों को दूर करने के लिए भी ध्यान की अनेक विधियां प्रचलित हैं जिनको अपनाने से तुरंत लाभ मिलता है। किसी भी रोग में जब डॉक्टर द्वारा दवाई ली जाती है तब उस दवाई का असर कुछ समय के बाद होता है लेकिन मानसिक रोगों में ध्यान तुरंत लाभ देता है। मानसिक तनाव को तुरंत दूर करने के लिए ध्यान रामबाण औषधि है। ध्यान को साधने के लिए धारणा का अभ्यास जरूरी है। जिस स्थान या विचार पर धारणा की जाती है वही ध्यान परिपक्व होता है।

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ योग दर्शन
जब चित्त को नाभि, हृदय, भृकुटी आदि स्थानों पर लगाकर स्थिर करते हैं तब उसको धारणा कहते हैं। चित्त की चंचलता को दूर करने के लिए उसे एक स्थान पर स्थिर करना और ओंकार का जप अर्थ सहित करना, उसको विचारना तथा परमात्मा की अनुभूति के लिए चित्त को तैयार करना धारणा है। जब उपासना योग के पांचों अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, तथा प्रत्याहार सिद्ध होते हैं तब धारणा भी सिद्ध होने लगती हैं।
वेद में भी धारणा के बारे में कहा गया है।
ओं सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक
धीरा देवेषु सुम्नया ॥ यजुर्वेद
जो विद्वान, साधक, योगी, तपस्वी ध्यान करने वाले लोग हैं। यह बुद्धि पूर्वक विज्ञान से नाड़ियो में आत्मा के द्वारा परमात्मा की धारणा करते हैं, जो प्रत्येक कर्म योग अनुसार करते हैं, अपने आनंद को फैलाते तथा दूसरों को भी आनंदित करते हैं वे विद्वानों के बीच प्रसन्नचित्त होकर परमानंद को प्राप्त होते हैं। ल्ल