वह एक की ठंडी सुबह थी। सर्दियों की सुबहें लंबी होती हैं- लगभग दूसरे पहर तक। छोटा दिन, छोटी सी शाम और उसके बाद, लंबी रात! रविवार का दिन था। दस बजे थे। वैसे तो बाजार अभी बंद था लेकिन चाय के ठीये, तो कहीं छोले भठूरे और बेड़मी-जलेबी बनाने वाले हलवाइयों के कुछ नाके जरूर गुलजार थे। मैं गरमा-गरम नाश्ता लेकर लौट रहा था कि रास्ते में गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया। घर ज्यादा दूर नहीं था, फिर भी मुझे ट्यूब के कट जाने का डर था। मैंने सोचा, ‘बात पचास रुपए से बढ़कर पांच सौ तक पहुंच जाएगी।’
सामने चाय का खोखा था। मैंने गाड़ी किनारे लगा दी। उसकी बगल में काली चीकट जमीन पर लोहे का कबाड़ और फटे टायर पड़े थे। पटरी पर बिजली के खंबे के साथ जंजीर से बंधा, एक लकड़ी का बक्सा भी था। इन प्रतीकों से मैं आश्वस्त हो गया कि यह पंक्चर जोड़ने और छोटी-मोटी मिस्त्रीगीरी करने वाले का ही ठीया है। चाय वाले से पूछा, तो उसने कहा- आने ही वाला है, वैसे तो इस बखत तक आ जाता है… आज लेट है। छुट्टी का दिन है न साब!
इस चिंता के बावजूद कि नाश्ता ठंडा हो जाएगा- मैंने इंतजार करना ही बेहतर समझा और चाय का आॅर्डर देकर एक ओर खड़ा हो गया। खोखे के सामने दो बेंच पड़ी थीं, जिन पर सात-आठ लोगों का जमावड़ा था। कुछ दुकानों पर काम करने वाले नौकर जैसे, कुछ काम की तलाश में निकले मजदूर थे और कुछ सेवानिवृत्त हुए बाबू लोग भी थे, जिन्हें शायद सैर के बाद घर लौटने की जल्दी नहीं थी। वे गरम चाय की चुस्की के साथ राजनीति, और समाज के गिरते स्तर पर चिंता जाहिर कर रहे थे। आजकल सुर्खियों में- महिलाओं से छेड़छाड़, तेजाबी हमला और जबरन यौनिक संबंध की घटनाएं आम हो गई हैं। ऐसी ही कोई घटना चर्चा के केंद्र में थी।
एक सज्जन कह रहे थे, ‘लॉ एंड आॅर्डर का फेलियर है जी! सरकार भी निकम्मी! पुलिस महकमे पर कब्जे को लेकर आपस में खींचतान मचाए हैं। एक निजाम कहता है- मुझे दे दो, दूसरा कहता है- मेरी है! ऐसे में चोर-बदमाशों की पौ बारह है।’ दूसरे सज्जन सहमति जताते हुए बोले, ‘फिर भी कुछ जिम्मेदारी तो मौके पर मौजूद लोगों की भी बनती है। एक या दो बदमाश पचासों की भीड़ में सरेआम लड़की के साथ बदसलूकी करते हैं, किसी को लूट लेते हैं, चाकू घोंप देते हैं! और देखने वालों में जुंबिश नहीं होती!’
‘जान सबको प्यारी है अंकल! घर में मम्मी-पापा रोज सिखाते हैं कि बेटा किसी के लफड़े में मत पड़ना, खामखां पुलिस-थाने के चक्कर… और हां! बदमाश अगर कीमती चीजें छीने भी, तो चुपचाप दे देना… जान है तो जहान हैं।’ कहने वाले के होंठ व्यंग्य से टेढ़े हो गए थे। एक नौजवान अपने मोबाइल पर व्यस्त था। उसने यकायक सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। वह जो सर्च कर रहा था शायद उसे मिल गया। वह बोला, ‘यह देखो, सुनो जरा!’ उसने मोबाइल का वॉल्यूम ऊंचा कर दिया। कुछ लोग उसके इर्द-गिर्द होकर देखने लगे। शेष जहां के तहां से कान लगाए हुए थे।
वह एक सोशल साइट पर वायरल वीडियो क्लिप थी। एक गुंडा सड़क पर एक लड़की को छेड़ रहा है। लड़की उस पर चिल्लाती है, पुलिस बुलाने की धमकी देती है। सड़क पर लोग जमा हो जाते हैं। सभी मूकदर्शक बने खड़े हैं। बदमाश लड़के के हौसले बुलंद हैं। वह लड़की को धकिया रहा है, उसके कपड़े खींच रहा है। वह कह रहा है- पुलिस बुलाएगी? बुला पुलिस! बुला अपने हिमायती! देखता हूं तुझे कौन बचाता है… सब ओर सन्नाटा! लड़की कातर भाव से इधर-उधर लोगों की ओर देखती है कि कोई तो आगे बढ़े, उसे बचाए। सन्नाटा बरकरार रहता है। अचानक वह गुंडा मूकदर्शकों से मुखातिब होता है- इसकी चीखें आपको सुनाई नहीं दे रहीं! आप इसे बचाओगे नहीं? मुझे मारोगे नहीं? यह तड़प-तड़पकर दम तोड़ देगी, क्या तब आओगे? और तब इंडियागेट पर इसकी फोटो रख कर सैकड़ों मोमबत्तियां जलाओगे… हजारों की तादाद में सड़कों पर जाम लगाओगे… सरकार को निकम्मा साबित करोगे!’ वह हंसता है, ‘तुम मुझसे क्या लड़ोगे, मुझे क्या मारोगे! पहले अपने आप से लड़ो, अपने अंदर के डर को मारो…’ अब लड़की भी उसके साथ सहज रूप से खड़ी, लोगों को हिकारत से देख रही थी।
‘अरे यह तो पांसा ही पलट गया!’ एक ने आश्चर्य से कहा।
‘ओह! तो यह सब नाटक था!’ दूसरे को भी हैरानी हुई।
‘और नहीं तो क्या? ताकि जागो लोगों! जगो! समय रहते कुछ करो और दोगलेपन से बाज आओ।’ मोबाइल वाले लड़के ने कहा।
‘सही कहा, परोपकार के लिए जान देने के जमाने गए… नहीं, नहीं! मैं कह रहा हूं कि आमतौर पर! कुछ मिसालें अब भी मिल जाती हैं।’ तीसरे बुजुर्ग ने अपनी राय जोड़ दी।
‘आजकल लड़कियों ने भी हद कर दी है साहब!’ घृणा भरे लहजे में तीसरे ने कहा।
‘अजी, घर-बाहर का भेद ही मिट गया है! ऐसे-ऐसे पहनावे, जो कभी घर में नहीं पहने जाते थे! और खुलेआम ऐसी-ऐसी हरकतें! हे ईश्वर! महाकलयुग!’
सभी लोगों ने सहमति में गर्दन हिला दी।
एक बुजुर्ग अब तक खामोश बैठे थे। इस बार उनके लबों में जुंबिश हुई। उन्होंने पहलू बदल कर गले की खराश मिटाई फिर गंभीर स्वर में बोले, ‘भैया! शहर और उसमें रहने वाले लोग- दोनों की हिफाजत की जिम्मेदारी सरकार की होती है। यानी पुलिस देखभाल करेगी। तो सोचो, फिर हर आदमी घर में ताला क्यों लगाता है? एक कहावत है- चीज न राखे आपनी और चोर को गाली दे। सो भैया, एक हद और जिम्मेदारी सब की बनती है। हम खुद किसी अनहोनी को न्योता तो नहीं दे रहे- यह सोचना तो पड़ेगा न! दूसरी बात यह कि सिक्के के दो पहलू होते हैं… जागरूक होने वाली बात सही है मगर…’
इसी बीच मैकेनिकआ गया था। एक चाय की पुकार लगाकर वह अपना ठीया सजाने लगा। मैंने उसे काम बताया और खोखे पर लौटकर चाय के पैसे देने लगा। वे बुजुर्ग एक किस्सा सुना रहे थे-
‘कानों सुनी-आंखिन देखी, आप बीती बात है। महीना पहले का वाकया है। यही कोई, पचपन-साठ की उम्र की औरत, कैप्री के साथ टीशर्ट और पैरों में किसी नामी-गिरामी कंपनी के जूते पहने सैर पर निकली थी। संयोग से मैं उसके पीछे, लगभग दस गज दूरी पर चल रहा था। तभी क्या देखा कि एक छरहरी काठी का हमउम्र आदमी मेरे पीछे से स्पीड में आया और आगे जाकर उस औरत के पास क्षण भर को ठिठका, इशारों में कुछ कहा और कोहनी मार कर आगे बढ़ गया। औरत खामोश रही। मेरी नजर में यह सरेआम बदसलूकी थी। मैं लपक कर उसके पास पहुंचा, शायद कुछ मदद कर सकूं।’
इतना कहकर वह सज्जन चुप हो गए। श्रोताओं के चेहरे पर कौतूहल भरी जिज्ञासा छाने लगी। यह सन्नाटा सभी को खलने लगा। वाकया सुनकर मैं ज्यादा हैरान था। अजीब इत्तेफाक है! मैं कहूं तो क्या कहूं? कैसे कहूं? इस घटना का एक सच मैं भी जानता था। अगर बताउं तो क्या कोई यकीन करेगा? सब मुंह फेर कर हंसेंगे। मैं साहस नहीं जुटा पाया और निर्लिप्त होने की गरज से मैकेनिक की ओर देखने लगा, जो ट्यूब को टायर से बाहर खींच रहा था। लेकिन मेरे भीतर वह घटना खुलने लगी-
मैं और मेरी पत्नी किरण। सुबह की सैर हमारे जीवन में कभी नियमित नहीं रही। एक लंबे विराम के बाद हमने सैर पर फिर जाना शुरू किया था। मेरी और उसकी शारीरिक संरचना में कुछ गैरजरूरी फर्क हैं। वह तंदुरस्त हैं, मैं कृशकाय। उसे रक्तचाप के साथ सांस की तकलीफ भी है। वह धीरे-धीरे सैर करती है। सांस फूल जाता है तो रुककर फिर ताजादम होती है और फिर चल पड़ती है। जाहिर है इस तरह वह पीछे छूट जाती है। मैं तेज गति से सैर करता हूं। एक बार किसी डॉक्टर से सुना था- सैर में तेज चलना जरूरी है। शुरू करो तो पैंतीस-चालीस मिनट तक जारी रखो और बीच में ठहर कर बतियाना नहीं… वरना! सैर का कोई फायदा नहीं। लेकिन इस तरह की सैर में हमसफर का लुत्फ नहीं मिल पाता था।
सैर के वक्त हम असुरक्षा के भाव से डरे, अपने साथ मोबाइल या अन्य सामान-घड़ी, अंगूठी, चेन आदि भी नहीं रखते थे। हां, सुविधा के लिए एक सिस्टम बना लिया था। सैर का रूट, वापस घर लौटने का समय और यह कि दूध लेते हुए जाना है या नहीं- हम यह सब इशारों में तय कर लेते थे। मुझे चिंता अवश्य रहती कि पत्नी की तबियत ज्यादा खराब न हो जाए या किसी लूटपाट, छेड़छाड़ की शिकार न हो जाए! इसलिए मैं आगे जाकर पीछे लौट आता था- पत्नी के पास तक और फिर मुड़कर आगे चला जाता था। इस तरह तीन-चार बार उससे आमना-सामना हो जाता, खैरियत मालूम हो जाती थी। ऐसा करते हुए मैं स्वयं को जहाज का पंछी जैसा समझने लगता जो बार-बार अपने जहाज की ओर लौट आता है।
उस दिन मैं हमेशा की तरह आगे जाकर लौटा और पत्नी की विपरीत दिशा में कुछ दूर जाकर फिर पत्नी की ओर लौट आया। पास से गुजरते हुए इशारे के साथ बुदबुदाकर कहा- दूधवाले की दुकान पर रुकना। पत्नी समझ गई लेकिन कोई जवाब नहीं दिया। मैं आगे चला गया। सैर खत्म करके हम घर पहुंचे- पसीना सुखाया और ताजादम होकर अखबार देखने लगे। अखबार रोज की तरह राजनीतिक बयानबाजी के अलावा भ्रष्टाचार, लूटपाट-हत्या, महिलाओं से छेड़छाड, बच्चियों से दुराचार, सरेराह गुंडागर्दी के आतंक की खबरों से भरा हुआ था।
पत्नी अचानक हंस दी। मैं उसकी ओर प्रश्नवाचक मुद्रा में देखने लगा।
वह बोली- पता है क्या हुआ?
मैंने अनुमान लगाया, शायद कोई रोचक खबर का जिक्र करेगी। इसलिए जिज्ञासावश पूछा- क्यों, क्या लिखा है?
-अरे! अखबार में नहीं, वहां वॉक पर।
मेरी सवालिया नजरें उसके चेहरे पर थीं।
मैंने पूछा- क्या हुआ?
पत्नी ने अपनी हंसी को मुस्कराहट में बदला और मेरी आंखों में आंखे डाल कर कहने लगी- जब आप मुझे इशारा करके आगे निकल गए थे तब पीछे से एक बुजुर्ग लपक कर मेरे पास आया और पूछने लगा कि वह आदमी आपको छेड़कर गया है? मैं अवाक! कुछ समझी नहीं कि वह किसके बारे में बात कर रहा है। तभी उसने फिर दोहराया- कुछ इशारा किया था न उसने? मैं देख रहा था… वह जो स्पीड से गया है अभी अभी…
अब मुझे समझ आ गया था। पर बड़ी असमंजस में पड़ गई कि क्या कहूं?
-फिर! क्या कहा तुमने? बताया नहीं कि छेड़ने वाला कौन था? मैं यह सोचकर पुलकित हुआ कि सच्चाई जानकर उस सज्जन के चेहरे की क्या रंगत बनी होगी!
-फिर क्या! कुछ नहीं। मैंने कह दिया- नहीं तो! कौन! किसने! मुझे तो नहीं छेड़ा।
-पर इसमें छुपाने वाला क्या था, बता देती!
-इसमें बताने वाला भी क्या था? उसने तर्क किया।
-यही कि मेरा हसबैंड है, और क्या!
-अच्छा! और वह मान जाता?
वह जिरह पर उतर आई। उसने आगे कहा- चार सवाल और पूछता, पति है तो साथ क्यों नहीं चलता? ठहर कर बात कर लेता वगैरह! और आप ही बताएं- ऐसा क्या सबूत देती, जिससे मैं आपकी बीबी लगती! कह कर वह फिर मुस्काराई।
-जाने वह क्या-क्या नतीजे निकालता!
-ओके! मैंने तुरंत समर्पण कर दिया। खुशमिजाजी बनाए रखने की खातिर मैं उसके पास खिसक आया और कपोल पर एक चुंबन टांक कर फुसफुसा कर बोला- दोस्त तो लगती हो न? और उसके लिए किसी निशानी की जरूरत नहीं है… बस! मुझे पत्नी चाहिए ही नहीं।
वह जोर से हंसी थी। लेकिन मेरे भीतर कहीं यह सोच चस्पा हो गई- काष! उस बुजुर्ग की गलतफहमी दूर हो पाती! बुजुर्ग ने एक जागरूक नागरिक के अहसास से भरकर ही हौसला दिखाया होगा कि महिला की मदद की जाए। देखने-सुनने के बाद भी उसके साक्ष्य को जब झुठलाया गया तो उसे कैसा लगा होगा? धारणाओं के बनने में झूठ और सच के बीच बड़ी बारीक लकीर होती है।
मैं सोच और भूतकाल से उबर कर, वर्तमान में लौटा। उधर कहानी के चरम के प्रति उत्सुक लोग बुजुर्गवार के शब्दों पर कान लगाए हुए थे।
‘फिर क्या हुआ, साहब! आप तो खामोश हो गए… कुछ तो बोलिए!’ दो-तीन स्वर एक साथ उभरे।
बुजुर्ग मुस्कराए और कहा, ‘कुछ नही! मैं बेवकूफ बन गया, और क्या!’
‘कैसे?’ लोगों ने पूछा।
‘वह औरत साफ मुकर गई। बोली- नहीं, मुझे तो किसी ने नहीं छेड़ा। आपको गलतफहमी हुई होगी।ह्ण भैया रे! मेरी हालत ऐसी कि काटो तो खून नहीं! कितना अपमानित महसूस किया मैंने, आपको बता नहीं सकता!’
‘यह तो वही बात हुई- मुद्दई सुस्त और गवाह चुस्त!’ एक ने हंस कर कहा।
दूसरे ने टिप्पणी की- बहुत नाजुक मसला है। आप हिमायती बनें और अगली कह दे कि हमारे आपस का मामला है, आप कौन होते हैं? और कई छेड़छाड़ के केस तो बदला लेने के लिए ही….’
‘क्या पता जी, वह औरत ही ऐसी-वैसी होगी।’ किसी ने राय कायम की। बुजुर्गवार बड़ी संजीदगी से बोले-‘हां, हो सकता है! लेकिन भैया, मैंने कान पकड़ लिए कि अब ऐसा परमार्थ कभी नहीं करूंगा।’
किस्सा सुनकर मेरी बेचैनी का कोई अंत नहीं था। घटना की परिणति और उसके असर से मैं बहुत दुखी था। ऐसा नहीं होना चाहिए था। यकायक एक खास जज्बे ने मुझे विवश कर दिया। सारी झिझक और शर्म को दरकिनार कर के मैंने कहा- प्लीज भाईसाब! ऐसी शपथ न लें!
मुझे सभी ने चकित होकर देखा। बुजुर्ग भी गहरी नजरों से घूरने लगे। पर मैंने अपनी बात जारी रखी।
‘आप अपनी अच्छाई न छोड़ें! कहते हैं न- नेकी कर, दरिया में डाल! गलतफहमी भी हो सकती है। जैसे आंखों देखा, कानों सुना, कभी-कभी सच नहीं होता। आपने सिक्के का एक ही पहलू जाना है। हां, उस महिला को बताना चाहिए था कि वह आदमी उसका पति है, कोई और नहीं।’
इतना कहकर मैं गाड़ी की ओर मुड़ गया। मुझे अहसास हुआ- कुछ हैरत भरी निगाहें मेरी पीठ पर चिपकी हैं और हवा में हंसी की खनक भी शामिल है। लेकिन मैं इस बात से ज्यादा परेशान था कि नाश्ता ठंडा हो चुका है और उधर घर का तापमान बढ़ गया होगा। (राजकमल)