एकांतवास
जब भोजन बनाने की ताक़त नहीं रह जाती
तब भूख भी दम तोड़ देती है
जी मिचलाता है..रसोंई से आती दाल की महक बदबू लगती है और क़दम बाथरूम की तरफ बढ़ने लगते हैं…
जीभ पर ऐन्टीबायोटिक का ज़हर इस क़दर हावी हो जाता है कि सादा पानी भी कभी बहुत मीठा तो कभी बहुत कड़वा लगता है..
यह शुरुआत है …शरीर को
प्यार न करने की…निराशाओं के साथ जीने की……वैभव से मुख मोड़ लेने की …
जीतने हारने की कश़मकश शिथिल होने लगती है…
बाल्कनी के नीचे काले सफेद मुर्गे,मुर्गियाँ और उनके छोटे-छोटे चूजे फुदकते ,चुगते,और गढ्ढों में लोटती मुर्गी और पंखों से हवा करता और बीच बीच में बांग देता मुर्गा मानो अपनी मादा की पहरेदारी में हो…
सब कितने महत्वपूर्ण हो जाते हैं एकांतवास के मरीज के लिए.?
मोबाइल पर शुभचिंतकों के संदेश”कुछ चाहिए तो बताना..”जैसे जीवन दे जाता है…..मरीज कितना खुशकिस्मत है जो ऐसे दोस्त मिले…
मगर बेस्वाद जबान और बदबू से भी दोस्ती करनी होगी…. स्वाद वापस आने की जद तक…..
मृत फरोहों या ममीफाई होने की सम्भावना अब नहीं बची…शरीर प्लास्टिक के बैग में और आत्मा खुले आक़ाश में…..
इसलिये आसमान ही हमारी दौलत है जहाँ शून्य हमारी शुरुआत….।
फंतासी
फंतासी में जी लेना
इतना बुरा भी नहीं
आप बहुत सारी बुराइयों से
बच जाते हैं,आप खून नहीं करते
आप हरामख़ोर भी नहीं होने पाते…..,
चोर तो हरगिज़ नहीं।
फंतासी कला का वह पहलू है
जो अतियथार्थ के किसी कोने में
से निकलकर कब कलाकार के
आगोश में आ बैठता कि खुद उसे भी नहीं पता चलता,
जो ख़्वाब रचता है! रचते, छूटते, लड़ते, झगड़ते एक दरवाजा खुलता है
जो रास्ता दिखाता ….जहाँ जाते हुए बिल्कुल डर नहीं लगता …
आपके क़दम आपके हिसाब से चलते हैं और दिल में खूबसूरत दुनिया होती है ….
और दिमाग ….वह तो ऐसा आईना बन जाता है, जहाँ तस्वीरें
एक दम साफ बनती हैं
फिर भी सपने अच्छे लगते हैं
कल्पनाएं बिना पंखों के

एसोसिएट प्रोफेसर, प्रयाग महिला विद्यापीठ डिग्री कालेज, प्रयागराज।