हिंदी साहित्यकारों की सारस्वत साधना से कई परंपराएं शुरू हुई हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण है- आचार्य परंपरा। एक ऐसे दौर में जब विश्वविद्यालय की बड़ी से बड़ी उपाधियों से भी साहित्यकारों की लोक स्वीकृति ‘आचार्यत्व’ या ‘संतत्व’ की ऊंचाई तक नहीं पहुंच पा रही, यह देखना-समझना खासा दिलचस्प है कि हिंदी और उससे जुड़ी लोकभाषाओं में इस तरह की स्वीकृति कई साहित्यकारों को ऐतिहासिक तौर पर प्राप्त है। शिवपूजन सहाय हिंदी के ऐसे ही एक ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं, जिनका परिचय आचार्य शब्द के बिना पूरा नहीं होता है। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ की उपाधि से उनके जीवन की सांध्यबेला में जरूर नवाजा, पर इससे पहले हिंदी जगत उन्हें ‘संपादकाचार्य’, ‘साहित्यभूषण’ से लेकर ‘विनयमूर्ति’ जैसे संबोधनों से समादृत कर चुका था।
शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 में गांव उनवांस, शाहाबाद (बिहार) में हुआ। उनके साहित्यिक अवदान को जानने-समझने के लिए हमें हिंदी नवजागरण के ऐतिहासिक संदर्भ को समझना होगा। आधुनिक काल में हिंदी क्षेत्र में पहला नवजागरण 1857 में आया। नवजागरण का दूसरा दौर भारतेंदु युग में शुरू हुआ और तीसरा दौर महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में। नवजागरण के इस तीसरे युग में जिन साहित्यकारों ने बड़ी भूमिका निभाई शिवपूजन सहाय उनमें अग्रणी थे। हिंदी क्षेत्र में सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण के लिए सहाय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया।
उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत 1921 में सचित्र मासिक पत्र ‘मारवाड़ी-सुधार’ से की। इसके बाद ‘माधुरी’, ‘मतवाला’, ‘आदर्श’, ‘उपन्यास तरंग’, ‘समन्वय’, ‘बालक’, ‘जागरण’, ‘नई धारा’, ‘साहित्य’ और ‘हिमालय’ पत्रिकाओं को भी सहाय का संपादकीय सहयोग मिला। तकरीबन चार दशकों की अपनी पत्रकारिता में उन्होंने कई बातों पर खास जोर दिया। मसलन, उन्हें लगता था कि हिंदी समाज में नवजागरण तब आएगा जब पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा मिलेगा। पुस्तकालय और संग्रहालय के लिए चिंतित सहाय हिंदी समाज में रंगमंच का भी विकास देखना चाहते थे। उनकी यह सोच और चिंता दिखाती है कि वे हिंदी समाज की जागरूकता के लिए भाषा और संस्कृति के कितने मोर्चों पर एक साथ सक्रिय थे।
उनके लिखे कुछ लेखों और टिप्पणियों पर गौर करें तो यह साफ दिखता है कि वे व्यक्ति को सांस्कृतिक रूप से चैतन्य बनाना चाहते थे, वहीं वे व्यक्ति में औदार्य, सेवा व प्रेम जैसे गुणों से संपन्न करने पर बल देते थे। ‘समन्वय’ के वर्ष 2 अंक 3 में उन्होंने लिखा, ‘औदार्य मानव हृदय का वह सर्वश्रेष्ठ गुण है। ’ ‘समन्वय’ के ही वर्ष 2 के आठवें अंक में उन्होंने लिखा, ‘प्रेम और सेवा से ही हृदय में औदार्य का उदय होता है। अतएव यह प्रत्यक्ष प्रकट होता है कि प्रेम और सेवा का सम्मिलित भाव ही विश्व प्रेम है।’
दरअसल, वे हिंदी समाज में आदर्श नागरिक की कल्पना करते थे। इस कल्पना में सेवा और प्रेम के उस सांस्कृतिक तकाजे पर उनका खास जोर था। वे इस सासंकृतिक नवजागरण के बूते ही नए और सशक्त भारत के निर्माण की कल्पना करते थे। उन्होंने इसी मकसद से 1922 में कलकत्ता से प्रकाशित मासिक ‘आदर्श’ पत्रिका में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को सामने रखते हुए आदर्श पुरुष, आदर्श देश, आदर्श बंधु, आदर्श साहित्यिक शीर्षक टिप्पणियां लिखी हैं। 1963 में निधन से पहले तक हिंदी के इस महान साहित्यकार ने जो सारस्वत साधना की वह आज हिंदी साहित्य के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं।