ठाकुर का नाड़ा
ठाकुर का पजामा फटा है
मैंने दिल्ली की जीन्स पहन ली है
ताकत लेकिन फिर भी
ठाकुर के फटे पजामे
के नाड़े में झूलती है
गर्भ में पड़े बीज का भविष्य
उसके भट्टे में मिट्टी
गोड़ने की राह देख रहा है
मिट्टी से लथपथ बच्चे
कोई प्रश्न नहीं हैं
ऐसे कि जैसे वे हैं ही नहीं
इस देश के भूगोल पर
इतिहास में भी उसके
किसी का बयान दर्ज नहीं है
उसके अपने आज भी
ठाकुर का नाड़ा
पकड़ कर झूल रहे हैं
ठाकुर भी उन्हें इसी
नाड़े की नोक पर रखता है
इसी नाड़े से ठाकुर ने
सारी जमीन नाप ली है
खसरा-खतौनी उसे ही पता है
हमारे दूल्हों की घोड़ियां
भी ठाकुर के नाड़े
से बंधी हैं
कब खुलेंगी यह भी
नहीं पता है
हमारी बेटियों के जवान
होने का पता
ठाकुर को पहले चलता है
ठाकुर के कुएं की दीवारें
आज भी मजबूत हैं
क्योंकि उसकी रक्षा
उसका नाड़ा करता है…
(संजीत आचार्य)
गैरजरूरी
जरूरी से गैरजरूरी हो जाना
बहुत सालता है
मैं घर की सबसे गैरजरूरी चीज हूं
अन्य कबाड़ की तरह
मैं भी अखरने लगा हूं
किसी को फुरसत नहीं
कि मुझसे बात करे
पहले महीने की आखिरी तारीख को
सबको रहता था इंतजार मेरा
हर शाम को चॉकलेटी
स्नेह की आश होती थी
सब दूर हैं आज
क्योंकि सब जानते हैं
सूखे पेड़ छाया नहीं देते
बल्कि एक डर देते हैं
असमय गिरने का…
(संजीत आचार्य)
वसंतों का हिसाबर
मैं पैदा हुआ तो
उन किताबों के बोझ के साथ
जो किसी मेरे अपने ने नहीं लिखी
मुझे ताकीद थी कि
मैं सेवक हूं सभी का
मैं मार खाऊं और चुप रहूं
सब सह जाऊं
कोई आवाज न उठाऊं
मेरी मुट्ठियां तो तनीं
और जबड़ा भी भिंचा
लेकिन वे देख नहीं पाए
ऐ रात, तू मेरी आंखों में देख
मैं भविष्य देखता हूं
इतिहास को मेरे सभी
वसंतों का हिसाब देना होगा
जो पतझड़ बना दिए गए।
(संजीत आचार्य)