हाल ही में अभिनेता विवेक ओबेराय ने अभिनेत्री ऐश्वर्य राय को लेकर एक चित्र साझा किया। फिर क्या था, उनकी इतनी आलोचना हुई कि उन्हें माफी मांगनी पड़ी। अपनी ट्वीट हटानी पड़ी। विवेक को ऐश्वर्य के साथ ऐसा नहीं करना चाहिए था। कहा जाता रहा है कि एक समय सलमान खान से अलग होने के बाद ऐश्वर्य उनके साथ दोस्ती में थीं। उनके पिता सुरेश ओबेराय भी ऐसा कह चुके हैं। विवेक ने ऐश्वर्य से संबंधों को लेकर सलमान के खिलाफ एक प्रेस कान्फ्रेंस भी की थी। लेकिन उनके अनुसार ऐश्वर्य उन्हें छोड़ कर चली गर्इं। तब से आज तक वे अपनी उस प्रेस कन्फ्रेंस को लेकर सलमान से माफी मांगते रहे हैं, लेकिन कहा जाता है कि सलमान उस अपमान को नहीं भूले हैं। विवेक ने अभिषेक बच्चन से भी संबंध सुधारने की कोशिश की। वे अभिषेक की दादी तेजी बच्चन के अंतिम संस्कार में भी देखे गए। पर जब उन्होंने तस्वीरें साझा कीं तो उनकी काफी निंदा हुई। महिला आयोग ने भी इसका संज्ञान लिया। हालांकि ऐश्वर्य ने उनसे किसी संबंध को कभी नहीं स्वीकार किया। विवेक ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ऐश्वर्य ने उनकी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ को बर्बाद कर दिया। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि ऐश्वर्य विवेक के साथ कभी रिलेशनशिप में थी ही नहीं। दोस्ती को विवेक ने प्रेम मान लिया। बहुत से लोग यह भी कहने लगे कि आजकल लोग मामूली से हंसी-मजाक को भी अपना अपमान समझ लेते हैं। यह बात सच भी है। व्यंजना में कही बात को भी अभिधा मान लिया जाता है। और ‘टच मी नाट’ की भावना इतनी अधिक है कि ममता बनर्जी के कार्टून बनाने पर कार्टूनिस्ट को जेल की हवा खानी पड़ती है।
वैचारिक संकीर्णता: कइयों ने महिला आयोग के संज्ञान लेने को कहा कि महिला आयोग ढोर है। वैसे भी महिला आयोग अकसर उन बातों का संज्ञान लेता है, जिसमें उसे अधिक से अधिक चर्चा और प्रसिद्धि मिलती हो। आमतौर पर साधारण औरतें कहती हैं कि वे महिला आयोग के पास गर्इं, लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। खासकर बूढ़ी महिलाएं और पति की रिश्तेदार महिलाएं, जिनमें सास, ननद और अन्य औरतें शामिल हैं, उनकी कोई मदद आयोग नहीं करता। ऐसी शिकायतें अकसर मिलती हैं। हम और आप नहीं जान सकते कि सच क्या है, क्या था। विमर्शों के कोलाहल ने सच को सच कहना भुला दिया है। सब कहते तो यह हैं कि वे सच बोल रहे हैं, लेकिन सच अपनी-अपनी राजनीतिक विचारधारा, विमर्श, लैंगिक न्याय आदि के चश्मे से देखा जाता है। कोई सार्वभौम सच नहीं है। होता भी नहीं। जिसे युनिवर्सल सच कहते हैं वह कोई नहीं होता। उदाहरण के तौर पर अंतरिक्ष में एक सूरज, एक चांद की बात की जाती थी, लेकिन अब पता चल गया है कि अंतरिक्ष में अनगिनत सूरज और चांद हैं। सच सब्जेक्टिव तो है ही, बहुत बार बदले की भावना से भी भरा हुआ है। जब तक बदला न लूं, तब तक मेरा सच आपका सच नहीं बन सकता। बल्कि कई बार किसी का सच दूसरे के लिए झूठ हो सकता है और किसी का झूठ दूसरे का सच होता है। इन दिनों दलितों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडर्स, एलजीबीटी, सवर्णों, पर्यावरण वादियों के सबके अपने-अपने सच हैं। यही नहीं, ट्रोल आर्मी के अपने सच हैं और हर रोज की अपनी-अपनी तरह की मारामारी है। हाल तो यह है कि अगर ऐश्वर्य अपनी बेटी आराध्या के साथ चली जाएं तो ट्रोल सेना उन्हें लानतें भेजने लगती है। करीना कपूर अपने बेटे का क्या नाम रखें, कैसे रहें, क्या पहनें, इस पर लोग पीछे पड़ जाते हैं। एक तरफ व्यक्ति की निजता की लम्बी-चौड़ी बातें हैं, तो दूसरी तरफ निजता का इतना हनन पहले कभी नहीं देखा गया।

विमर्शों का कोलाहल: विमर्शों के कोलाहल में अकसर हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। बाकी दूसरी तरफ और दूसरी तरह के विचार से आंखें मूंदने, उपेक्षा करने और अगर फिर भी बात न बने, तो मजाक उड़ाने में हम अपनी बहुत-सी ऊर्जा गंवाते हैं। पिछले साल अपने देश में ‘मी टू’ का बहुत जोर था। मीडिया हफ्तों तक इस पर लगा रहा। टीवी स्क्रीन पर और अखबारों में देखते-देखते ऐसे खलनायकों की बाढ़ आ गई, जो हीरो से जीरो बना दिए गए। नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना का आरोप लगाने वाली तनुश्री दत्ता जो ‘मी टू’ की बहुत बड़ी नायिका थीं, ने हाल ही में कहा कि हमारे यहां चलाए जाने वाला ‘मैन टू मूवमेंट’ बहुत खतरनाक है। यह महिलाओं को अपने प्रति किए गए अपराध को किसी को बताने से रोकेगा। तनुश्री यह भूल गर्इं कि कोई भी विमर्श अपने साथ प्रति विमर्श लाता है। अगर औरतें अपनी बात कह रही हैं तो पुरुष भी अपनी बात कहेंगे। उन्हें क्यों रोका जाना चाहिए। और सोशल मीडिया के इस दौर में कौन किसे रोक सकता है। तकनीक जितनी आजादी और अभिव्यक्ति का मौका स्त्री को देती है, पुरुष को भी देती है। इसके अलावा मीडिया को हर रोज कुछ नया चाहिए। फिर उसे अपने पाठकों, दर्शकों का भी ध्यान रखना पड़ता है। अगर किसी अखबार के पाठक और दर्शक औरतें हैं, तो पुरुष भी हैं। इसीलिए पिछले दिनों एक बड़े अंगरेजी अखबार ने कई दिन तक ‘मैन टू मूवमेंट’ चलाया। यह अखबार ‘मी टू’ के दिनों में हफ्तों तक मी टू का बड़ा भारी समर्थक था। बीसियों लेख ही नहीं, बहसें चलाई गई थीं। आखिर इस अखबार को ऐसा क्यों करना पड़ा। इसलिए कि व्यापार के नियम किसी की विचारधारा या एकपक्षीय सोच से तय नहीं होते। व्यापार खरीददार के कारण आगे बढ़ता है। एक अखबार के खरीददार स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं। ब्रांड के शोर में इन दिनों किसी ब्रांड को बनाना बहुत मुश्किल काम भी है। इसीलिए अगर कोई अखबार या चैनल किसी एक की बात करेगा, किसी एक को प्राथमिकता देगा, तो दूसरा पक्ष उसे नकार देगा। और व्यापार में बहुत घाटा होगा। यह एक तरह से अच्छा भी है। क्योंकि एक तरह की बात करना अकसर अतिवाद और तानाशाही को जन्म देता है।
लोकतंत्र में सभी तरह के विचारों को सामने आना चाहिए। मीडिया को खुद अच्छा-बुरा तय नहीं करना चाहिए। उसे एक ही साथ पत्रकार, न्यायाधीश और वकील की कुर्सी पर नहीं बैठना चाहिए। सोशल मीडिया को भी दूसरों को लानतें भेजने से पहले खुद के अंदर झांकना चाहिए। मान लीजिए कि विवेक ओबेराय ने गलत किया। लेकिन उन्हें सही करने का तरीका क्या उन पर हमला बोल देना है। और सिर्फ उन पर ही नहीं उनकी पत्नी को बीच में घसीटना कहां तक जायज है। विवेक की पत्नी प्रिया रुंचाल पति के खिलाफ क्यों नहीं बोली। जूते लेकर क्यों पीछे नहीं दौड़ी। अरे भई ऐसा कहने वाले क्या खुद ऐसे उदाहरण पेश कर चुके हैं। या कि सारी नैतिकता का ठेका उन लोगों ने ले रखा है जो सिर्फ दूसरे से प्रश्न पूछते हैं, खुद को किसी महर्षि के सिंहासन पर जगह देते हैं और मौका पड़ते ही भाग जाते हैं। इसमें सबसे बेहतरीन उदाहरण तरुण तेजपाल का है। वह गोवा में दुष्कर्म के खिलाफ ही कान्फ्रेंस करने गए थे। जब उनकी सहयोगी ने उन पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाए तो वे उस स्त्री के चरित्र हनन पर उसी तरह उतर आए, जिन बातों का लगातार विरोध करते रहे थे। यानी कि जब खुद पर पड़े, तो वही तर्क और जब दूसरे पर पड़े, तो नैतिकता के सारे पाठ। कई बार लगता है सब खुद को सबसे बड़ा क्रांतिकारी साबित करने की फिराक में रहते हैं, और राजनीतिक दलों की तरह ही जैसे वोट की राजनीति करने लगते हैं। वोट की राजनीति को राजनीतिक दलों के हिस्से ही छोड़ा जाना चाहिए।

हिंसक वातावरण: अकसर चिंता प्रकट की जाती है कि दुनिया में हिंसा बहुत बढ़ रही है। बच्चे, बूढ़े, स्त्रियां, पशु-पक्षी, यहां तक कि हमारे प्राकृतिक संसाधन, पेड़, नदियां किसी न किसी रूप में हिंसा और मनुष्य जनित लालच के शिकार हैं। लेकिन जितनी हिंसा की शिकायतें बढ़ी हैं, उतनी ही हिंसा बढ़ी है।
अकसर हम न्याय के मुकाबले खुद को ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ दिखाना चाहते हैं। हमारे सच और झूठ हमारी विचारधारा से तय होते हैं। सबके लिए एक जैसे न्याय की बात लगभग खत्म हो चली है। न्याय भी एक किस्म की दुरूह प्रतियोगिता में है। आपने देखा होगा कि अब अपराधियों की भी जाति बताई जाती है। दुर्घटना में मारे गए व्यक्ति की जाति की पहचान बताने से परहेज नहीं है। जैसे कि दुर्घटना या दुष्कर्म किसी की जाति को देख कर किया गया हो। गरीब और गरीब औरत की कोई जाति नहीं होती, न धर्म होता है। गरीब होना ही तरह-तरह के अपराधों को आमंत्रण देता है। लेकिन अकसर इन बातों को तरह-तरह के चश्मों से देखा जाता है। और जाहिर है कि अपने चश्मे में जो रंग पुता है, जो विचारधारा दिमाग की हार्ड डिस्क में मौजूद है, वही दिखाई देती है। हालत यहां तक पहुंच गई है कि जो कुछ मैंने कहा है बस वही सच है। कहे को सच मानने पर जोर बढ़ा है। और इस कहे में जिसे अपराधी करार दिया गयाउसे फौरन लटकाने की मांग की जाने लगती है। एक तरफ हर कोई लोकतंत्र की दुहाई देता है, लेकिन बिना किसी प्रमाण के मात्र आरोप लगने भर से किसी को अपराधी कैसे ठहराया जा सकता है! एक उदाहरण कठुआ में हुए बच्ची के साथ दुष्कर्म का है। आपको याद होगा कि इस बच्ची को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन चला था। लोगों ने उसके फोटो अपने-अपने यहां लगा लिए थे। जबकि कानूनन यह गलत था। दुष्कर्म पीड़िता की पहचान उजागर नहीं की जा सकती। हाल ही में कश्मीर में एक तीन साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म जैसा अपराध किया गया, जिसे उसके किशोर पड़ोसी ने अंजाम दिया। इस किशोर को बहुत से लोगों ने यह कह कर बचाने की कोशिश की कि वह अभी नाबालिग है। जबकि निर्भया के केस में किशोर अपराधी को तीन साल की सजा के बाद छोड़ने पर खासी बहस चल पड़ी थी। कहा जाने लगा था कि अगर अपराध बड़ों जैसा है, तो सजा भी बड़ों की तरह मिलनी चाहिए। बहुत से पश्चिमी देशों में ऐसे ही कानून हैं। लेकिन अफसोस यह है कि इस तीन साल की बच्ची को न्याय दिलाने की कोई मुहिम नहीं चली। कारण, दोनों- बच्ची जिसके साथ अपराध हुआ और वह किशोर- एक ही समुदाय के थे। यानी कि अपराध के प्रति भी हमारा नजरिया अपने-अपने राजनीतिक विचार और चश्मे से तय होता है।

पुरुष बनाम स्त्रीवादी सोच: एक जमाना था जब सारे पुरुष देवता थे। उन्हें देवत्व हमारी पुरुषवादी सोच और तमाम किस्म की कर्मकांडी व्याख्याओं ने दिया था। आज वही देवत्व औरतें पाना चाहती हैं। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि बदले वक्त में न कोई देवता है, न देवी। अपने-अपने स्वार्थों में लिप्त हम हर अच्छे विचार, प्रगतिशील अवधारणाओं को भी निजी हानि-लाभ के लिए ही इस्तेमाल करते हैं। एक तरफ देवत्व की मूर्तियां खंडित की जा रही हैं, दूसरी तरफ हर रोज नई मूर्तियां बनाई जा रही हैं। अपने-अपने रोल माडल ढूंढ़ने की होड़ लगी है। नया रोल माडल बनाने के लिए पुराने को हमेशा ध्वस्त करना पड़ता है। इसीलिए सबके सच एक-दूसरे से टकरा रहे हैं। अरसे से बॉलीवुड में काम करने वाली महिलाओं को भारत देश में रहने वाली हर औरत का रोल माडल बना कर प्रचारित-प्रसारित किया गया है। मी टू ने और कुछ बताया हो, न बताया हो, यह तो जरूर साबित किया कि जिन औरतों को आदर्श बनाने की दौड़ में अखबार और चैनल लगे रहे, उन्हें स्त्री के सशक्तिकरण से जोड़ा गया। लेकिन पता तो यह चला कि वे साधारण औरतों की रोल माडल क्या होंगी, जो अपनी ही रक्षा खुद न कर सकीं। अपने खिलाफ होने वाले रात-दिन के शोषण का विरोध न कर सकीं। और पूछने पर कहने लगीं कि शोषण कहां नहीं है। दस से पांच वाली नौकरियों में नहीं है क्या। जो कुछ विवेक ने किया वह गलत है, लेकिन अरसे से ऐसा ही तो हो रहा है। गुजरे दिनों के अभिनेता राहुल राय ने मनीषा कोइराला से अपने संबंधों को लेकर कहा था कि अगर उसके बारे में मुंह खोल दूं, तो वह कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेगी। पिछले दिनों ऋत्विक रोशन और कंगना में भी विवाद हुआ था। कंगना का कहना था कि वह उनके साथ रिलेशनशिप में थीं। जबकि ऋत्विक ने कहा कि वह कभी कंगना से अकेले में नहीं मिले। न ही उन्होंने कभी उनके किसी संदेश या मेल का जवाब दिया। और सिर्फ फिल्मों में नहीं राजनीति में भी ऐसा होता आया है। लड़कियों को हथियार बना कर अकसर दूसरों का चरित्र हनन किया जाता है। हाल ही में महेश शर्मा के साथ हुई घटना भी याद होगी। दशकों पहले एक पत्रिका ने जगजीवन राम के बेटे और उनकी महिला मित्र के बेहद अश्लील चित्र छाप दिए थे। तब ऐसा कानून भी नहीं था कि महिलाओं की पहचान नहीं बतानी है। औरतों को ब्लैकमेल करने का सबसे अच्छा तरीका उनके चरित्र पर सवाल उठाना है। लेकिन अपसोस है कि अब बहुत से पुरुषों को भी यह झेलना पड़ता है।

