खिलाड़ी की मेहनत और उपलब्धियों का प्रतीक होता है सम्मान। खेल जीवन के दौरान मिल जाए तो खिलाड़ी इससे प्रेरित होता है, खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। मिले सम्मान से उसे और बेहतर करने की ऊर्जा मिलती है। खेल जीवन का समापन हो जाए, वह भी दशकों पहले और फिर अवार्ड मिले तो उसकी खुशी कम हो जाती है। उसे पाने वाले खिलाड़ी के मन में कहीं न कहीं रंज होता है। कई बार तो लोग देर से मिले सम्मान को लेने से ही इनकार कर देते हैं।
दो ऐसे खब्बू स्पिनर हैं जिनके जख्मों पर मरहम लगाने की बीसीसीआई ने कोशिश की है। कर्नल सीके नायडू लाइफटाइम अचीवमेंट एवार्ड दिया गया है, खेल से सेवानिवृत्त होने के दशकों बाद। चलो ‘देर आयद दुरुस्त आयद’, इनके क्रिकेट योगदान को सराहा तो गया। ये गेंदबाज हैं बंबई (अब मुंबई) के पद्माकर शिवालकर और हरियाणा के राजिंदर गोयल। अवार्ड मिलना खिलाड़ी के लिए सम्मान की बात है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पैसे वाली संस्था है, इसलिए खिलाड़ी को अच्छा खासा पैसा भी मिल जाता है।
लेकिन लगभग तीन दशक पहले जब खिलाड़ी के करिअॅर को विराम लग चुका हो तो सम्मान और पैसे का खिलाड़ी के लिए कोई खास महत्त्व नहीं रह जाता। हां, पैसा मिलने से उसका बाकी जीवन चिंतामुक्त हो सकता है। पर जो मानसिक पीड़ा उसे खेल जीवन में झेलनी पड़ी, उस पर तो मरहम नहीं लग सकता। यही वजह है कि जब अवार्ड देने की घोषणा हुई तो इन दोनों गेंदबाजों को उतनी खुशी नहीं हुई जितनी होनी चाहिए थी।
अवार्ड के लिए चुने जाने पर मुंबई के चैंपियन स्पिनर पद्माकर शिवालकर की पहली प्रतिक्रिया रही, ‘न तो मुझे इससे किसी तरह की खुशी है और न ही कड़ुवाहट। मैं फैसले का सम्मान करता हूं। अवार्ड मिल गया, ठीक है। नहीं भी मिलता तो कोई अफसोस नहीं होता। अब कोई रोमांच वाली बात नहीं। वह दौर गुजर चुका है।’ वास्तव में, इसमें छिपी शिवालकर की टीस को समझा जा सकता है। अपने प्रदर्शन के जरिए हर क्रिकेटर का सपना होता है पहले राज्य का और फिर देश का प्रतिनिधित्व करना।
शिवालकर हों या गोयल, दोनों ने अपनी स्पिन जादूगरी से बल्लेबाजों को नचाए रखा। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सफलता के बावजूद उनका देश के लिए खेलने का सपना हकीकत में इसलिए नहीं बदल सका क्योंकि भारतीय टीम में बाएं हाथ के स्पिनर के तौर पर महान बिशन सिंह बेदी अपना सिक्का जमा चुके थे। बेदी गेंदबाजी कौशल में गोयल और शिवालकर से ज्यादा बेहतर थे, इसलिए उन्हें हटाया नहीं जा सका। वैसे भी गेंदबाजी में काफी विविधता थी।
टीम इंडिया में बेदी की मौजूदगी ने गोयल और शिवालकर की हताशा को बढ़ाया। पर दोनों ने प्रथम श्रेणी क्रिकेट में निराशा को अपनी गेंदबाजी पर हावी नहीं होने दिया। दोनों रणजी ट्राफी सहित घरेलू क्रिकेट में अपने सफल प्रदर्शन से सुर्खियों में बने रहे। अपनी किताब ‘आइडल्स’ में गोयल और शिवालकर को स्थान देकर सुनील गावस्कर ने भी इन गेंदबाजों को सम्मान दिया। ‘सनी’ ने तो हरियाणा के स्पिनर राजिंदर गोयल की तारीफ करते हुए उन्हें बिशन सिंह बेदी से भी मुश्किल गेंदबाज माना है। उनकी राय में बेदी की फ्लाइटेड गेंदों को आगे निकलकर ड्राइव किया जा सकता था पर गोयल की गेंदों के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते थे। गोयल की गेंदों में फ्लाइट थोड़ी कम रहती थी जिस कारण उनकी गेंदों को धुनना मुश्किल हो जाता था।
गोयल ने अपने दम पर हरियाणा को ढेरों मैच जितवाए। रणजी ट्राफी में सर्वाधिक 637 विकेट लेने का उनका रिकार्ड आज भी गेंदबाजों के लिए चुनौती बना हुआ है। करीब 33 साल पहले रोहतक स्थित उनके निवास पर जब मेरी मुलाकात हुई थी तो उस बातचीत में देश के लिए नहीं खेल पाने का मलाल स्पष्ट झलका। उनकी महानता को देखिए कि किस सहज अंदाज में उन्होंने कह दिया,‘आई वाज नाट गुड एनफ टू प्ले फार इंडिया।’ अगर मैं वाकई अच्छा होता तो मुझे देश के लिए खेलने का मौका जरूर मिलता।
वैसे किस्मत ने भी गोयल का साथ नहीं दिया। सिलोन (अब श्रीलंका) के साथ अनधिकृत टैस्ट में गोयल और आॅफ स्पिनर वेंकटराघवन साथ खेले थे। गोयल ने 33 रन पर चार खिलाड़ियों को आउट किया था जिनमें से तीन को बोल्ड किया था। वेंकट ने इसमें 34 रन देकर एक विकेट लिया। प्रदर्शन को देखते हुए गोयल को आगे मौका मिलना चाहिए था लेकिन उनकी बजाय मिला वेंकट को। टीम इंडिया में भी दो आॅफ स्पिनरों इरापल्ली प्रसन्ना और वेंकटराघवन को साथ-साथ खेलने का मौका मिला। लेकिन बेदी के टीम में रहते गोयल या शिवालकर को दूसरे खब्बू गेंदबाज का रोल नहीं मिल पाया। लेकिन अपनी उपेक्षा से बेपरवाह होकर गोयल बेहतरीन प्रदर्शन करते रहे। गेंदबाजी का मौका मिलते ही बल्लेबाज को आउट करना उनका लक्ष्य रहता था।
राजिंदर गोयल मैदान पर जितने शालीन दिखाई दिए, उतनी ही शालीनता उनके जीवन में भी दिखाई दी। मैदान के अंदर और बाहर उनका आचरण काबिलेतारीफ रहा। निश्चित ही वह एक ऐसी हस्ती रहे जिनको आदर्श माना जा सकता था। नपीतुली गेंदबाजी से वह नामी-गिरामी बल्लेबाजों को परेशान करते रहे। दलीप ट्राफी और ईरानी ट्राफी में भी उन्हें खेलने का मौका मिला। इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि उन्हें ‘इंडिया कलर’ के लायक नहीं समझा गया। यहां तक कि किसी विदेशी दौरे के लिए भी उनका भारतीय टीम में चयन नहीं हुआ।
दुबले पतले पद्माकर शिवालकर ने भी मुंबई की टीम के लिए कमाल का प्रदर्शन किया। 124 प्रथम श्रेणी मैचों में 589 विकेट उनकी बेहतरीन गेंदबाजी का प्रमाण हैं। सुनील गावस्कर ने उन्हें भी अपने पसंदीदा गेंदबाजों में रखा है। पैडी के नाम से मशहूर शिवालकर जब क्रिकेट मानचित्र पर आए तो बंबई के पास बापू नादकर्णी के रूप में स्थापित खिलाड़ी था। विकेट लेने की कुशलता के साथ-साथ रन बनाने की काबिलियत ने नादकर्णी को टीम का अहम सदस्य बना दिया। नादकर्णी के बाद एकनाथ सोल्कर की आलराउंडर क्षमता ने भी शिवालकर को बंबई की टीम में जगह बनाने से रोके रखा। यानी उन्हें काफी इंतजार करना पड़ा। 1967-68 में शिवालकर को मुंबई की रणजी टीम में जगह मिल पाई। बल्लेबाज की कमजोरी को शिवालकर बखूबी भांप लेते थे। टर्न लेती पिचों पर उनकी गेंदों पर रन बटोरना काफी मुश्किल था।
जुझारू बल्लेबाज भी रहे। 16 रन देकर आठ विकेट उनका सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजी प्रदर्शन रहा जो उन्होंने 1972-73 में रणजी ट्राफी फाइनल में तमिलनाडु के खिलाफ मद्रास (अब चेन्नई) में किया था।
महिला क्रिकेट की पूर्व कप्तान शांता रंगास्वामी को अवार्ड मिलना जरूर गौरव का विषय है। शांता ऐसी क्रिकेटर रहीं जिनके साथ कई ‘पहल’ जुड़ी हुई है। वह पहली भारतीय कप्तान रहीं, अर्जुन अवार्ड पाने वाली पहली महिला क्रिकेटर और अब बीसीसीआई की तरफ से लाइफटाइम अचीवमेंट पाने वाली पहली महिला क्रिकेटर हैं। हालांकि, उनको अर्जुन अवार्ड मिल चुका है तो भी इस अवार्ड का उनके लिए खास महत्त्व इसलिए है क्योंकि इससे भारतीय महिला क्रिकेटरों को पहचान और नई राह मिलेगी।