रोहित कुमार
आपके स्वभाव की तारीफ करता है। तब क्या आपने महसूस किया कि आपके मन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। आपके भीतर एक सकारात्मक ऊर्जा पैदा होती है। आप उत्साह से भर उठे हैं। आपको खुद पर गर्व का अनुभव होता है। स्वयं को आप थोड़ा श्रेष्ठ अनुभव करने लगते हैं, कुछ ऊपर उठा हुआ महसूस करते हैं। जिस व्यक्ति ने मुस्करा कर धन्यवाद दिया, उसका चेहरा आपके मन में बस जाता है।
आपके मन में भी उसके प्रति स्वत: प्रशंसा के भाव उभरते हैं। प्रकट रूप में भले आपने उसे कुछ न कहा हो, पर आपका मन उसकी तारीफ करता ही है। फर्ज कीजिए, यही दृश्य उलटा उपस्थित हो। वह अनजान आदमी आपसे रुक्ष तरीके से कुछ कठोर स्वर में रास्ता पूछ ले। तब आपके भीतर क्या भाव उठेंगे।
आप कुछ सोचे-समझे बिना उसे उसी रुक्षता, उसी अनमनेपन के साथ रास्ता बता देंगे। फिर वह आदमी धन्यवाद दिए बगैर सीधे निकल जाए, तो आपके भीतर और चोट लगती है। फिर आपके भीतर कुछ अलग ही घटित होता है, नकारात्मक घटित होता है। न सिर्फ उस व्यक्ति के प्रति नकारात्मक भाव जागते हैं, बल्कि आपका मन देर तक खिन्न रहता है। यह सब आप बहुत सोच-समझ कर नहीं करते। बस, हो जाता है। हमारे भीतर से ऐसी प्रतिक्रियाएं स्वत: निकलती हैं।
हमारा मन हमारे संस्कारों के अनुसार प्रतिक्रियाएं देता और लेता है। जैसा हमने खुद को बनाया है, वैसी ही प्रतिक्रिया हमारे भीतर से निकलेगी। कल्पना कीजिए कि आपकी जगह कोई दुष्ट स्वभाव का व्यक्ति होता। ऐसा व्यक्ति, जिसे दूसरों को तकलीफ पहुंचा कर सुख मिलता हो। अगर उससे वह अजनबी चाहे विनम्रता या रुक्षता से रास्ता पूछता। हो सकता है, बल्कि ज्यादा संभव है कि वह व्यक्ति उस अनजान को गलत रास्ता बताता। क्योंकि उसे ऐसा करके सुख मिलता है।
फिर गलत रास्ता बता कर वह अपने ऊपर गर्व करता, सुख पाता और देर तक मुस्कराता रहता। वह दूसरों को जाकर अपने किए का बखान भी करता। क्योंकि उस व्यक्ति ने खुद को इसी तरह तैयार किया है, दूसरों को दुख पहुंचा कर सुख हासिल करने का संस्कार ही अर्जित किया है।
संस्कार हमारे स्वभाव को गढ़ते हैं।
संस्कार क्या हैं, रोजमर्रा अभ्यास से अपने व्यवहार को बदलना ही तो। हम थोड़ा मनुष्य के जैसा व्यवहार करें, मानवीय आचरण करें। किसी को तकलीफ न पहुंचाएं, किसी का धन हरण न करें, किसी को धोखा न दें, यही सब चीजें तो संस्कार से हमारे आचरण में पिरोई जाती हैं। हममें से बहुत सारे लोग अपने समाज, अपने परिवार, अपने निकटम लोगों, संपर्क में आने वाले लोगों से इन सब गुणों को अर्जित कर लेते हैं।
उन गुणों को व्यवहार में उतारने का प्रयास करते हैं। मगर कुछ लोग इन्हें अपना नहीं पाते। अपनाना ही नहीं चाहते शायद। इसलिए कि उन्हें रुक्ष बने रहने, दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में ही सुख मिलता है।
एक छोटा-सा शब्द है कृतज्ञता। इसके लिए किसी साधना की जरूरत नहीं, किसी तपस्या की जरूरत नहीं। बस, किसी के उपकार पर एक शब्द बोल देना भर होता है- धन्यवाद। आभार। मगर वह शब्द बोलना भी बहुतों को अपनी हेठी लगता है। शायद उन्होंने कभी इस पर विचार ही नहीं किया कि एक शब्द बोल देने में उनका क्या खर्च हुआ।
कहा गया है- ‘वचने किम दरिद्रता’। जब कुदरत ने हमें जुबान दी है और बोलने पर कुछ खर्च भी नहीं करना पड़ता, तो फिर जुबान के अच्छे उपयोग में क्या दरिद्रता दिखानी। अच्छा बोल कर आप सुख बांटते और सुख अर्जित करते हैं। मगर जो लोग कृतज्ञता का एक शब्द नहीं बोल सकते, भला उन्हें इस सुख का क्या अनुभव।
दरअसल, हममें से बहुत सारे लोगों में स्थितियों और चीजों के प्रति नकारात्मक भाव भरे होते हैं। उनके देखने की नजर कुछ उल्टा देखती है।
कहा गया है कि कोई भी चीज पूरी तरह नकारात्मक नहीं होती। उसमें कोई न कोई सकारात्मक तत्त्व होता ही है। मगर केवल नकारात्मकता देखने का अभ्यास कर चुके लोग सकारात्मकता को देख ही नहीं पाते। हर चीज में कुछ न कुछ नकारात्मक देख ही लेते हैं। आप जो कुछ कहते-करते हैं, वे उसके उलट ही उसे देखते-व्याख्यायित करते हैं। ऐसे लोगों में कृतज्ञता का भाव कहीं लुप्त हो जाता है।
धन्यवाद, आभार जैसे शब्द बोलने में उनकी जुबान को कष्ट महसूस होता है। वे किसी की तारीफ कर ही नहीं सकते। अगर तारीफ करेंगे भी तो उसकी नकारात्मक की। इस तरह न सिर्फ दूसरों के भीतर, बल्कि अपने भीतर भी लगातार नकारात्मकता का संचार करते रहते हैं।
जब हम किसी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं, तो न सिर्फ उस व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करते हैं, बल्कि खुद भी भर उठते हैं। हमारे स्वभाव में तरलता आ जाती है। हम थोड़ी श्रेष्ठता का अनुभव करने लगते हैं, थोड़ा और श्रेष्ठ बनने का संकल्प हमारे भीतर जागता है। इस तरह हमारा स्वभाव निर्मल होता जाता है।
सकारात्मकता एक अद्भुत ऊर्जा है, वह आपको कुछ नया करने, सतत नया और मानवीय करने का बल देती है, जबकि नकारात्मकता हमारी रचनात्मक ऊर्जा को सोख लेती है। यह बात सभी जानते हैं, मगर कृतज्ञता ज्ञापन जैसे काम में भी कृपणता दिखाते हैं। कृतज्ञता ज्ञापन का भाव आपके भीतर थोड़े-से अभ्यास से आ जाता है। बस उसकी शर्त है कि अपने अहंकार को उतार फेंकें।
कृतज्ञता तो हर किसी के प्रति ज्ञापित की जा सकती है, की ही जानी चाहिए। आप बस या रेल में चल रहे हैं और किसी ने खिसक कर आपके बैठने के लिए थोड़ी जगह बना दी, आप कृतज्ञता से भर जाइए। रोज घर में भोजन करते हैं, जिसने भोजन पकाया, उसके प्रति कृतज्ञता जताइए, उसकी तारीफ कीजिए। देखिए फिर आप कितना बदल जाते हैं।