रोहित कुमार
गीता में कहा गया है कि अपने द्वारा अपना उद्धार करें, अपना पतन न करें, क्योंकि आप ही अपने मित्र हैं और आप ही अपने शत्रु। इसका सीधा संबंध उन विचारों से है जो जीवन को गतिमान बनाए रखने के लिए हमारे मस्तिष्क में उभरते हैं। मनुष्य के मन में हर क्षण विचार उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। व्यक्ति के साथ जिस प्रकार समाज का व्यवहार होता है, उसी के अनुरूप वह स्वयं को गढ़ता चला जाता है।
यानी जैसे विचार, वैसा व्यक्तित्व। यह भी कह सकते हैं कि जैसे व्यक्ति के विचार होते हैं, समाज वैसा ही उसके साथ व्यवहार करता है। यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार ही सबसे उपयुक्त लगते हैं। दरअसल, श्रद्धा के अनुसार मनुष्य के विचार विकसित होते जाते हैं और विचारों के अनुसार ही उसका स्वरूप सामने आता है। आप कह सकते हैं कि मनुष्य के सबसे करीब उसके अपने विचार ही होते हैं, इतने करीब कि उसके हाथ-पैर और आंख-कान जैसे अंग भी इतने करीब नहीं होते।
इन विचारों का व्यक्ति पर प्रभाव क्या होता है तो इसके लिए विचार करना चाहिए कि ‘मैं’ शरीर नहीं हूं, क्योंकि शरीर तो बदलता रहता है और मैं वही रहता हूं। यह शरीर मेरा भी नहीं है, क्योंकि शरीर पर इनसानी वश नहीं चलता अर्थात इसे जैसे रखना चाहें, नहीं रख सकते। जितने दिन रखना चाहें, उतने दिन नहीं रख सकते। जैसा सबल बनाना चाहें, नहीं बना सकते।
अर्थात शरीर पर वश नहीं, विचारों पर हो सकता है। हम विचारों का चयन कर सकते हैं- अच्छे या बुरे। सकारात्मक या नकारात्मक। जिस प्रकार हम स्वयं के लिए अच्छे मित्र साबित हो सकते हैं, उसी प्रकार हमारे अच्छे विचार ही हमारे परम मित्र बन सकते हैं। यदि हमारे विचार अच्छे और शुभ हैं तो उसका अच्छा प्रभाव हमारे जीवन पर निश्चित पड़ेगा। इसी तरह यदि हमारा विचार प्रतिकूल है तो उसका बुरा प्रभाव जीवन पर दिखाई देगा।
बुरे विचार हमारे परम शत्रु बन जाएंगे। हमारे विचार करने के ढंग से ही हमारे साथ भली-बुरी घटनाएं घटित होती रहती हैं। उसी तरह के लोग हमसे जुड़ते या छिटकते चले जाते हैं। जैसे हमारे विचार और धारणाएं होंगी, उसी तरह की चीजों की ओर हमारा व्यक्तित्व आकर्षित होता चला जाएगा। हमारी समस्या, विपदा आदि हमारे द्वारा ही उत्पन्न की गई होती है। इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि शुभ विचार ही हमारी असली संपदा होते हैं।
अच्छे विचारों की अधिकता से ही हमारे जीवन में अच्छाई का संचार होगा। पूरी जिंदगी व्यक्ति अपने विचारों के साथ रहता है। कहना गलत नहीं होगा कि मनुष्य कुल मिलाकर अपने ही विचारों और मान्यताओं का परिणाम होता है। कोई भला कैसे समझे कि कौन से विचार अच्छे हैं और कौन से बुरे। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि जिन विचारों के परिणाम स्वरूप व्यक्ति को दुख और हानि का अनुभव होता है, वे ही अशुभ होते हैं और जिन धारणाओं के परिणाम स्वरूप सुख और लाभ मिलता है, उन्हीं को तो शुभ विचार कहा जाता है।
इसी प्रकार नैतिक और अनैतिक विचार होते हैं। कुछ नीति सम्मत होते हैं तो कुछ विचार अनीति का अवगुण लिए होते हैं। कुछ विचारों के कारण विषाद, क्रोध, जलन और प्रतिशोध उत्पन्न होता है, तो कुछ विचारों के कारण इंसान में प्रेम, सद्भाव और सहयोग की भावना जागृत होती है। सवाल उठता है कि व्यक्ति में बुरे विचार क्यों और कहां से आते हैं।
निश्चित ही कुछ विचार हमारे मन को दुखी करते हैं तो कुछ विचारों से हमारे मन को संबल और आसरा मिलता है। जिन विचारों से मन को ठेस पहुंचती है, वे बाहरी और आंतरिक तौर पर भी व्यक्ति को हानि पहुंचाते हैं और भाव या नीयत को बदलने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिस समय मन में बुरे विचार आते हैं, उसी क्षण तो मनुष्य चिंता, भय और निराशा का अनुभव करता है।
आपके विचार केवल उस चीज की गंध यानी सुगंध या दुर्गंध हैं, जो आप अपने भीतर रखते, महसूस करते हैं। इससे अलग कुछ भी नया नहीं है। यदि आप अपने द्वारा एकत्रित की गई चीजों को अपने मस्तिष्क में नहीं जाने देते हैं, तो आपका मस्तिष्क अभूतपूर्व तरीके से काम करेगा। यह ऐसे काम कर सकता है जिनके बारे में आपने कल्पना भी नहीं की होगी।
दुनिया में भले-बुरे अनुभव होते ही रहते हैं। बहुत बार तो हम अपने ही मन की उलझी हुई कल्पना के अनुसार भले को बुरा और बुरे को भला मान बैठते हैं। हमें यह निश्चय करना है कि किसी ने किसी कारणवश कभी बुराई भी की हो, तो भी उसके लिए विषाद, क्रोध और बदला लेने के विचार को त्याग देना है।
आप कितना भी कुछ भी कर लें, गलत विचार कभी भी कल्याण नहीं कर पाएंगे, बल्कि हानि ही करेंगे। किसी को आघात करने वाले विचारों से न तो आपके हृदय का घाव ही भरेगा और न ही संबंधित व्यक्ति को किसी प्रकार का दंड मिल सकेगा। यह बहुत संभव है कि वह पुन: ज्यादा तीव्र ढंग से हानिकारक प्रतिकार करे और आपको उसका खमियाजा भुगतना पड़े।
क्या यह हमारे लिए बहुत जरूरी नहीं है कि आनंद, दया, प्रेम, सेवा और शांति आदि उत्पन्न करने वाले विचारों को बार-बार मन में लाएं। उन्हें पोसें-पल्लवित करें। सब जानते हैं कि विचारों की शुद्धि ही मन की शुद्धि है। क्या यह आवश्यक नहीं कि मन में से अशुभ एवं बुरे विचारों का नित्य बहिष्कार किया जाए और शुभ यानी अच्छे विचारों का नित्य सत्कार, स्वागत, संरक्षण और वर्धमान किया जाए। क्या यह आवश्यक नहीं कि हम अपने मन के निर्णायक बनें, न कि उसके पराधीन। क्या यह आवश्यक नहीं कि जीवन अच्छे विचारों द्वारा संचालित हो, बुरे विचारों से नहीं।