शोभा सिंह

एक अच्छी-सी निर्जन पहाड़ी सड़क के किनारे बनी बेंच पर बैठी लिख रही हूं। यह मेरी प्रिय जगह है। टहल कर आने के बाद सुस्ताने के लिए। सामने स्टडी सेंटर की ब्रिटिश कालीन भव्य इमारत है। उसी के परिसर में है खूब घना चिनार का पेड़, सिल्वर ओक, क्यारियों में खिले गुलाब, मौसमी फूलों के खुशनुमा ताजे रंगों की छटा, कटे घास की ताजा खुशबू से सिक्त हवा। अजब रूमानियत पैदा करते। पीछे ढलान पर सीधे तन कर खड़े ऊंचे देवदार, जिसकी काही हरियाली स्मृति में निश्चय ही टंग जाएगी। पहाड़ी घरों की छतें धूप में यों चमकती हैं जैसे कोई आईना चमक रहा हो। जिसकी चौंध चांदी का लश्कारा मारती यही रात होने पर रंग-बिरंगे जवाहरात-सी चमकती बत्तियां। खुल जा सिमसिम का खुला खजाना-सी दिखतीं। बुरांश, चीड़ और बान के घने जंगलों से घिरा पहाड़। घाटियां कितनी मोहक लगतीं। वक्ती सौदागरों की हृदयहीन दुनिया से बेखबर, शांति, सहृदयता और उदारता के सौंदर्य का मंत्र हवा में फंूकती अनायास ही खिले नन्हे फूल छोटी-छोटी ख्वाहिशों से ताजादम- सम्मोहित- हम नौसिखिए पर्यटक। ठिठकते ठगे से।

जहां बैठी हूं उसके पास से पहाड़ से नीचे उतरने का शार्टकट रास्ता। अनगढ़ सीढ़ियां या पगडंडी, जिससे सीधे नीचे उतरते जाओ या नीचे सड़क से ऊपर आ जाओ। बस्ती, बाजार, हाट का रास्ता। ऊपर से गहराई में उतर जाने की ख्वाहिश उम्र दबा देती है। अभी तो खूब खींच कर हवा फेफड़ों में भरती हूं। स्फूर्ति का स्रोत नन्ही तितली-सी घुमड़ते मन में ठहर-सी जाती है। स्कूली बच्चे धड़धड़ाते हुए शार्ट कट रास्ते से नीचे उतर रहे हैं। उनकी मिली-जुली आवाजें, चहक घाटी में उतरती जाती है। सामने ढलान पर एक स्त्री घास काट रही है। तेजी से हाथ चलाती। एक जगह घास काट कर ढेर लगाती जाती है। थोड़ी देर बाद देखती हूं। वह स्त्री गायब है। घास के ढेर पर पत्थर सूखी लकड़ी से ढका है। शायद बाद में बोझा बना कर ले जाएगी। दीदी का घर काफी ऊंचाई पर है। चीड़ और देवदार की छोटी-छोटी पत्तियों की नुकीली तीलियां बिखरी रहती हैं। अहाते में पैरों के नीचे चुरमुर। पहाड़ी काले कौए और नन्ही फुर्तीली चिड़ियों की बोली सन्नाटे को तोड़ती है। धूप जब पसरती है। पहाड़ के दूसरे छोरों से कालिमा और धुंध तेजी से अपने को सिकोड़ती समेटती चलती है। दीदी अशक्त है। चलने में तकलीफ के बावजूद घर से बाहर निकलना उसे पसंद है। हवा का देह को सहलाते हुए गुजरना। पहाड़ का क्षण-क्षण बदलता रूप। नरम गरम हठीली धूप, जिसका पीछा करते हम दूर तक चले जाते। घर का हल्का-सा तनाव, जो कभी कामकाज के लिए यों ही पसर जाता है। वह बाहर उड़नछू हो जाता और हम नन्ही बच्चियों से खुश चहकने लगतीं। सौंदर्य की पराकाष्ठा में सबकी याद आ जाती। सब होते तो पहाड़ के आंगन का आलम ही कुछ और होती। चलूं, देर हो गई। दीदी चिंता करेगी।

लौटने का रास्ता घुमावदार। लोग इस रास्ते पर कम ही आते हैं। स्टडी सेंटर से रिहायशी क्वाटर तक का शार्टकट रास्ता। पहाड़ी रूमानियत से भरा। चलते-चलते नन्हे पीले फूलों को तोड़ती आगे बढ़ती हूं। फूल बालों में सज जाते हैं। आगे चलती स्त्री ध्यान खींचती है। पीठ पर बोझ है। गोरा सुंदर चेहरा मुरझाया-सा। एक सहज मुस्कान फेंकती हूं। कहीं दूर से आ रही है। बेंच पर थोड़ी देर सुस्ता लो। वह थोड़ी देर रुक जाती है। हां काम से लौट रही हूं। रास्ते में रुक कर यह चारा भी ले लिया, जिनावर का भी तो पेट भरना है। पानी पिओगी? बोतल में पानी है। एक मिनट वह उसे गौर से देखती है। आप बीना बहिन जी के घर से आगे के तीसरे मकान में आई हैं न। अभी ज्यादा दिन तो नहीं हुए। हां, बहन और जीजाजी के पास आई हूं। तुम बीना बहिन जी के यहां आती हो। उनके घर काम करती हूं जी। ठीक है मेमसाब पानी पिला दें। पानी देते हुए मैंने पूछा- तुम्हारा नाम क्या है। जी कमला। पानी पीकर वह फूर्ती से उठी, पीठ पर बोझ लादा और नमस्ते कह चल पड़ी। मैं पहाड़ी स्त्रियों के जीवट के बारे में सोचती- कितनी मेहनत करती हैं वे। आगे बढ़ चली। घर के पास बड़ी-सी अलमारी पीठ से बांध कर रस्सा कमर से माथे पर कसा हुआ। झुका धीमे सधे कदमों से चलता हुआ मजदूर औसत उम्र का। हाथ की नसें तनी हुर्इं। धीरे-धीरे नजर से ओझल हो गया। हाय, मनुष्य ही बली है। कैसे ऊंचे पहाड़ पर घर और सड़कें बना लिया। मंथन चलता तब तक दीदी ने आवाज लगाई- कहां खोई हो कवित्री जी। घर इधर है।
चाय का वक्त था। चाय की गरम भाप खुश करने के लिए काफी थी। ब्लडशुगर को नियंत्रित करने के लिए भी सुबह शाम की सैर लगभग रोज ही होती। वही निश्चित रास्ता। मैं ज्यादा रिस्क नहीं लेती, जो रास्ता जाना-पहचाना हो वही ठीक। हालांकि मेरी इच्छा होती छोटे बीच के रास्तों से मैं भी धड़धड़ नीचे उतरती जाऊं और बस के उबाऊ इंतजार से बच जाऊं।

उस घुमावदार रास्ते में अपने में खोई चली जा रही थी कि अचानक पीछे से किसी ने शॉल खींची। पलट कर देखा तो मोटा बंदर था। शॉल को पकड़ा, तब तक शॉल तेजी से खिंच कर बंदर के हाथ में। आगे भी दो-तीन बंदर। एक बंदरिया अपने बच्चों के साथ। घिर गई थी। भय की पराकाष्ठा में दिमाग शून्य होने के पहले चैतन्य हुआ। दोनों हाथ उठा कर दिखाया- देखो, कुछ नहीं है खाने के लिए। इतने में पीछे से आवाज आई, चुपचाप खड़ी हो जाइए। अभी भाग जाएंगे। और पता नहीं कमला ने क्या किया, बंदर कूदते हुए घाटी में उतर गए। डर के मारे मेरी सांस उखड़-सी गई। उसने शॉल की मिट्टी झाड़ते हुए मुझे उढ़ा दिया। उसके साथ किनारे लगी बेंच पर बैठ गई। बाप रे बाप, ये बंदर आज तो जान बची। खैर, ये बताओ तुम कहां थीं? इतने दिन दिखी नहीं। हां, एक उदासी-सी उसके खूबसूरत चेहरे पर खिंच आई। उस दिन मुझे लगा, वह गर्भवती है। अरे! ऐसी हालत में बोझ मत उठाया करो। अपने आदमी से कहो, तुम्हारा कुछ काम करे। कमला, क्या तुम्हारा पहला बच्चा है। हां मेमसाब। तब तो तुम्हारा आदमी खुश होगा। पता नहीं पेट में किसका बच्चा। मतलब! एक से ब्याह कर आई थी। मरद पांच हैं। सबसे छोटे से फेरे लिए थे। पेट का बच्चा किसका है, कैसे कहंू। इसी गुस्से में छोटा पीटता है। अपने भाइयों से कुछ नहीं कहता। बड़ा छल हुआ मेरे बापू के साथ। अब तो अपने घर भी नहीं जा सकती। बारी बांध रक्खी है भाइयों ने। कहते हैं, बेटा ही जनना। नहीं तो तेरी खैर नहीं। रात-दिन चिंता खाए जाती है। बेटी हुई तो…।

तुम विरोध क्यों नहीं करती। हां, विरोध किया था। मार-पीट कर कमरे में बंद कर तीन दिन खाना नहीं दिया। रात को शरीर नोंचते। क्या करती, हार गई। जब अपना मर्द ही कुछ नहीं कहता। शरीर घाव से भर गया था। मलहम तक तो जालिम ने लगाया नहीं। पांच की सेवा का हुकुम तो- बस सेवा। छलक आए आंसू पोंछते हुए कहती मां बनने की खुशी नहीं। पता नहीं कैसे आपसे यह सब कह गई। यहां तो ऐसा नहीं होता है। फिर मैंने कहा शायद? हां शादी एक से, पति कई। एक ही घर के मरद। इज्जत तो बनी रहती है। ऊपर से दासी रखने का घमंड। मैंने तो थोड़ी-बहुत पढ़ाई भी की थी। पर कागज कलम से तो इस घर को बैर है। पता नहीं मेरा क्या होगा। अपनी कहानी लिख नहीं सकती। मां-बाप खुश हैं कि लड़की खाते-पीते घर में गई है। दीदी… आपको बड़ी दीदी कहूं? आप ही बताओ, पेट भरना ही क्या सब कुछ होता है?… औरत को संतोष के सिवा कुछ नहीं चाहिए क्या? और संतोष भी कैसा? छल फरेब का। दो-तीन दिन बाद बेंच पर सुस्ताती हुई मिली। कैसी हो, आज इधर कैसे आर्इं। बीना बहन जी के यहां आई थी पैसा लेने। अरे अपने काम की पगार लेने। पूरा पैसा भी नहीं दिया। बाद में देंगीं। अच्छा कमला, तुम्हारे आदमियों ने तुम्हें बाहर काम कैसे करने दिया। हां दीदी, बाहर तब निकली जब इन पर कुछ कर्ज चढ़ गया था। इन लोगों को लगा, मैं काम करके कुछ पैसे ले आऊंगी। बस अब तो बाहर की खिड़की भी बंद जो जाएंगी। घर का काम भी बहुत है। गाय-गोरू, चाय-पानी अलग से। ये लोग तो पीकर टुन्न… फिर चुप हो गई। उसकी बातें सुन मैं सन्न रह गई। ऐसा भी होता है! मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकती हूं। तुम्हारे घर वालों से बात…। नहीं, जो करूंगी अब मैं ही। आपको पहाड़ के जोखिम में नहीं डालूंगी। महिला मंडल… कहते-कहते वह फिर चुप हो गई। मन ही मन लगता कुछ संकल्प ले रही हो। चलूं दीदी। दूर जाना है। देखिए कब भेंट होती है। आपसे बात कर मन हल्का हो गया। हम औरतें तो धरती हैं। धरती मैया में ही समाएंगीं।

उस दिन भारी मन से मैं वापस आई। कई दिन कमला से भेंट नहीं हुई। एक हफ्ते के लिए मुझे भी बाहर जाना पड़ा। लौटते ही कमला याद आई। एक अजब बेचैनी थी। तमाम विसंगतियों के प्रति गहरा आक्रोश था। उसका हाल जानने की तड़प मुझे बीना मैम के घर ले गई। दरवाजे की घंटी संकोच से ही बजाई। एक अपरिचय की प्रश्नसूचक जिज्ञासा। किसके बारे में पूछ रही हैं। वही, जो आपके यहां काम करती थी कमला गोरी-सी। हां, उसने तो काम छोड़ दिया। बच्चा होने वाला था। काम करती थी, लेकिन उसका ध्यान पता नहीं कहां अटका रहता था। अपने छोटे भाई के लिए रोती थी। घर का कर्ज पटाने के लिए वो कहीं बंधुआ मजदूर था। अब वह कैसी है। पता नहीं इन लोगों के बारे में हम क्या जानें। मैं नौकरों को मुंह नहीं लगाती। सिर पर चढ़ जाते हैं। हां वो कहती जरूर थी कि खून की कमी है। उसे वैद्य जी ने बताया था। पता नहीं जिंदा है कि …। अरे नहीं। ऐसा कैसे बोल सकती हैं आप… उसे बच्चा हो गया होगा। मैंने सोचा- जच्चा बच्चा कुशल से हों। नास्तिक होते हुए भी कहीं किसी के लिए मेरे हाथ जुड़ गए। पत्थर में हल्की मिट्टी की परत में भी कैसे नन्हे फूल खिल जाते हैं। हवा संग बिहंसते फूलों में जैसे कमला का चेहरा झांकने लगता है। अरे वाह रे मेरी कल्पना… फिर उसका चिंताकुल चेहरा याद आया। बेटी हुई तो!… अपनी और अपनी नन्ही जान की सुरक्षा कैसे करेगी। वह मां, जिसे नियति ने कोल्हू का बैल बना दिया था। जिसे रूढ़ियों ने आंखों पर हरी पट्टी बांध दी थी। आसपास कांच की बिखरी किरचें थीं। मेरी देह आत्मा को लहूलुहान करती हुई। कमला तुम्हारे बारे मे जान कर रहूंगी। क्या हुआ कमला का… विकल हृदय से शक का धंसा हुआ तीर खींच कर निकालती हूं औ भरपूर ताकत से दूर फेंक देती हूं।
नहींऽऽ अच्छा ही होगा उसके साथ।