उन दिनों गांव में नया-नया नाजम कार्यालय खुला था। अब जमीन से जुड़ी समस्याएं गांव में ही निपटने लगी थीं। नाजम साहब भी लोगों के साथ खूब घुलमिल गए थे। नाजम दफ्तर में कर्मचारी बहुत कम थे। शहर के लोग गांव के दफ्तर में आना नहीं चाहते। दो-तीन लोगों को शहर से गांव के नए दफ्तर में लगाया गया, पर नेताओं ने दबाव देकर उनकी बदली रद्द करवा दी। नाजम साहब को लगा कि ऐसे तो बिना कर्मचारियों के काम करना मुश्किल होगा। उन्होंने कलक्टर साहब से स्थानीय स्तर पर कर्मचारी रखने की मंजूरी ले ली। मगर पांच कोस तक कोई पढ़ा-लिखा आदमी नहीं मिल रहा था।
नाजम साहब को किसी ने बताया कि हीरेन थोड़ा-बहुत पढ़ा-लिखा है। गांव में किसी के घर कागद, चिढ़ी-पत्री आती है तो सभी उसी से पढ़वाते हैं। बस, वह थोड़ा बोलता अधिक है। नाजम साहब को भांपते देर नहीं लगी। कागद पढ़ने वाला आदमी काम कर सकता है। फिर करत-करत अभ्यास वाली बात है। हीरेन को बुलवा भेजा गया। हीरेन कभी-कभी दूसरे गांव भी चिढ़ी-पत्री पढ़ने जाया करता था। जब भी जाता तो अदब से तैयार होता, नए कपड़े पहनता, हजामत बनाता, फिर जाता था।
‘चलो अच्छा हुआ नाजम साहब का बुलावा रात को ही आ गया। अब देखना भाग्यवान। हम ठीक समय पर नाजम साहब के पास पहुंचेंगे।’ ‘टीकली के बापू, नाजम साहब आपसे कागद क्यों पढ़वाएंगे? वो खुद बैरिस्टरी पढ़े होंगे।’‘वह तो जाने से ही पता चलेगा।’‘बंदा हाजिर है नाजम साहब।’ कह कर उसने दो-तीन शेरो-शायरी सुनाई। ‘इतने महीनों में गांव में शायरी सुनाने वाला पहला आदमी देखा है हमने हीरेन। बैठो।’ नाजम साहब बोले।
‘नाजम साहब, हम कभी अपने पिताजी, दादाजी के सामने भी नहीं बैठे, तो आपके सामने कैसे बैठ सकते हैं? खड़े ही अच्छे लगते हैं।’
‘कब तक खड़े रहोगे?’‘जब तक आपके सामने रहेंगे।’‘अच्छा सुनो, हमने तुम्हें इसलिए बुलाया है कि तुम पढ़े-लिखे हो।’‘हां नाजम साहब, हम आठ पढ़े हैं।’ हीरेन चहकता बोला। ‘कुछ पढ़ना हो तो बंदा अभी पढ़ेगा।’ नाजम साहब के चेहरे पर खुशी का भाव साफ-साफ झलकने लगा। ‘हीरेन, हमारे दफ्तर में बाबू की जगह खाली है। हम तुम्हें काम सिखा देंगे। सरकार की पक्की नौकरी है। रिटायर होने के बाद भी घर खर्च के लिए पेंशन मिलेगी। हम जानते हैं, तुम्हारे घर पर रोटी की कोई कमी नहीं है।’‘पर मुझे मेरे बाबा से पूछना पड़ेगा साहब।’‘तुम फिक्र न करो। तुम्हारे बाबा अभी आते ही होंगे। मैंने उनको भी समाचार भेजा है।’
हीरेन को सरकारी नौकरी में मजा आने लगा था। घर की खेती के अलावा हर महीने अच्छी-खासी पगार आने लगी। सरकारी नौकरी में रहते हुए हीरेन ने बेटी का ब्याह कर दिया। दोनों बेटों को स्कूल में पढ़ाने लगा। जिंदगी की गाड़ी पटरी पर दौड़ रही थी। दूर तक गांवों में हीरेन की पैठ जम गई, उसे आदर भाव से देखा जाने लगा। इस बीच हीरेन की पदोन्नति हो गई। बीकानेर शहर में बदली हो गई। वह घर से रोज आने-जाने लगा।
शहर के दफ्तर में अनेक जमींदार, किसान, वकील, दलाल आते रहते। अपने-अपने काम के मुताबिक हीरेन की सेवा करते। इस काम में हीरने के साथ रफीक अहमद भी था। वह भी प्रोन्नत होकर आया था। हीरेन और रफीक भाई की दोस्ती परवान चढ़ने लगी। दोनों मिल कर सभी का काम करते और ऊपर की कमाई भी।
मगर हीरेन और रफीक के बीच बरसों दांत काटी रोटी रहने के बाद अचानक अनबन हो गई। दोनों की राहें विपरीत हो गर्इं। एक समय था जब उनके बीच अच्छी दोस्ती थी। दोनों के घरों में एक जैसा सामान जाता। शहर में रहते हुए भी दोनों ने पास-पास जमीन खरीदी थी। दफ्तर में दोनों की दोस्ती की दुहाई दी जाती थी। लेकिन अब दोनों के बीच क्या हुआ, कोई नहीं जानता था। हीरेन और रफीक भी अपनी टूटी दोस्ती के बारे में किसी के आगे कुछ नहीं बोलते। फिर दोनों रिटायर हो गए। हीरेन के दोनों बेटे रमेश और मोहन पढ़-लिख कर नौकरी करने लगे। जिस दिन हीरेन रिटायर हुआ, उसी दिन दोनों ने गांव के स्कूल में अध्यापक की नौकरी शुरू की थी। शहर में नौकरी करते हुए हीरेन ने कभी शहर में मकान नहीं बनवाया।गांव में ही रहने लगा था।
शहर की लड़की से शादी होने के कारण रमेश ने अपनी बदली शहर में ही करवा ली। हीरेन के लाख मना करने के बाद भी रमेश और उसकी पत्नी गांव में रहने को राजी नहीं थे। मोहन और हीरेन गांव में रहते। मोहन स्कूल से आने के बाद पिता की सेवा और गायों को संभालता, खेत का काम भी देखता। हीरेन की इच्छा थी कि मोहन की शादी जल्दी हो जाए, अच्छी-सी बहू आ जाए तो घर संभाल लेगी। जिंदगी की गाड़ी अच्छे तरीके से चल रही थी। रमेश के समाचार आते रहते थे।
एक दिन घर के बरामदे मे मोहन ने पिताजी को चाय पकड़ाते हुए कहा- ‘बाबूजी गांव में क्या पड़ा है? साधन-सुविधाएं तो कुछ भी नहीं हैं। मैं अपनी बदली बीकानेर करवा लूं, आप और हम शहर में रहेंगे।’‘बेटा, गांव में शुद्ध हवा है, खर्चा कम लगता है, हमारी प्रतिष्ठा है, बिरादरी के लोग भी सुख-दुख में साथ रहते हैं, जैसी सुविधा चाहिए गांव में भी कर सकते हैं। शहर में रहने के लिए घर भी नहीं है। पहले तो घर बनवाना पड़ेगा, फिर शहर की जिंदगी साथ नहीं निभाती बेटा, गांव में जिंदगी कोई खरीद नहीं सकता। आदमी के भाव नहीं लगते, अनमोल है। मोल-भाव की होती है शहरी जिंदगी बेटा।’
‘आप ठीक कहते हैं बाबूजी।’ फिर मोहन ने हिम्मत जुटाई, ‘बाबूजी अब आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती। रमेश भइया भी यहां नहीं रहते। घर संभालने वाला कोई नहीं है। बाबूजी, मां मुझे हमेशा कहती थी कि वह बहुएं भी नौकरी वाली लाएगी।’ फिर वह धीरे-धीरे बोला- ‘बाबूजी मेरे साथ की एक मैडम है, मेरी ही उम्र की है। उसके पिताजी हमारे ही महकमे में बड़े अफसर हैं। आप उनसे बात करो तो…।’थोड़े दिनों में दोनों परिवारों की सहमति से मोहन की भी शादी बड़े धूमधाम से शहरी मैडम से हो गई। अब हीरेन बहुत प्रसन्न था। शादी के कुछ दिनों बाद ही हीरेन के न चाहते हुए भी उसे मोहन के साथ शहर जाना पड़ा।
इस बीच हीरेन को लगा कि शहर की जमीन भी दोनों बेटों मे बांट देनी चाहिए। मौके की जमीन थी। उसने दोनों बेटों को बताया- ‘साथ वाली जमीन रफीक अहमद की है। तीन सौ दो गज जमीन हमारी है और तीन सौ दो गज जमीन रफीक की है।’ थोड़े दिनों बाद हीरेन की मृत्यु हो गई। फिर रमेश और मोहन ने जमीन बांटने की कवायद शुरू की। रमेश चाहता था कि उसे एक सौ बावन गज जमीन मिले और उधर मोहन की घरवाली चाहती थी कि पिताजी की सेवा हमने की है तो एक सौ बावन गज जमीन हमें मिलनी चाहिए।
एक दिन सुबह-सुबह दोनों भाई जमीन पर कब्जा जमाने की नीयत से अपने-अपने ससुराल वालों के साथ पहुंच गए। दोनों भाई एक-दूसरे को भला-बुरा कहने लगे। मोहन भला था, पर उसकी पत्नी तेजतर्रार थी। बैठ गई जोर-जोर से चिल्लाती हुई- ‘हमने पिताजी की सेवा की है, दो गज अतिरिक्त जमीन हमारी होगी।’ नौबत हाथापाई तक आ गई। लोग इकट्ठा होने लगे। पड़ोस में रफीक भाई पेड़ों में पानी दे रहे थे। बाहर आए और बोले- ‘अरे भाई लोगो, इस कालोनी में और लोग भी रहते हैं। आपको शर्म नहीं आती बाप के मरते ही लड़ते हुए।’
पर वे नहीं माने। लड़ते-लड़ते शाम होने लगी। दोनों में से कोई दो गज जमीन कम लेने को तैयार नहीं था। रफीक भाई ने दोनों को अपने पास बुलाया। चाय-पानी पिलाया। नाश्ता करवाया। वहां भी दोनों दो गज जमीन के लिए लड़ते रहे। बच्चों की लड़ाई देख उसे हीरेन की बहुत याद आई। रफीक भाई ने शादी नहीं की थी। वे सोचने लगे कि इन बच्चों को मेरे और हीरेन के गहरे रिश्तों की जानकारी नहीं है। जब रमेश के बाद मोहन पैदा हुआ तो हीरेन से उन्होंने आग्रह किया था कि रमेश को वह गोद लेना चाहता है, लेकिन हीरेन ने साफ मना कर दिया था- ‘रफीक, अगर तुम हिंदू होते तो मैं फिर भी विचार कर सकता था, पर अपने बेटे को मुसलिम बना दूं, यह बात मुझे कतई मंजूर नहीं।’
उसके बाद से ही दोनों के रास्ते जुदा हो गए। रफीक भाई को हीरेन की यह बात नागवार लगी। दोस्ती में जाति बड़ी नहीं होती और फिर मेरे पीछे कोई नहीं है। अब रफीक जैसे हीरेन को सामने खड़ा देख रहे थे। मन ही मन बातें करते रहे, ‘बोलता क्यों नहीं। मैं तेरे रहते जो नहीं कर सका, वह आज करूंगा। आज तुम यहीं खड़े रहना! अब एक की जगह मैं दोनों लड़कों को गोद लूंगा और तुम देखते रहना। मेरी कब्र को मिट्टी ये दोनों ही देने आएंगे।’ सोचते-सोचते रफीक भाई जोर से चिल्लाए- ‘हीरेन भाई…’
रमेश और मोहन ने रफीक भाई को पकड़ लिया- ‘क्या हो गया आपको। आपकी तबीयत ठीक नहीं है। चलो अस्पताल चलते हैं।’रफीक भाई खुद को संभालते हुए बोले- ‘मैं ठीक हूं। हीरेन मेरा भाई था।’ रफीक ने दोनों बेटों को शांत करते हुए हीरेन और खुद के रिश्तों के विषय में विस्तार से बताया। रफीक भाई के आंसुओं से जमीन भीग चुकी थी। रमेश और मोहन दोनों भाई भावुक हो उठे। अपने पिताजी की दोस्ती की बात सुन कर रमेश और मोहन रफीक भाई के पैरों में नतमस्तक हो गए। दोनों ने एक साथ कहा- ‘अंकल जी, अब तो जो फैसला आप कर दोगे, हमें मंजूर होगा।’
रफीक भाई भीतर से हीरेन को याद करते हुए कहने लगे- ‘पहले अपनी बहुओं से भी पूछ लीजिए।’उन्होंने माथे पर पल्लू ढंकते हुए कहा- ‘आप हमारे ससुर समान नहीं, अब तो आप ही ससुरजी हैं, आपका हर फैसला हमें स्वीकार होगा।’ रफीक भाई ने फैसला सुनाया- ‘ये दोनों जमीनें बराबर-बराबर नाप की हैं, हमने साथ-साथ ली थी। तुमको दो गज जमीन अधिक चाहिए थी, मैं तुम दोनों को बराबर-बराबर जमीन देता हूं। झगड़ा खतम करो। तुम अब हीरेन के बेटे नहीं, मेरे बेटे हो। यह पकड़ो संपत्ति के बंटवारे के कागज। ये दोनों प्लाट तुम दोनों के होंगे।’फिर जब रफीक भाई का इंतकाल हुआ, तो उनके सभी क्रियाकर्म रमेश और मोहन ने मिल कर किया।