ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ भारत का स्वाधीनता संघर्ष इतिहास की कुछ बड़ी घटनाओं और तारीखों से आगे उस निर्मिति की दास्तान है, जिसमें भारतीय प्रतिभाएं विभिन्न क्षेत्रों में जहां अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही थीं, वहीं दूसरी तरफ वे भारतीय समाज को स्वराज प्राप्ति के लिए जागरूक कर रहे थे। दिलचस्प यह कि यह दास्तान तकरीबन सौ साल लंबी है। इसलिए आज जब हम इनके बारे में पढ़ते-समझते हैं तो हम कहीं न कहीं आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत की निर्माण प्रक्रिया से भी अवगत हो रहे होते हैं।

श्यामजी कृष्ण वर्मा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का एक ऐसा नाम है, जिसने देश की आजादी तो नहीं देखी पर इसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया।

श्यामजी का जन्म 4 अक्तूबर, 1857 को गुजरात प्रांत के मांडवी कस्बे में श्रीकृष्ण वर्मा के यहां हुआ था। यह कस्बा अब मांडवी लोकसभा क्षेत्र में विकसित हो चुका है। उन्होंने 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिए कार्य करना शुरू कर दिया था। मध्य प्रदेश के रतलाम और गुजरात के जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के कई कार्य किए। महज बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। श्यामजी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।

वे संस्कृत समेत कई और भारतीय भाषाओंं के ज्ञाता थे। उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने उन्हें आक्सफोर्ड में अपना सहायक बनने के लिए निमंत्रण दिया था। श्यामजी ऐसे प्रथम भारतीय थे, जिन्हें आक्सफोर्ड से एमए और बार-एट-ला की उपाधियां मिलीं थीं।

1897 में वे पुन: इंग्लैंड गए। 1905 में वे लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक समाचारपत्र ‘द इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ निकाला, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर “इंडियन होम रूल सोसायटी” की स्थापना की। उस समय यह संस्था क्रांतिकारी छात्रों के जमावड़े के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा श्यामजीके प्रिय शिष्यों में थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। वीर सावरकर ने श्यामजी का मार्गदर्शन पाकर लंदन में रहकर लेखन कार्य किया था।

30 मार्च, 1930 को जिनेवा के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। उनका शव अंतरराष्ट्रीय कानूनों के कारण भारत नहीं लाया जा सका और वहीं उनकी अंत्येष्टि कर दी गई। आजादी के लगभग 55 साल बाद 22 अगस्त 2003 को श्यामजी और उनकी पत्नी की अस्थियों को जिनेवा से भारत लाया गया और फिर उनके जन्म स्थान मांडवी ले जाया गया। उनके सम्मान में सन 2010 में मांडवी के पास ‘क्रांति तीर्थ’ नाम से एक स्मारक बनाया गया। भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया और कच्छ विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रख दिया गया। आज जिस राष्ट्रवादी दर्शन की बात काफी होती है, श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इस दर्शन को कभी उस प्रेरणा के तौर पर आगे बढ़ाया था, जिसमें न देश के भीतर बल्कि दुनिया में कहीं भी रहने वाले भारतीय अपने देश और संस्कृति को लेकर फख्र महसूस करें।