जन्म : 14 अप्रैल, 1919
निधन : 23 अप्रैल, 2013

अपनी आवाज का दीवाना बनाने वाली शमशाद बेगम उन लोगों में से थीं, जो जीते-जी गुमनाम हो गए, मगर उनके कारनामे सिर चढ़ कर बोलते हैं। उन्होंने करीब पैंतालीस साल तक गाया और फिर एक लंबी गुमनामी की जिंदगी जीती रहीं। पर उनकी आवाज की खनक लोगों के मन में गूंजती रही। चालीस के दशक में शमशाद बेगम ने पार्श्व गायन में अपना जादू बिखेरा। सुरैया, नूरजहां, केएल सहगल जैसी शख्सियतों में वे भी शामिल हो गर्इं। उन्होंने सिने जगत में पार्श्व गायन को एक नई पहचान दिलाई।
गायन में रुचि
अविभाजित भारत के लाहौर में जन्मी शमशाद बेगम बचपन से ही गीत गाने की शौकीन थीं। शादी-विवाह जैसे कार्यक्रमों में जब लोकगीत गाए जाते थे तब वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। उनकी आवाज में ऐसी कशिश थी कि हर कोई आकर्षित हो जाता था। पांच साल की उम्र में शमशाद अपने स्कूल में लोकप्रिय हो गर्इं। जब भी वे कक्षा में गीत गातीं थीं तो कक्षा की बाकी लड़कियां कोरस के रूप में उनका साथ देतीं। माता-पिता के विरोध के बावजूद उन्होंने संगीत के प्रति अपनी चाह और ललक को नहीं छोड़ा और आज वे सुरों की मल्लिका कही जाती हैं। शमशाद बेगम ने हिंदू युवक गणपतलाल से शादी की। विभाजन के बाद शमशाद बेगम मुंबई आकर रहने लगीं।
’ शमशाद के चाचा और उनके दोस्त उन्हें गाने के लिए प्रेरित करते रहते थे। एक दिन वे उन्हें ग्रामोफोन कंपनी ले गए। उसी कंपनी में शमशाद की मुलाकात प्रसिद्ध संगीतकार गुलाम हैदर से हुई। उन्होंने जब शमशाद की आवाज सुनी तो उन्होंने बिना कुछ सोचे-समझे बारह गानों के लिए अनुबंध कर लिया। गुलाम हैदर ने कहा, ‘शमशाद की आवाज संगीत रसिकों की सुध-बुध भुला कर उन्हें दूसरी दुनिया में पहुंचा देगी।’ वे उनकी आवाज से बहुत प्रभावित हुए।
रेडियो के साथ
शमशाद बेगम ने आल इंडिया रेडियो पर भी अपनी आवाज का जादू फैलाया। उनकी सुरीली आवाज हर घर तक पहुंची। रेडियो के साथ उन्होंने दो साल तक काम किया। शमशाद की आवाज निर्माता दलखुश एम. पंचोली को बहुत पसंद आई और उन्होंने उन्हें फिल्मों में गाने का न्योता दिया। गुलाम हैदर ने शमशाद की आवाज का इस्तेमाल ‘खजांची’ और ‘खानदान’ जैसी फिल्मों में किया। 1944 में गुलाम हैदर की टीम के साथ शमशाद बेगम मुंबई आ गर्इं। मुंबई आने के बाद उनकी पहली फिल्म थी ‘तकदीर’, जो 1943 में रीलीज हुई थी। इस फिल्म के सभी गाने शमशाद ने गाए थे।
फिल्मी सफर
’1940 से 1960 तक शमशाद बेगम की आवाज हर नई फिल्म के गीतों में गूंजती रही। उनकी प्रसिद्धि इतनी हो गई थी कि जब बाकी गायक और गायिकाओं को पचास या सौ रुपए एक गाने का पारिश्रमिक मिलता था तब शमशाद को एक गाने के एक हजार या डेढ़ हजार रुपए मिलते थे।
’ शमशाद बेगम की आवाज रवेदार थी। जो भी उनकी आवाज को सुनता, उसमें मशगूल हो जाता है। गायकी में सांसों के उतार-चढ़ाव की अहम भूमिका होती है। शमशाद की सांसों पर अच्छी पकड़ थी। गुलाम मोहम्मद के संगीत निर्देशन में फिल्म ‘रेल का डिब्बा’ का गीत ‘ला दे मोहे बालमा आसमानी चूड़ियां’ एक ऐसा गाना था, जिसकी चौदह पंक्तियां शमशाद ने एक ही सांस में गाई थीं। मोहम्मद रफी ने इस गीत में उनका साथ दिया था।
निधन
पद्म भूषण से सम्मानित शमशाद बेगम का निधन 23 अप्रैल, 2013 को हो गया। ल्ल