दुनिया आज परमाणु हथियारों के ढेर पर बैठी है। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) के मुताबिक परमाणु हथियारों की संख्या के मामले में रूस सबसे आगे है। 1949 में पहली बार परमाणु परीक्षण करने वाले रूस के पास 8,000 परमाणु हथियार हैं। 1945 में पहली बार परमाणु परीक्षण के कुछ ही समय बाद अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु हमला किया था। सिप्री के मुताबिक अमेरिका के पास आज भी 7,300 परमाणु बम हैं। यूरोप में सबसे ज्यादा परमाणु हथियार फ्रांस के पास हैं। परमाणु बम बनाने की तकनीक तक फ्रांस 1960 में पहुंचा। एशिया और दुनिया की सबसे बड़ी थल सेना वाले चीन की असली सैन्य ताकत के बारे में बहुत पुख्ता जानकारी नहीं है। लेकिन अनुमान है कि चीन के पास 250 परमाणु बम हैं।

चीन ने 1964 में पहला परमाणु परीक्षण किया था। ब्रिटेन ने पहला परमाणु परीक्षण 1952 में किया। इस समय उसके पास 225 परमाणु हथियार हैं। अपने पड़ोसी पाकिस्तान के पास 100-120 परमाणु हथियार हैं। 1998 में परमाणु बम विकसित करने के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ है। लेकिन डर है कि अगर अब इन दोनों पड़ोसियों के बीच लड़ाई हुई तो वह परमाणु युद्ध में बदल सकती है। 1974 में पहली बार और 1998 में दूसरी बार परमाणु परीक्षण करने वाले भारत के पास 90-110 परमाणु बम हैं। भारत का वादा है कि वह पहले परमाणु हमला नहीं करेगा। साथ ही भारत का कहना है कि वह परमाणु हथियारविहीन देशों के खिलाफ भी इनका प्रयोग नहीं करेगा। 1948 से 1973 तक तीन बार अरब देशों से युद्ध लड़ चुके इजरायल के पास करीब 80 नाभिकीय हथियार हैं। जब ऐसे हालात हों तो इसकी सुरक्षा भी बहुत जरूरी है जिससे ये गलत हाथ न लग जाए।

परमाणु सुरक्षा की ओर ले जाने वाला अंतरराष्ट्रीय कानून प्रणाली बड़े धीमी गति से आगे बढ़ रहा है। जबकि आतंकी नाभकीय खतरा पूरे विश्व पर मंडरा रहा है। मूल नाभिकीय सामग्री भौतिक संरक्षण संधि को 1979 में 152 देशों ने स्वीकार किया था और यह संधि 1987 में लागू हो गई थी। इसमें तय किया गया था कि नाभिकीय सामग्री और परमाणु केंद्रों के संरक्षण की पूरी जिम्मेदारी उठाने वाले देश नाभिकीय सामग्री के अंतरराष्ट्रीय परिवहन के दौरान भी उसके संरक्षण की पूरी जिम्मेदारी उठाएंगे। जैसे-जैसे अपने परमाणु कार्यक्रमों के विकास में लगे देशों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे दुनिया भर में नाभिकीय सामग्री का परिवहन भी बढ़ रहा है। इस वजह से यह जोखिम भी बढ़ता जा रहा है कि नाभिकीय सामग्री संभावित आतंकवादियों के हाथ न लग जाए।

2005 की संधि में परमाणु सामग्री के घरेलू उपयोग, उसके भंडारण और उसके परिवहन से जुड़े नियमों का विस्तार किया गया था। विभिन्न देशों के बीच इस संधि को लागू करने और इसके नियमों के पालन पर नियंत्रण रखने की जिम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को सौंप दी गई थी। लेकिन कुछ देशों ने इसे अपने संप्रभु अधिकारों पर आघात माना। इस वजह से ही इस संधि में नए संशोधन करने के लिए दो तिहाई सदस्य देशों का समर्थन प्राप्त होने में ज्यारह वर्ष का लंबा समय लग गया। लेकिन पिछले मार्च के अंत में वाशिंगटन में आयोजित नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलन से पहले ही इन नए संशोधनों के लिए आवश्यक 102 सदस्य देशों का समर्थन मिल गया। उल्लेखनीय है कि रूस ने इस शिखर सम्मेलन में भाग नहीं लिया था।

अब दुनिया को सुरक्षित बनाने की दिशा में कुछ कदम और आगे बढ़े हैं। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के मुताबिक पिछली आठ मई को नाभिकीय सामग्री भौतिक संरक्षण संधि में नए संशोधन लागू हो गए हैं। इसके अनुसार विभिन्न देश परमाणु केंद्रों और नाभिकीय सामग्री को पूरी तरह से संरक्षित करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य होंगे। नाभिकीय सामग्री की चोरी या तस्करी जैसे किसी भी विध्वंसकारी काम को अपराध माना जाएगा और अब से इससे जुड़ी जानकारियों का अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के माध्यम से ही आदान-प्रदान किया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के महानिदेशक यूकिया अमानो ने छह मई को वियना में इस नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की शुरुआत करते हुए कहा कि यहां तक पहुंचने में उन्हें लगभग ग्यारह साल लगे हैं।

आतंकवादी अगर परमाणु पदार्थों का उपयोग करके कोई हमला करेंगे तो उसके काफी विनाशकारी परिणाम निकल सकते हैं, लेकिन अब इस संधि के लागू होने से ऐसे हमलों का खतरा कम होगा और दुनिया पहले से कहीं अधिक सुरक्षित हो जाएगी। इन संशोधनों के लागू होने के बाद नाभिकीय संधि और मजबूत हुई है और अब वह परमाणु आतंकवाद और परमाणु सामग्रियों की तस्करी को रोकने में और अधिक कारगर सिद्ध होगी। अमेरिका द्वारा करवाए गए कई नाभिकीय सुरक्षा शिखर सम्मेलनों और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी की सक्रिय भागीदारी की वजह से इन संशोधनों को लागू किया गया। इससे आतंकवाद से प्रभावित देशों को राहत मिलेगी। साथ ही परमाणु आतंक के खतरे से दुनिया और भी सतर्क हो जाएगी।

हमें यहां इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही वर्ष पहले तक इस मुद्दे पर सदस्य देशों के बीच भारी मतभेद थे। भारत के हुक्मरानों के नाभिकीय ऊर्जा प्रेम के पीछे एक लंबा इतिहास रहा है। आजादी के बाद से ही देश में बहस चल रही है कि ऊर्जा सुरक्षा के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर जोर देना उचित है या फिर शोध और अनुसंधान ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों पर केंद्रित होना चाहिए। प्रसिद्ध मार्क्सवादी इतिहासकार और वैज्ञानिक डीडी कोसाम्बी शुरू से ही इस मत के थे कि भारत जैसे देश में जहां यूरेनियम की उपलब्धता निहायत ही कम है, वहां नाभिकीय ऊर्जा पर जोर निश्चय ही विकसित देशों पर निर्भरता को बढ़ाएगा।
उनका मानना था कि भारत में वर्ष के अधिकांश समय में सूर्य की किरणें पर्याप्त मात्र में आती हैं और यहां एक विस्तृत समुद्री तट है इसलिए शोध और अनुसंधान की दिशा नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोतों जैसे- सौर ऊर्जा, समुद्र लहर ऊर्जा, ज्वार-भाटों से उत्पन्न ऊर्जा, पवन-ऊर्जा इत्यादि पर होना चाहिए। लेकिन हमारे शासकों को कोसांबी की बजाय भाभा के विचार रास आए, जिनका मत था कि शोध नाभिकीय ऊर्जा की दिशा में होनी चाहिए। इसके फलस्वरूप अब यह आलम है कि नवीकरणीय ऊर्जा विभाग रस्मअदायगी का अड्डा बनकर रह गया है। शोध और अनुसंधान के लिए आबंटित फंड का अधिकांश हिस्सा नाभिकीय शोध पर खर्च होता है। ऐसा नहीं कि हमारी सोच नाभिकीय ऊर्जा का विरोधी है। दरअसल नाभिकीय ऊर्जा का उपयोग शांतिपूर्ण कार्यों के लिए हो, यही उद्देश्य होना चाहिए।

ऊर्जा का उपयोग किसी भी रूप में हो सकता है, लेकिन उसके केंद्र में मुनाफा नहीं होना चाहिए। इसके पीछे मानव हित होना चाहिए। यही इसकी सुरक्षा और उपयोगिता की गारंटी है। यह आतंकवादी संगठन के हाथ न लग जाए, इसपर कड़ी नजर होनी चाहिए। इसीलिए नाभिकीय ऊर्जा अधिक सुरक्षा और सावधानी की मांग करती है। इसके सुरक्षा और सावधानी के और उन्नत तरीके और उपाय विकसित करने के लिए अभी बहुत अधिक शोध की आवश्यकता है। इसमें कोई शक नहीं कि देश के सर्वांगीण विकास के लिए नाभिकीय ऊर्जा बहुत आवश्यक है। जिसका मकसद देश की व्यापक आबादी के जीवन स्तर में सुधार लाना है। लेकिन यह तभी होगा जब इसका उपयोग केवल शांतिपूर्ण कार्यों के लिए किया जाए। धमकाने के लिए नहीं।