हाल में, गाजियाबाद में एक सोसायटी में चल रहे क्रेच में साठ साल के वृद्ध ने चार साल की बच्ची से जो दरिंदगी की, उसने उच्चतम न्यायालय की चिंता को गहरा दिया। उच्चतम न्यायालय ने 11 जनवरी को बच्चों के साथ बढ़ रहे यौन शोषण पर चिंता जताते हुए सरकार से कहा है कि ऐसे अपराधों में शामिल लोगों को कठोर सजा देने पर विचार करना चाहिए। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि कानून में संशोधन कर बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामले में अलग अपराध की श्रेणी में डालना चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसे अपराधों के मद्देनजर खासतौर पर ‘बच्चे’ शब्द की व्याख्या करने का संसद विचार कर सकती है, और ऐसे अपराध के लिए कठोर सजा के प्रावधान पर सोच सकती है। बीते दशकों में बच्चों से दुष्कर्म और यौन शोषण की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े देखे जाएं तो 2012 में 38,172 नाबालिग दुष्कर्म की शिकार हुई थीं और 2014 में यह आंकड़ा बढ़ कर 39,423 पहुंच गया है। अध्ययन बताते हैं कि भारत में 2014 में होने वाली दुष्कर्म की घटनाओं में शामिल नब्बे प्रतिशत परिचित ही हैं। सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। इसमें सबसे संवेदनशील वर्ग बच्चों का है। बाल यौन अत्याचार एक बेहद गंभीर विषय है, लेकिन उसके प्रति असंवेदनशीलता इसी बात से जाहिर होती है कि देश की राजधानी में ‘प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रेन ऑफ सेक्सुअल ऑफेंसेज एक्ट’ के तहत गठित विशेष अदालत को समाप्त कर दिया गया है।

मई 2012 में, राज्यसभा और लोकसभा ने इस एक्ट को पारित किया था। इसका मकसद बताया यौन अत्याचार और शोषण से बच्चों की रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान मजबूत करना था। इस एक्ट का मौजूदा रूप स्कूल परिवार में बच्चों पर हुए यौन अत्याचार के मामले में स्कूल प्रबंधन को कहीं से भी जिम्मेदार नहीं ठहराता था। हैरानी की बात यह है कि जिन नौनिहालों की सुरक्षा का दायित्व परिवार और समाज का है, वही उनका शोषण करते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक 65 प्रतिशत बच्चे स्कूलों में यौन शोषण का शिकार होते हैं। बारह से कम आयु के 41.7 प्रतिशत बच्चे यौन उत्पीड़न से जूझ रहे हैं।

बाल शोषण आधुनिक समाज का एक विकृत और खौफनाक सच्चाई बन चुकी है। दरअसल बच्चों का समूह समाज का सबसे असुरक्षित तबका है। उनका लालन-पालन ऐसे माहौल में होता है जहां वे अपने आसपास के लोगों पर, जिन्हें वे घर और स्कूल में देखते हैं, भरोसा करने लगते हैं। विश्वास का यही रिश्ता यौन अनाचार करने वालों के लिए रास्ते खोल देता है।

एक सत्य और भी है कि आमतौर पर अभिभावकों को इस तथ्य को अंदाज ही नहीं होता है कि उनके बच्चे का यौन शोषण उनका कोई अपना ही कर रहा है। ज्यादातर मामलों में देखा गया है कि करीबी रिश्तेदार और जान-पहचान के लोग ही बच्चों या बच्चियों के यौन उत्पीड़न के दोषी होते हैं। ऐसे में बच्चों को डरा-धमका कर या परिवार की मान-प्रतिष्ठा की दुहाई देकर मुंह बंद रखने को मजबूर किया जाता है।

इसका कारण हमारा सामाजिक ढांचा है, जहां प्रतिष्ठा के लिए जान की कीमत भी कम आंकी जाती है और अपने झूठे सम्मान को बचाए रखने के लिए अभिभावक अपने बच्चों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों को सामने लाने से हिचकते हैं। जबकि यह प्रत्यक्ष रूप से उन लोगों के लिए बढ़ावा है, जो नन्हे मासूमों को अपने शोषण का शिकार बनाते हैं। दिल्ली सरकार ने बाल यौन अत्याचार को लेकर जागरूकता पैदा करने के लिए हिंदी पोस्टरों की शृंखला जारी की है, जिसमें अच्छा स्पर्श, बुरा स्पर्श आदि को रेखांकित करते हुए बच्चों को समझाने की चेष्टा की गई है।

इस संबंध में अभिभावकों और अध्यापकों का दायित्व सर्वप्रथम और सर्वाधिक है। अभिभावकों का दायित्व बनता है कि वे अपने बच्चों को एक ऐसा पर्यावरण घर पर उपलब्ध कराएं कि उनके बच्चे उनसे खुलकर बात कर सकें और अपने साथ होने वाली हर घटना को बेखौफ बता सकें। इसके साथ ही साथ हर विद्यालय में ऐसे सलाहकारों की आवश्यकता है जो बच्चों के मनोभावों को पढ़ सकें और उन्हें उत्पीड़न के स्पर्श को आरंभ में ही समझा सकें।

साप्ताहिक रविवारी के अन्य लेख यहां पढ़ें