अभी हाल में एक समाचार आया था कि जापान में ‘कृत्रिम मेधा’ के आधार पर विकसित एक आभासी पात्र ‘शिबुया मीराई’ तोक्यो का आधिकारिक रूप से नागरिक बन गया है। कितना विस्मयकारी है कि प्रकृति की व्यवस्था को चुनौती देते हुए विशुद्ध मशीनी पात्र आज हमारे समाज का नागरिक है। निश्चित रूप से इस शोध में लगे शोधकर्ता बधाई के पात्र हैं, जो सात साल के इस पात्र को मानवीय क्रियाविधियों के एक बड़े हिस्से को सिखा चुके हैं। यह वर्षों की मेहनत और लगन के कारण ही संभव हो पाता है, क्योंकि ‘कृत्रिम मेधा’ के क्षेत्र में मशीन को मनुष्य के सापेक्ष विकसित करने के लक्ष्य के साथ शोध और विकास किया जाता है। इसकी शुरुआत एलन ट्यूरिंग (1950) के ‘कंप्यूटिंग मशीनरी ऐंड इंटेलिजेंस’ शीर्षक वाले उस शोधपत्र से हुई थी, जिसमें सवाल उठाया गया था कि ‘क्या मशीन भी सोच सकती है?’ इसमें किसी मशीनी प्रक्रिया में समयानुकूल फैसला करने की क्षमता का विकास करना सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है। गूगल एक ऐसी कार के विकास पर काम कर रहा है, जो बिना चालक के शहर के व्यस्ततम इलाकों में भी अपने लक्ष्य की ओर जा सकेगी। इसमें संवेद्रों (सेंसर) की भूमिका अधिक होती है। हालांकि ‘कृत्रिम मेधा’ के शोध और विकास में जापान पहले से भी बहुत कुछ कर चुका है, जैसे होटल के स्वागतकर्ता और रेलवे स्टेशन की सुरक्षा की जिम्मेदारी रोबोट वहां दस-पंद्रह साल पहले से उठा रहे हैं, लेकिन मनुष्य के एक साधन के रूप में न कि ‘शिबुया मीराई’ की तरह खुद मनुष्य बन कर।

जापानी शब्द ‘शिबुया मीराई’ का आशय ‘भविष्य’ है। अब अगर मानवता और सभ्य समाज की नागरिकता का यही भविष्य है, तो एक बार सोचने की जरूरत है कि विकास के ऐसे चरण में हम कहां तक आ गए हैं? हालांकि कृत्रिम मेधा या रोबोटिक्स से जुड़े शोधों का बहुत बड़ा लाभ समाज को ही होगा, जिसमें सुरक्षा, परिवहन, चिकित्सा, प्रशासन आदि क्षेत्रों में अभूतपूर्व लाभ मिलेगा। इनसे तीव्र गति, समय की बचत, तटस्थ और ईमानदार प्रशासन की अपेक्षा स्वाभाविक ही है। लेकिन यहां इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि शहर के किसी चौराहे पर यातायात व्यवस्था को कुशल प्रोग्रामिंग द्वारा रोबोट से नियंत्रित तो किया जा सकता है, लेकिन इन्हीं चौराहों पर कई बार नियम और व्यवस्था से परे किसी मरीज को भी सड़क पार करना पड़ता है और इसमें मशीनी प्रोग्रामिंग की नहीं, मानवीय संवेदना की आवश्यकता होती है। आगे मशीन तो निरपेक्ष हो सकती है, लेकिन मशीनी प्रक्रिया में शामिल मानव और पूंजी से निरपेक्षता की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए। बहरहाल दुनिया के डिजिटल विकास में गूगल, माइक्रोसॉफ्ट और फेसबुक जैसी कंपनियों का अब पूरा ध्यान रोबोटिक्स की तरफ लगा है और ‘शिबुया मीराई’ के विकास में भी माइक्रोसॉफ्ट का सहयोग रहा है। जाहिर है इनका ये रुझान नए उपभोक्ता वर्ग की तलाश के लिए ही है।

किसी जीवंत समाज में विकास और परिवर्तन आवश्यक चरण होते हैं। लेकिन ऐसे परिवर्तन सभ्यता की गतिकी और मानवता को चुनौती देने लगें, तो लोगों को रुक कर एक बार अवश्य सोचना चाहिए कि हमने तकनीकी विकास से क्या खोया और क्या पाया है। अभी कुछ महीनों पहले ‘ब्लूवेल’ नामक एक डिजिटल खेल भारत सहित कई दूसरे देशों में एक महामारी की तरह फैला था और अनेक बच्चों ने इस कुचक्र में फंस कर जान गंवाई थी। ध्यान रहे कि ऐसे प्रयासों में संबंधित विकासकर्ताओं का उद्देश्य यह कतई नहीं रहा होगा कि बच्चे उसे खेल कर अपनी जान दें, लेकिन उसे लाभ जुटाऊ बनाने के चक्कर में इस बात पर विचार भी नहीं किया गया होगा कि अपने क्रम में ‘ब्लूवेल’ प्राणांतक भी हो सकता है। क्योंकि इन उद्यमों की प्राथमिकता अधिकाधिक पूंजी कमाना होता है, न कि मानवीय मूल्यों की चिंता करना। इस क्रम में सेल्फी की प्रवृत्ति भी एक प्रकार का तकनीक केंद्रित मनोरोग ही है, जो समय और स्थान की स्वीकार्यता से परे जाकर लोगों में एक होड़ के रूप में तेजी से फैल रहा है। ध्यान रहे कि वर्ष 2014 से 16 के बीच सेल्फी से होने वाली मौतों में भारत विश्व के देशों में सबसे ऊपर था और अब तक देश की सौ से अधिक मौतों की जिम्मेदार सेल्फी की प्रवृत्ति है।

अकेले गूगल को देखा जाए तो इसका पूरा व्यवहार हिंदी फिल्मों के उस जमींदार की तरह है, जो गांव के किसानों से उनकी अपनी जमीन पर तैयार फसल का आधा हिस्सा अपनी प्रभुता के आधार पर छीन लेता है। यहां अंतर यह है कि फिल्मी पटकथाओं में तो कोई नायक आता है, जो किसानों को जागरूक कर देता है, लेकिन देश के वर्तमान डिजिटल संसार में इंटरनेट उपभोक्ताओं को गूगल जैसे जमींदार का यह व्यवहार एक सुविधा की तरह सामने आता है। इस क्रम में न सिर्फ गूगल, बल्कि प्राय: इंटरनेट केंद्रित कंपनियां प्रयोक्ताओं के संसाधन का उपयोग तो अपने लिए करती ही हैं, साथ ही इन्हीं माध्यमों से हमारे निजी जीवन की अभिरुचियों और प्राथमिकताओं में भी दखल दे रही हैं। ब्राउजर से लेकर, सर्च इंजन तक और ब्लॉगिंग से लेकर आनलाइन अनुवाद प्रणाली तक सबमें उपभोक्ताओं के संसाधन का दोहन हो रहा है। इस क्रम में यह रामचरित मानस के चरित्र ‘बाली’ की तरह दिखता है, जिसके समक्ष आने पर लोगों का आधा बल ‘बाली’ को मिल जाता था। लेकिन आज स्थिति यह है कि हम उपभोक्ता इन कंपनियों से जुड़ने के समय आने वाली शर्तों को पढ़ते तक नहीं हैं। हालांकि इसमें भी इनकी चालाकी होती है और अपनी शर्तों के विवरण को इतना विस्तृत रखते हैं कि आसानी से पढ़ा और समझा न जा सके। देश में तो शायद ही कोई अपना खाता बनाने से पहले इन शर्तों को पढ़ता होगा। इंटरनेट जगत के नियामक की तरह काम करने वाली इन कंपनियों के अधिकांश सर्वर अमेरिका में हैं, जो देश के सामरिक खतरे के साथ साइबर अपराध की रोकथाम में भी समस्याजनक है।

इसमें ‘इंटरनेट तटस्थता’ की पहल भी उपभोक्ताओं के एक नए तरह की घेरेबंदी का प्रयास है, जिसमें कंपनियों के मुक्त चयन की स्वतंत्रता सीमित होगी और उपभोक्ताओं की कथित युगीन स्वतंत्रता भी प्रभावित होगी। यह एक तरह से इंटरनेट प्रयोक्ताओं को बंधक बना कर धीरे-धीरे लूटने का उपक्रम है। यहां यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट को संदर्भित किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि वर्तमान इंटरनेट प्रयोक्ताओं में से एक तिहाई सिर्फ बच्चे हैं। यहां चिंता यह है कि इंटरनेट की नियामक कंपनियों को अन्य किसी चीज से अधिक लाभ की चिंता है। इंटरनेट पर उपलब्ध तंत्र नशा, अपराध और यहां तक की ‘ब्लूव्हेल’ की स्थिति में मौत तक बेचते हैं और भारत जैसे कमतर जागरूक समाज में लोग सुविधा के नाम पर सब कुछ खरीदने की होड़ में शामिल हैं। विकास के क्रम में तकनीक को साधन होना चाहिए न कि साध्य।

अगर तकनीक साध्य होने लगी तो सबसे बड़ा खतरा मानवता पर आएगा, जहां प्रेम, दया और करुणा जैसे समाज के मानवीय गुण व्यक्ति से बाहर होंगे। ऐसे में तकनीक सिर्फ हिंसक परिदृश्य में सामने आएगी। देश में जिस तेजी से मोबाइल के माध्यम से इंटरनेट का विस्तार हुआ है, उसने इस कुचक्र को और बढ़ाया है। निस्संदेह आज हम जहां खड़े हैं, वहां से पीछे मुड़ना न तो सहज होगा और न ही व्यावहारिक। ऐसे में यह आवश्यक है कि इन कंपनियों को अपने स्थानीय समाज, भाषा, संस्कृति और कार्य-व्यापारों के अनुकूल होने को विवश किया जाए और ऐसा वे करेंगे भी, क्योंकि भारत का बहुसंख्य निम्न मध्यवर्गीय उपभोक्ता अब उनकी प्राथमिकता में है। गौरतलब है कि महज कुछ नौकरियों के लालच में उनको हमारे संसाधनों के मुक्त दोहन और देश को आर्थिक रूप से नुकसान पहुंचाने की छूट नहीं होनी चाहिए। अगर यह जारी रहा तो भारतीय बहुलता एक आरोपित केंद्रीयता में परिवर्तित होगी, साथ ही समाज का बड़ा वर्ग मुख्यधारा से पीछे छूटता चला जाएगा। ऐसे में जापान के मशीनी मनुष्य से इतर यहां मनुष्य को समाज का मुख्यधारा का नागरिक बनाने का प्रयास होना चाहिए।