कोचिंग हब बन चुका राजस्थान का शहर कोटा अब आत्महत्याओं का गढ़ बनता जा रहा है। अपनी आंखों में चमकते सपने लेकर आए छह दर्जन से अधिक प्रतियोगी पिछले पांच साल में अपनी जीवन-लीला समाप्त कर चुके हैं। कोचिंग का खर्च, एकाकी जीवन, नसतोड़ पढ़ाई, छात्रावासों में घटिया खाना जैसी कई वजहें सामने आई हैं, जिसकी वजह से छात्र आत्महत्याएं कर रहे हैं। कोचिंग के कारोबारी और प्रशासन अब भी इस मामले में कुछ खास सोचने को तैयार नहीं हैं। वे अभी यही मान कर चल रहे हैं कि जो बच्चे अपनी जान दे रहे हैं, वे अपनी कमी से ऐसा कर रहे हैं।
आइआइटी और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में चयन कराने की गारंटी का वादा करने का यह धंधा करीब हजार करोड़ से रुपए से अधिक का हो चुका है, जबकि देशभर में कोचिंग उद्योग का कारोबार चौबीस हजार करोड़ रुपए का है। इन कोचिंगों के कारोबार में बड़े-बड़े धन्नासेठ, राजनेता और नौकरशाह तक शामिल हैं।
भारत में कोचिंग से अगर कोई शहर प्रसिद्ध हुआ है तो वह है-कोटा। लेकिन अब बदनाम भी वह इसी वजह से हो रहा है। स्थानीय मीडिया भी केवल तभी हरकत में आता है जब कोई छात्र या छात्रा आत्महत्या कर लेती है, इससे पहले वह भी सोया रहता है। इतनी आत्महत्याएं होने के बाद राज्यपाल ने स्थानीय प्रशासन से रिपोर्ट तलब की है, लेकिन इसका कोई हल निकल पाएगा, ऐसा संभव नहीं लगता।
स्थानीय पुलिस सूत्रों के मुताबिक पिछले पांच साल में करीब छह दर्जन छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या की है। इसी साल अट्ठाईस प्रतियोगियों ने आत्महत्या की। नवंबर में एक ही रोज दो छात्राओं ने आत्महत्या की। कोटा शहर अब बदनामी की ओर बढ़ रहा है। असल में, इस शहर में रह रहे करीब दो-ढाई लाख छात्र यहां के कोचिंगों, छात्रावासों और दुकानदारों के लिए महज ‘कमाई के स्रोत’ हैं। शासन और प्रशासन को भी केवल अपने राजस्व से मतलब है, बाकी छात्र कैसे और किन परिस्थितियों में रह रहे हैं, यह जानने-समझनेवाला कोई नहीं है। किसी भी निजी छात्रावास को रहने के नजरिए से देखा जाए तो वहां बहुतेरी खामियां हैं। जिस तरह से छात्रावास बन रहे हैं या रात-दिन लग कर ताबड़तोड़ बनाए जा रहे हैं, उसमें कोई योजना नहीं है। रहने की व्यवस्था कहने भर की होती है। साफ-सफाई का बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता। सामान्य कमरों का किराया ही पांच हजार होता है। लेकिन, देखने में वे दड़बे जैसे ही हैं। खाना-पीना, रहने का असर प्रतियोगियों पर पड़ता है। खाने के नाम पर अपौष्टिक खाना दिया जाता है, जबकि महज खाने के लिए पांच हजार से छह हजार रुपए प्रतिमाह हर प्रतियोगी से लिया जाता है।
आत्महत्याओं के मामले में कोचिंग संचालक अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। उनका कहना है कि वे प्रतियोगियों को अपने कोचिंग में केवल पढ़ाने के लिए बुलाते हैं, बाकी तो वे ज्यादा समय छात्रावास में ही रहते हैं। छात्रावास संचालक इसका ठीकरा कोचिंग संचालकों पर फोड़ते हैं। एक छात्रावास संचालक ने बताया कि असल में कोचिंग वालों ने शिक्षा को शुद्ध व्यवसाय बनाने और उससे पैसा और सिर्फ पैसा बनाने की मशीन बना दिया है छात्रों को। लोग अपने बच्चों को यहां छोड़ कर चले जाते हैं। वे भेड़चाल में चल कर आए जा रहे हैं, जिसके चलते यहां दो ढाई लाख छात्र और छात्राएं हो गई हैं।
वे लफेयर जैसी बातों के लिए कोचिंग वालों के पास कोई कार्यक्रम नहीं है। वे केवल नई इमारतें बनाते चले जा रहे हैं। अब कोचिंग उतना ही उद्योग हो चला है, जितना कोई और। सो कोचिंग वाले एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा कोचिंग संस्थान खोलने की जुगत में लगे रहते हैं। कुछ संस्थान तो राजीव नगर से हटकर कुन्हाड़ी जैसे अविकसित जगहों पर भी पर कोचिंग खोल रहे हैं। इस लेखक ने खुद जाकर देखा कि छात्रावासों में कमरे के नाम पर दड़बे बनाए गए हैं।
छात्रावास की बनावट बाहर से देखने पर आकर्षित करने वाली लग सकती है, पर अंदर से देखने पर कमरे इतने छोटे हैं कि उसमें सवा दो गुणे छह फुट का पलंग और पढ़ने की एक मेज जितनी जगह होती है। प्रकाश के लिए छोटी खिड़की या बहुतों में वह भी नहीं है। नालियों से उठती बदबू उन्हें छात्रावासियों को परेशान करती रहती है। वे छात्रावास तो बदल सकते हैं पर हर मेस में खाना करीब एक जैसा ही होता है। उनकी भोजनसूची भी एक जैसी है। आमतौर पर मेस चलाने वाले बाजार में मिलने वाली सबसे सस्ती सब्जियां और दूसरे सामान ही उपयोग में लाते हैं। दूध और मट्ठे के नाम पर पानी ही होता है, लेकिन पैसा पूरा वसूला जाता है। सस्ती और पानीदार सब्जी रोजाना मेसों में देखी जा सकती है।
हालांकि, विशेषज्ञ मानते हैं कि कोचिंग या छात्रावास संचालकों के अलावा बच्चों के अभिभावक भी कम जिम्मेदार नहीं है। अभिभावक भी अपने बच्चे की योग्यता-अयोग्ता परखे बगैर भेड़चाल में अपने बच्चों को लाकर भर्ती करा देते हैं और फिर जल्दी में पेइंग गेस्ट (पीजी) के तौर पर या निजी छात्रावास में छोड़कर लौट जाते हैं। किस कोचिंग, किस छात्रावास में बच्चे पढ़ रहे हैं या कैसे रह रहे हैं, इसकी भी खबर उन्हें नहीं रहती। कोचिंग संचालकों का मानना है कि छात्र उन्नीस घंटे छात्रावास में रहते हैं, इसलिए कोचिंग से अधिक जिम्मेदारी छात्रावास संचालकों की बनती है। जब भी बात उठती है तो दोनों आरोप-प्रत्यारोप में मशगूल हो जाते हैं।
असल में होता यह है कि कोचिंग में प्रवेश लेते ही छात्र साल भर की फीस भर देते हैं। और एक तरह से वे कोचिंग संस्थानों के बंधुआ होकर रह जाते हैं। फीस भी इतनी भारी-भरकम होती है कि कहीं चयन न होने पर ज्यादातर छात्र दोबारा तैयारी करते हैं। उनके दिमाग पर खर्च का दबाव रहता है, साथ ही पढ़ाई का तनाव भी। अगर इस समस्या को दूर करना है तो प्रशासन को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी।
कोचिंग से जुड़े छात्रों की आत्महत्या ने मीडिया और प्रशासन दोनों को ही कुछ कदम उठाने के लिए बाध्य किया है। मीडिया, जो इससे जुड़ी खबरों को तीसरे पेज पर सूचना देकर अपना दायित्व निभाता रहा है, अब पहले पेज पर छाप रहा है।
स्थानीय मीडिया को इन कोचिंग संस्थानों से इतने विज्ञापन मिलते हैं कि वे छात्रों की समस्या को उठाना जरूरी नहीं समझते। उनकी आंख तभी खुलती है जब कोई छात्र खुदकुशी कर लेता है। छात्रों ने बताया कि छात्रावास संचालक और कोचिंग संचालकों ने इन्हें ताकीद कर रखा है कि वे किसी भी बाहरी व्यक्ति या प्रेस के लोगों से नहीं मिलेंगे, न कुछ बताएंगे। मीडिया वालों से उन्हें दूर रखने की सारी जुगत की जाती है। जो छात्र इसका उल्लंघन करता है उसके साथ सौतेला बर्ताव किया जाता है। जिन चीजों पर समय रहते बात होनी चाहिए, उन्हें छिपा कर बीमारी को बढ़ाने के लिए ये कोचिंग संस्थान पूरी तरह जिम्मेदार हैं। सवाल है कि अगर किसी गलत बात को गुप्त रखा जाएगा तो समाधान कैसे होगा?
कोटा में बढ़ती आत्महत्या के सिलसिले में जिला प्रशासन ने कुछ सुझाव दिए जरूर हैं, लेकिन उसका पालन कितना हो पाएगा, इसे भविष्य ही बताएगा। मोटे तौर पर जो सुझाव सामने आए हैं, उनमें हफ्ते में एक दिन का अवकाश निश्चितरूप से देना, महीने-पंद्रह दिन में काउंसलिंग करना, पुलिस, प्रशासन और मनोवैज्ञानिकों का पैनल गठित करना, आउटडोर गेम होना, निजी छात्रावासों में खाने-पीने की चीजों की निगरानी करना, कोचिंग संस्थान के अभिभावकों के साथ महीने में एक बार बैठक करना आदि शामिल है। यह सुझाव भी आया है कि छात्र अगर कोचिंग बदलना चाहे तो उसे फीस वापस दी जानी चाहिए। लेकिन, यह सब सुझाव है, कोचिंग संस्थान, स्थानीय प्रशासन और छात्रावास-स्वामी इसे कितना मानते हैं, उस पर कितना अमल करते हैं? यह देखना बाकी है।
बताया गया कि कोचिंग में पढ़ने वाले सत्तर फीसद बच्चे तनाव के शिकार हैं। कोचिंग में आने वाले अधिकांश छात्र दसवीं करने या उससे पहले से ही एडवांस कोर्स के नाम से इनमें प्रवेश लेते हैं, साथ में सीबीएसई बोर्ड में नाम लिखा लेते हैं। कोचिंग संस्थानों और स्थानीय सीबीएसई बोर्ड के कई स्कूलों की मिलीभगत है।
छात्र पढ़ते हैं कोचिंग में लेकिन उनकी हाजिरी उनकी कक्षाओं में भी दर्ज होती रहती है। छात्र दोहरे तनाव के शिकार होते हैं। कोटा में सब यही सोच कर आते हैं कि उनका प्रतियोगी परीक्षा में चयन हो जाएगा। लेकिन जब वे विफल होते तो कई ऐसे हैं, जो उस स्थिति का सामना नहीं कर पाते। यही तनाव उनके जान लेने की वजह बन जाती है। एक आंकड़ा बेहद चौंकाने वाला है। वास्तव में जितने छात्र कोटा में हर साल आते हैं, उनमें इंजीनियरिंग में सफलता की दर दस प्रतिशत और मेडिकल में पांच प्रतिशत ही होती है। बाकी प्रतियोगियों को खाली हाथ ही वापस लौटना पड़ता है। देखा जाए तो कोटा के कोचिंग एक तरह की मृगछलना हंै, जो छात्रों को सफलता के लिए ललचाती रहती है। लेकिन, यह सफलता रूपी पिपासा कुछ ही लोगों की बुझ पाती है।
कोचिंग संस्थानो को तो अपने फलने-फूलने से मतलब है। वे एक के बाद विशालकाय इमारतें बनाने में लगे हैं। कमाई अंधाधुंध है। इसलिए, उन्हें सोचने की फुरसत नहीं है। स्थानीय शासन और प्रशासन भी उनकी कमाई में शामिल है। इस लेखक ने कई छात्र-छात्राओं से बात की तो उन्होंने बताया कि छात्रावासों में काउंसिलिंग की व्यवस्था होनी चाहिए। कइयों का यह भी मानना था कि स्कूलों में पढ़ाई का स्तर ठीक न होने की वजह से कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है। अगर स्कूलों में पठन-पाठन का स्तर सुधर जाए तो कोचिंग की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। कुछ छात्रों का सुझाव था कि आइआइटी में चांस दो से बढ़ाकर तीन किए जाने चाहिए।
देर से खुली नींद:
दे र से ही सही केंद्र सरकार ने कोटा में प्रतियोगी छात्रों की बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति का अध्ययन करने के लिए छह सदस्यीय समिति का गठन किया है। इस समिति की अगुआई आइआइटी रुड़की के निदेशक मंडल के अध्यक्ष प्रोफेसर अशोक मिश्रा कर रहे हैं। समिति ने अपनी प्राथमिक सिफारिशें मानव संसाधन और विकास मंत्रालय को सौंप दी है। समिति को इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं के मौजूदा स्वरूप के साथ कोचिंग संस्थानों की जरूरत और उनमें पढ़ाई के पैटर्न की समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई है। समिति ने प्रवेश परीक्षाओं का पैटर्न बदलने के साथ ही कोचिंग संस्थानों की निगरानी के लिए ‘ऑल इंडिया काउंसिल फॉर कोचिंग फॉर एंट्रैंस एग्जाम’ (एआइसीसीईई) के गठन का सुझाव दिया है।
एक अरसे से कोचिंग सस्थाओं के नियमन की मांग की जा रही थी, लेकिन सरकार की नींद अब जाकर टूटी है, जब दर्जनों बच्चे काल के गाल में समा चुके हैं। कोटा में हाल ही में जिले के खाद्य सुरक्षा प्रकोष्ठ ने 228 मेसों और फूड सेंटरों पर खाने की गुणवत्ता खराब पाई। कोचिंग संस्थानों का हाल और बुरा है। यहां छात्रों के अनुपात में संसाधनों की कमी है। कक्षाओं में इतनी अधिक भीड़ होती है कि छात्र ठीक से बैठ नहीं पाते। ऐसे में समझा जा सकता है कि वे किस हालात में तैयारी कर रहे हैं। सबसे खतरनाक पहलू यह है कि कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों की गहन जानकारी देने के बजाय शार्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हैं।
स्कूल-कॉलेज में होने वाली पढ़ाई पर घटता विश्वास और ऊंचे नंबर की बढ़ती चाहत ने देश भर में ट्यूशन और कोचिंग के धंधे को गरमा दिया है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक शहर हो या गांव तकरीबन तेइस फीसद छात्र प्राथमिक शिक्षा से ही ट्यूशन ले रहे हैं। अगर स्कूल-कालेजों में समुचित शिक्षा की व्यवस्था हो जाए तो कोचिंग की बढ़ती प्रवृत्ति पर लगाम कसना आसान होगा।