सुधांशु गुप्त

वह ऑफिस से बाहर निकल आया। बाहर आकर उसने सोचा है, ‘आज भी कुछ नहीं हुआ।’ पिछले पांच दिन से बराबर यही स्थिति है। कहीं से कुछ नहीं हो रहा। पर कुछ न कुछ तो करना होगा। ऐसे कैसे काम चलेगा? आज वह घर कह कर आया था कि अवश्य कुछ न कुछ करेगा। सारे घर वाले इंतजार कर रहे होंगे। पता नहीं खाना भी…
‘लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूं। कोई एकमात्र मेरी जिम्मेदारी तो नहीं है। घर में और भी तो सदस्य हैं। आज कोई और कर लेगा… और फिर ऐसा तो नहीं है कि मैंने कोशिश नहीं की… कई बार नहीं भी होता। कोई जरूरी तो नहीं कि आप किसी से ‘कु’ करने के लिए कहें और वह तत्काल ही आपके कहे अनुसार ‘कु’ निकाल कर आपको दे दे… फिर भी, रमेश से और पूछना था। अच्छा लड़का है। सारी स्थितियों को समझता है, मना नहीं करता। पर, न जाने क्यों मन नहीं हुआ। सबसे कहता फिरेगा कि आज फिर उसने मुझसे ‘कु’ करने के लिए कहा था। अपने से तो भई मना नहीं होता। पता नहीं बेचारे की क्या स्थिति हो। हम तो भई को-आॅपरेटिव आदमी हैं… घटिया आदमी…
चलो छोड़ो आज घर पर ही देखेंगे।
वह बस स्टॉप पर खड़ा है। रह रह कर उसके भीतर एक ही सवाल उठ रहा है ‘कुछ हुआ क्या’, घर पहुंचते ही पिता जी उससे पूछेंगे और वह किसी अपराधी की भांति शर्म से गर्दन झुका लेगा। पिताजी समझ जाएंगे कुछ नहीं हुआ। लो आज भी कुछ नहीं हुआ। पिछले बीसियों साल से ऐसे ही चल रहा है। कभी-कभी लगता है, मानो हम किसी बहुत बड़ी घटना का इंतजार कर रहे हों। उस बड़ी घटना के, बड़े परिवर्तन के बाद सब कुछ बदल जाएगा और हम छोटे-छोटे सवालों से इस बात का जायजा लेने की कोशिश करते रहते हैं कि ‘कु’ होने में अभी कितना समय है। वह सोच रहा है।
बस अभी तक नहीं आई।
बचपन में पिताजी बताया करते थे कि उनके हाथ में बड़ा आदमी बनने की लाइन है। जब बड़े आदमी बन जाएंगे तो उनके पास बहुत पैसा होगा, सम्मान होगा। लोग उनकी इज्जत करेंगे। दिल्ली में एक बहुत बड़ा मकान होगा उनका। उसमें एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनाएंगे। खूब पढ़ेंगे… खूब लिखेंगे… किसी को छोटी-मोटी नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं रहेगी।
तब हम बच्चे थे। अब बड़े और समझदार हो रहे हैं। पर कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि सिवाय इन सपनों पर विश्वास करने के कोई और चारा नहीं रह जाता। हम सब बैठ कर बातचीत करते हैं। चार सौ गज के प्लॉट पर एक बहुत बड़ा मकान बनाएंगे, उसमें आठ कमरे होंगे- एक पिताजी के लिए, एक मां के लिए, एक बहन के लिए और एक सब भाइयों के लिए।
‘लेकिन दीदी की तो शादी हो जाएगी’, सबसे छोटा भाई बोलेगा।
‘तो क्या हुआ, कमरा तो उसका भी होगा।’ पिताजी बहन का पक्ष लेंगे।
हां, सचमुच कमरा तो उसका भी होना चाहिए… और एक ड्राइंग रूम होगा। उसमें शाम के वक्त बहसें हुआ करेंगी- साहित्य पर, कला पर, दर्शन पर, इतिहास पर, सामाजिक समस्याओं पर… और भी दुनिया भर की बातें हुआ करेंगी उस ड्राइंग रूम में। सचमुच मजा आ जाएगा।
बस आ गई।
वह उसमें चढ़ गया और एक कोने में खड़ा हो गया। सोचने लगा।
सपने आदमी को सचमुच बहुत बड़ी ताकत देते हैं। एक आदमी था। नाम था उसका चार्ल्स फूरिये। वह दुनिया का पहला आदमी था, जिसने समाजवाद की बातें कीं। वह चाहता था दुनिया में हर आदमी बराबर हो। न कोई बड़ा, न कोई छोटा, न अमीर, न गरीब, हर स्तर पर आदमी बराबर हो, कहीं कोई मतभेद नहीं होना चाहिए। हर आदमी काम करे, हर आदमी खाए, सब सुख से रहें, इस सपने को साकार करने के लिए उसने एक योजना बनाई। उसने एक निश्चित क्षेत्र तय किया कि इस क्षेत्र में इतने आदमी एक परिवार के रूप में रहेंगे। सब वहीं पर काम करेंगे, वहीं पर खाएंगे… वहीं पर सोएंगे। बच्चों को भी काम की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं रखा गया। सफाई की सारी व्यवस्था बच्चों के जिम्मे सौंपी। कुल मिलाकर धरती पर ही स्वर्ग बनाने का इरादा था उसका। पर इस योजना को कार्यरूप देने के लिए उसे बहुत से पैसों की आवश्यकता थी। पैसा कहां से आए? वह बेचारा गरीब आदमी था। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। उसने एक सपना बुना कि एक होटल में किसी दिन उसे एक बहुत अमीर आदमी मिलेगा, जो उससे कहेगा, निराश क्यों होता है चार्ल्स फूरिये, ये ले करोड़ों रुपए और धरती पर स्वर्ग बनाने का अपना सपना साकार कर ले।
उसे धीरे-धीरे विश्वास हो गया कि वह व्यक्ति जरूर आएगा। वह रोज एक होटल में जाकर एक मेज के सामने बैठ जाता और उस आदमी का इंतजार करता। समय बीतता गया। जैसे-जैसे समय गुजरता गया, उसका विश्वास और दृढ़ होता गया और जिंदगी के आखिरी दिनों में तो उसे बिल्कुल ऐसा लगने लगा था जैसे उसका सपना पूरा होने में अब कुछ ही दिन शेष हैं। वह मर गया। लेकिन उसने सोलह वर्ष तक एक होटल में रोज एक मेज के सामने बैठ कर उस आदमी का इंतजार किया, जो उसके सपने को पूरा करता। कितना लंबा इंतजार था। सोलह वर्ष! बेचारा चार्ल्स फूरिये! लोग उसे काल्पनिक समाजवादी कहते हैं।
बस एक झटके के साथ रुक गई। सपना टूट गया। अभी घर नहीं आया। लाल बत्ती है। यहां लाल बत्तियां बहुत हैं। अगर पंद्रह मिनट का सफर है तो तीस मिनट लगेंगे। पंद्रह मिनट लालबत्ती के। अगर लाल बत्तियां न हों, तो आदमी अपना सफर जल्दी तय कर ले। एक घंटे के बजाय चालीस मिनट में ही घर पहुंचा जा सकता है। चालीस मिनट में… घर… कुछ हुआ क्या… ऐसे ही ठीक है।
बस चल पड़ी।
एक आदमी था। एक दिन वह फिल्म देखने गया। फिल्म की हीरोइन उसे बहुत पसंद आई। उसने फिल्म दोबारा देखी, तिबारा देखी, बार-बार देखी। हीरोइन के सौंदर्य का नशा उसके दिमाग पर पूरी तरह छा गया। वह उस हीरोइन से प्रेम करने लगा। लेकिन उसे पाने का, उसके पास कोई चारा नहीं था। लेकिन वह निराश नहीं हुआ। उसने, उसकी एक मूर्ति बनाई और उसे इस हद तक सच माना कि सपना साकार हो उठा। वह उसकी मूर्ति के पास बैठ कर हंसता, उससे बातें करता, तरह-तरह की बातें उसे सुनाता। धीरे-धीरे वह उस मूर्ति में इतना खो गया कि उसे बाहरी दुनिया की कोई सूझबूझ ही नहीं रही। बाद में उसने उस मूर्ति से विधिवत विवाह किया। उस विवाह में काफी लोग भी उपस्थित हुए। समय बीतता गया। उसे पत्नी के साथ बच्चे की आवश्यकता महसूस हुई। उसने एक अन्य मूर्ति बना ली। एक लड़की की। उसके एक बच्चा हो गया। इस तरह उसने दो बच्चे और पैदा किए। अब वह अपनी पत्नी और तीनों बच्चों के साथ बड़े सुख के साथ रहता। बहुत से लोग उससे मिलने आते। कभी-कभी वह मिलने वाले लोगों से यह कह कर मना भी कर देता कि आज मेरी पत्नी की तबीयत ठीक नहीं है या वह इस वक्त आराम कर रही है…
… वह भी एक ऐसी ही मूर्ति बनाएगा उसकी।… हां, क्या नाम है उसका… पूनम…. हां वह भी पूनम की एक मूर्ति बनाएगा। लेकिन उसे मूर्ति बनानी तो आती ही नहीं, फिर? देखेंगे… सीखेंगे… उसके लिए मूर्ति बनाने की भी क्या जरूरत है… पू…नम।
बस एकदम रुक गई। खाली हो रही है। घर आ गया। उसके भीतर वही वाक्य, जो कुछ देर पहले मर गया था, फिर उभर आया है, ‘कुछ हुआ क्या?’
वह जोर से कहेगा, नहीं, कुछ नहीं हुआ।
वह धीमी-धीमी चाल से घर की ओर जा रहा है। आज उसका मन नहीं हो रहा कि वह रोज की तरह पिता के सामने आकर शर्मिंदा हो। आज वह पिता को जाकर कुछ ऐसा जवाब देगा, जिसकी उन्हें कतई आशा न हो। वह पहले भी ऐसा कई बार सोच चुका है। पर ऐसा कभी हो नहीं पाता। न जाने पिता के सामने जाते ही उसे क्या हो जाता है। वह जानता है। वह कुछ नहीं बोल पाएगा।
लेकिन आज उसने तय कर लिया है कि आज हर रोज की तरह नहीं होगा। पिता पूछेंगे, ‘कुछ हुआ क्या?’ वह कहेगा, ‘हां, हुआ क्यों नहीं। बहुत कुछ हुआ। बस में आते समय देखा कि एक मोटरसाइकिल, जिस पर एक लड़का-लड़की बैठे थे, मिनी बस से टकरा गई। दोनों बुरी तरह घायल हो गए। लड़की बेहोश होने से पहले। कह रही थी, डार्लिंग आय एम डार्इंग… आई एम डार्इंग डार्लिंग।…. एयर इंडिया का एक प्लेन अटलांटिक महासागर में गिर पड़ा… तीन सौ उनतीस लोग मारे गए…. एक भी लाश नहीं मिल पाई… डीटीसी की एक बस में बम फट गया… पांच आदमी मारे गए… और सरकार ने कहा कि उग्रवादियों से सख्ती से निपटा जाएगा… या वह मजाक में कह देगा कि तीसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया है…
‘पागल तो नहीं हो गया। शाम का खाना नहीं है घर में… सुबह कहा था न, कुछ करके लाने के लिए’, पिता किताब में से गर्दन निकाल कर कहेंगे।
‘कमाल है, प्लेन में तीन सौ उनतीस लोग मर गए और आप खाने की बात कर रहे हो।’ आज फिर कैलेंडर पर ‘एफ’ (फाका) डाल देंगे।
‘बहुत बकवास करने लगा है। छह सौ रुपल्ली की नौकरी क्या करने लगा, सारे घरवालों को खरीद लिया। ठीक है, अपना इंतजाम अलग कर लो। घर का खर्च मैं चलाऊंगा।’ ‘ठीक है, अगर ऐसा है तो मैं आज से यह घर छोड़ रहा हूं।’ वह भी कह देगा। देखी जाएगी। अब झगड़ा ही सही।
वह तेज चाल से चलने लगा। घर और उसके बीच की दूरी निरंतर कम होती जा रही थी।
वह घर में घुसा है। घर में एकदम चुप्पी छाई है। तनाव साफ नजर आ रहा है। पिताजी कुर्सी पर बैठे हैं। कोई किताब पढ़ रहे हैं। बहन पलंग पर लेटी है। मां झुंझलाई-सी इधर-उधर घूम रही है। एक भाई जमीन पर ही सपाट लेटा है। एक दो इधर-उधर टहल रहे हैं। उसके घर में घुसते ही सब सचेत हुए हैं। वह जानता है, सबके मन में एक बात होगी। शायद कुछ हुआ हो। सबके चेहरों पर आशा की एक पतली-सी झिल्ली उभर आई है। पिताजी पढ़ने में व्यस्त हैं। घर से एकदम बेफिक्र किताब में डूबे हैं। उससे किसी ने कुछ नहीं पूछा। उसने किसी से कुछ नहीं कहा। चुपचाप हाथ का लिफाफा रैक में रख दिया। वह कुर्सी में धंस गया। पिताजी को शायद पता नहीं चला कि वह आ गया है।
वह उठ कर रसोई में आ गया। मां उसके पीछे-पीछे आ गई।
‘कुछ हुआ क्या?’ उसने धीरे पूछा।
‘होगा कहां से, चौबीस घंटे तो किताब में मुंह गड़ाए बैठे रहते हैं। किताबों से ही पेट भरता है, इनका तो, मां ने तिलमिला कर जवाब दिया।
‘कहीं गए थे?’
‘नहीं, बीस दिन से कह रहे हैं आज का चला लो, कल मैं कुछ करूंगा।’
मां इस तरह की सारी शिकायतें उससे ही करती है। पिताजी सोच रहे होंगे, पता नहीं बच्चों के साथ मिल कर क्या ‘कांसपिरेसी’ करती रहती है।
‘बड़ी देर कर दी आज तो। अब तक तो आ जाना चाहिए था।’ पिताजी ने गर्दन किताब से निकाल कर पूछा।
कोई कुछ नहीं बोला।
ऐसे में हमेशा उसे लगता कि मानो किताब का कोई चरित्र किताब से बाहर निकल कर कुछ अटपटे सवाल करने लगा है। वह रसोई से चल कर कमरे तक आ गया।
‘अरे! कब आया तू।’ उन्होंने किताब को औंधी करके पलंग पर लिटा दिया।
‘अभी आया।’
‘कुछ हुआ क्या?’
‘नहीं।’ जो-जो उसने रास्ते में सोचा था वह सब भूल गया। और चुपचाप कमरे से बाहर आ गया। पता नहीं क्या हो जाता है उसे पिताजी के सामने।
घर के सभी सदस्य, पिता के अलावा बाहर बैठे हैं, खाट पर। जुलाई का महीना है। जून और जुलाई उनके लिए कभी अच्छे नहीं होते। पता नहीं कब तक ऐसे ही चलेगा। एक दिन बता रहे थे। ‘मार्क्स’ की दो बेटियां भूख से मर गई थीं। पर मार्क्स अपने कार्य से विचलित नहीं हुआ। आज लोग मार्क्स को याद करते हैं। लेकिन मार्क्स ने उनके सहयोग को स्वीकार किया है। मार्क्स ने सचमुच बहुत बड़ा काम किया है। उस काम के एवज में उन दो जानों की कोई कीमत नहीं है।
वह सोच रहा था।
आज का फाका किस तरह बचाया जाए। महेश्वरन… जैन… भार्गव… पांडे… किससे कुछ लिया जाए। अब कोई कुछ नहीं देता।
एक-एक करके सब अंदर आ गए। वह भी। पिताजी ने किताब पढ़नी बंद कर दी। सब चुप। कोई किसी से नहीं बोल रहा। पिताजी के सिर के ऊपर एक गंदा सा कैलेंडर टंगा है। सब सोच रहे हैं कि कैलेंडर पर आज ‘एफ’ कौन बनाएगा।
लगता है ‘एफ’ नहीं बच सकता।
‘अरे, आज तू ही कुछ कर ले।’ पिताजी ने मां से कहा।
मां मुंह बना कर अंदर चली गई।
‘तू कर ले।’
‘मैं कहां से करूं?’
‘तू कर ले टिंचू आज।’
‘कोई देता ही नहीं।’
‘तू देख ले, आज कहीं से कुछ?’
‘पहले लिए थे अभी वही नहीं दिए गए।’
‘कोई कुछ नहीं कर सकता तुममें से। किसी के बस का कुछ नहीं है। नहीं कर सकते तो बैठो भूखे। मेरे बस की भी कुछ नहीं है। मैं ही कहां से भिक्षा मांग कर लाऊं।’
कहीं से कुछ नहीं हुआ।
किसी ने पिताजी की आंख बचा कर कैलेंडर पर निशान लगा दिया। पिताजी ने फिर से किताब उठा ली। सबने मान लिया कि अब कुछ नहीं होगा। फिर भी सबकी आंखों में एक हल्की-सी आशा है कि शायद कहीं से कुछ हो जाए। कुछ तो होना ही चाहिए। ये तो हद है। चाहे स्साला एक बार को बम ही फट जाए। कुछ न होना तो सचमुच बहुत खतरनाक है।
बम फटने का कम से कम एक फायदा तो होगा। कोई किसी से नहीं पूछेगा कि ‘कुछ हुआ क्या।’
पर वह जानता है, ऐसा भी कुछ नहीं होगा। वह कैलेंडर पर बने ‘एफ’ के निशान को देख रहा और सोच रहा है कि रात यों ही मर जाएगी और सुबह किसी भिखारी की तरह दरवाजे पर खड़ी नजर आएगी।
पिताजी फिर पूछेंगे, ‘अरे कुछ हुआ क्या?’