यह 1850 के आसपास की घटना है, जब लाल किले पर दिल्ली के शहंशाह बहादुरशाह जफर की सदारत यानी अध्यक्षता में आखिरी उर्दू मुशायरा हुआ था। वह साहित्य और सत्ता के दौर में एक ऐतिहासिक अदबी घटना थी। उस मुशायरे में शहंशाह बहादुर शाह ‘जफर’ के अलावा मिर्जा गालिब, उस्ताद जौक, हकीम मोमिन खान, आगा खान ऐश, दाग देहलवी, मुस्तफा खान शेफ्ता, मुफ्ती सददुद्दीन, आजुर्दा आदि सभी शिखर के शायर मौजूद थे। उसी मुशायरे को एक नाटक के रूप में हाल ही में दिल्ली में एम. सईद आलम ने दिलचस्प ढंग से पेश किया था। उन दिनों परिस्थितियां ऐसी नहीं थी कि उस ऐतिहासिक मुशायरे की कोई लिखित तफसील मिल सकती, लेकिन दिल्ली के अदबी क्षेत्रों में एक लंबे अर्से तक उस मुशायरे की चर्चा होती रही और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उसका जिक्र भी दिल्ली के पुराने अदबी घरानों में जारी रहा।
इस नाटक में ‘जफर’ की भूमिका टॉम आल्टर ने निभाई थी, जबकि मिर्जा गालिब की भूमिका बड़े प्रभावी ढंग से हरीश छाबड़ा ने निभाया।
पीढ़ी दर पीढ़ी प्राप्त विवरणों के अनुसार इस मुशायरे में ऐसे भी शायर थे, जो निजी तौर पर और अदबी जिंदगी में एक-दूसरे को कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। मसलन, उस्ताद जौक और मिर्जा गालिब। दोनों ही एक-दूसरे पर फब्तियां कसते रहते थे। जौक शहंशाह के औपचारिक रूप में उस्ताद माने जाते थे, मगर गालिब को भी बहादुरशाह जफर के दरबार में उतनी ही इज्जत मिलती थी, जितनी कि उस्ताद जौक को।
एक घटना अदबी हलकों में बेहद चर्चित रही थी। एक बार उस्ताद जौक पालकी में बैठ कर लालकिले में बादशाह के दरबार की ओर जा रहे थे। रास्ते में चांदनी चौक में एक पान वाले की दुकान पर बैठे मिर्जा गालिब ने बुलंद आवाज में व्यंग्य कस दिया- ‘बना है शाह का मुसाहिब फिरे है इतराता।’ गालिब ने यह मिसरा इतनी बुलंद आवाज में पढ़ा कि जौक को भी सुनाई दे गया। वे बेहद तिलमिलाए। उन्होंने लाल किले में पहुंचते ही बादशाह से शिकायत की कि मिर्जा गालिब ने सरेआम उनका अपमान किया है। बादशाह को यह सब अच्छा नहीं लगा। उन्होंने फौरन मिर्जा गालिब को बुलावा भेजा। जफर ने गालिब से कहा, ‘मिर्जा आप तो अदब की दुनिया के सरताज माने जाते हैं। आपसे तो ऐसी बेअदबी की उम्मीद नहीं थी।’
मिर्जा गालिब व्यंग्यकार तो थे ही, अपने वक्त के विलक्षण ‘हाजिर जवाब’ भी थे। उन्होंने सफाई दी, ‘आपने सही फरमाया बादशाह आलम। मैं ऐसी गुस्ताखी कैसे कर सकता हूं। मैंने तो अभी अपने एक ताजा शेर का पहला मिसरा ही पढ़ा था। उस्ताद जौक ने दूसरा मिसरा सुना ही नहीं और आपके पास चले आए शिकायत लेकर। मेरा पूरा ‘शेर’ तो अपने बारे में ही था। पूरा ‘शेर’ यूं था-
बना है शाह का मुसाहब फिरे है इतराता
वरना शहर में ‘गालिब’ की आबरू क्या है।
बादशाह जफर गालिब की चतुराई भांप गए थे, मगर उन्होंने एक अच्छे ढंग से विवाद समेटने के लिए गालिब के शेर की तारीफ की। उस्ताद जौक को इस सारे प्रकरण में खुद अपनी शिकायत के लिए माफी मांगनी पड़ी थी।
पुराने खानदानी आख्यानों के अनुसार उस आखिरी मुशायरे पर बादशाह जफर की आंखें बार-बार नम हो आती थीं। अपने दरबार में शायरों को अशर्फियों के उपहार देने वाले बादशाह का खजाना उस दिन लगभग खाली था। चांदनी चौक के कुछ पुराने खानदान अपने बुजुर्गों के हवाले से बताते हैं कि उस शहंशाह ने अपने शॉल और गले में पहने कुछ आभूषण, अपनी अंगूठियां और अपने डायनिंग हॉल की कुछ बेशकती चांदी की प्लेटें ही शायरों की नजर की थी। इस बार अशर्फी न दे पाने के लिए ‘जफर’ ने हर शायर से आंखें झुका कर माफी मांगी थी और यह भविष्यवाणी भी कर दी थी कि ‘शायद यह नशिस्त (संगोष्ठी)’ आखिरी नशिस्त ही होगी।
बताते हैं, इस मुशायरे में बादशाह जफर ने भी कुछ शेर पढ़े थे, जो इस तरह थे-
न था शहर दिल्ली, यह था चमन
कहो किस तरह का था यां अमन
जो खिताब था वह मिटा दिया
फकत अब तो उजड़ा दयार है
और
न किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्तेगुबार हूं
न तो मैं किसी का रकीब हूं न तो मैं किसी का हबीब हूं
जो बिगड़ गया वह नसीब हूं जो उजड़ गया वह दयार हूं
मेरा रंग-रूप बिगड़ गया मेरा यार मुझसे बिछड़ गया
जो चमन खिजां से उजड़ गया मैं उसी की फसले-बहार हूं
तब जफर क्या थे। हिंदुस्तान के एक बेबस राजा। शायर थे सो शायरी के शौकीन होने के बायस मुशायरा रखते थे। दाग ने मिर्जा गालिब पर ये शेर दागा था-
अगर अपना कहा जो आप ही समझो तो क्या समझो
मजा तो तब है जब कि एक बोले और सब समझें।
चूंकि बादशाह जफर उस दिन मंच संचालन नहीं कर रहे थे, सो शम्मां अपनी जगह ही रोशन रही और बारी बारी से शायरों के पास नहीं लाई गई।
जैसी कि उम्मीद थी कि गालिब छा जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने हाजिर जवाब मंच संचालक की भूमिका निभाई। मसलन, जब एक शायर की बारी आती है, तो गालिब उसके बारे में कहते हैं- साहब ब्रितानिया सरकार में अफसर हैं। ग्यारह सौ रुपए सालाना की तनख्वाह पाते हैं, इतने के ही बाजार में मेरे नाम कर्ज हैं। वहां नौकरी और यहां शाइरी। सो, साहब जादूबयानी करते हैं।… कहते हैं कि मुशायरे में मंच लूटा मोमिन ने।
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले दिन उनको लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।
टूटे हाथ से जब मोमिन ये शेर पढ़ते थे, तो शेर और भी मौजूं हो उठता था। मोमिन की आवाज मधुर और धीमी थी। वहीं दाग सबसे बुलंद आवाज वाले थे। जौक अपने रुतबे के बायस बुलंद रहते थे।
जफर ने जो सुनाया, वह तत्कालीन हिंदुस्तान का हालाते-हाजरा था। उनके बुढ़ापे ने उनकी बादशाहत की बेबसी को और उभारा।
अंत में जफर साहब की बात- शेर वह नहीं, जिसे सुन कर वाह निकल जाए, शेर वह जिसे सुन कर आह निकल आए। इस तरह चला था लाल किले का वह आखिरी मुशायरा।

