नसीम साकेती

रोज की तरह आज भी अखबारवाला उसकी अधखुली खिड़की से अखबार डाल गया था। उसने सिर के नीचे समेटे हुए रजाई के दामन को उठा कर सीने पर कर दिया और दोनों हाथों की हथेलियों को खुली किताब की तरह आंखों के सामने करके चेहरे पर फेर लिया। ऐसा वह काफी अरसे से करता आया है, जिससे अगर किसी दिन ‘ऐसी-वैसी बात’ उसके जीवन में घट जाए, तो वह शकुन-अपशकुन के चक्कर में पड़ कर किसी दूसरे का नाम न घसीटे, वरना लोग कहने लगते हैं- ‘आज न जाने किस मनहूस का मुंह देखकर उठा था।’ उसने लेटे ही लेटे दाएं हाथ से अखबार उठाया और देखने लगा।

आज समाचारों से ज्यादा व्यापारियों के विज्ञापनों से अखबार भरा पड़ा था। हर विज्ञापन के ऊपर ‘नववर्ष की शुभकामनाएं’ शीर्षक दिया हुआ था। … आज पहली जनवरी है, उसके मस्तिष्क में यह बात बिजली की तरह यकायक कौंध गई। थोड़ी देर तक वह समाचारों और विज्ञापनों पर अपनी आंखें जमाए रखीं। उठ कर जब वह आंगन में आया तो बच्चों ने उसे नववर्ष की शुभकामनाएं दीं और मिठाइयों की फरमाइश के बाद बोले- ‘राजू और अलका के पापा आज ढेर सारी मिठाइयां लाएंगे… घूमने और सिनेमा देखने जाएंगे… ढेर सारी मिठाइयां लाएंगे।’

वह अपने बच्चों की बातें सुनता और मन-ही-मन कुछ सोचता रहा। हाथ-मुंह धोकर जब वह कमरे में आया, तो देखा कि चाय और पराठा मेज पर उसका इंतजार कर रहे हैं। ‘सब्जी तो नहीं है, चाय ही से पराठा खा लीजिए, आज तनख्वाह मिलने पर सब्जी मंगाऊंगी।’ पत्नी की इस बात पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि यह कोई नई बात तो थी नहीं।

यह तो प्राय: महीने के आखिरी दिनों में होता ही आया है।… वेतन मिलने पर कुछेक दिनों तक तो खूब धडल्ले से जो मन में आया, खाते-करते रहते हैं। धीरे-धीरे रुपए की कमी के साथ-साथ इच्छाओं की भी कमी होती जाती है और पैसा न हुआ तब तो इच्छाओं के दमन में ऋषियों और मुनियों से भी दस हाथ आगे हो जाते हैं। उसने जल्दी-जल्दी एकाध पराठा खाया और चाय पीकर उठ गया। ‘इतनी जल्दी क्यों है आज…?’

‘क्या करूं, कल के लौंडे अफसर हो जाते हैं, उनका दिमाग ही नहीं मिलता। इस नए छोकरे अफसर ने तो नाक में दम कर रखा है। बड़ा आया है धर्मराज युधिष्ठिर।…’ खूंटी पर टंगे हफ्ता-भर से पहने हुए कमीज-पाजामे को उसने उतारा और पहन कर बाहर आ गया। सामने जाते हुए वाजपेयीजी ने मुड़ कर कहा- ‘नववर्ष शुभ हो’। उसने भी प्रत्युत्तर में केवल इतना ही कहा- ‘आपको भी’ और आगे बढ़ गया। हर मिलने वालों ने नववर्ष की शुभकामनाएं देना अपना पुनीत कर्तव्य समझ रखा था, जिसे वे निभाते रहे और वह अन्यमनस्क भाव से अपना छोटा-सा नपा-तुला उत्तर देकर आगे बढ़ जाता।

दफ्तर गया तो वहां भी उसे नए साल की शुभकामनाओं का तोहफा भेंट किया गया। उसने अपनी मेज पर रखे शीशे की ओर देखा। चपरासी रोज की तरह आज भी ढेर-सारी डाक रख गया था, जिन पर ‘आवश्यक’ तथा ‘अति-आवश्यक’ की मोहरें लगी थीं। उसने सभी कागजों को एक साथ मरोड़ा और मेज में लगी दराज में खोंस दिया।… सभी तो आवश्यक है।… और पहले से पड़े कुछेक कागजों को निकाल कर उनके जवाब के लिए पेंसिल घिसने लगा। सामने वाली सीटों पर बैठे बाबू अपना काम ताक पर रख कर आगामी आम चुनाव के बारे में गरमागरम बहस कर रहे थे।… कोई समाजवाद और ‘गरीबी हटाओ’ के नारों में उलझा था।

कोई मौजूदा सरकार के कामकाज में गोते लगा रहा था। अधिकतर लोग महंगाई, भ्रष्टाचार तथा कालेधन पर अपना सिर धुन रहे थे। किसी का निशाना नेताओं की विदेश यात्राओं पर था, तो कोई अन्य दल को अपनी बातों की परिधि में लाने का असफल प्रयास कर रहा था। अगली वाली कुरसी पर बैठे बोस दादा सिगरेट के धुएं के छल्ले हवा में उछाल कर उसे बड़े ध्यान से देख रहे थे। शायद उन्हें उसमें समाजवाद का अक्स दीख पड़ रहा था या किसी बड़े मार्क्सवादी नेता की तस्वीर नजर आ रही थी।

इतने में चपरासी वेतन लेने के लिए आवाज लगा गया। सब लोग अपने सरकारीपन को लादे, एक ही साथ बिजली के करेंट की भांति झटके से उठ खड़े हुए। कुर्सियों की खड़खड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी। उसने फाइलों को समेटा, आज के आवश्यक कागजों को हस्ताक्षर की टोकरी में डाल कर बताशे पर चल कर आए हुए वेतन के दिन से गले मिलने चल पड़ा। खजांची को गिद्धों की तरह सब घेरे हुए थे।

थोड़ी देर के बाद उसने अपना वेतन लिया और बाजार में आ गया। उसका नियम था कि वेतन लेने के बाद उधार के बोझ को उतार कर ही वह घर जाता था। इस बात के लिए पनवाड़ी से लेकर गल्ले वाले तक सब उसकी बे-लगाम तारीफ करते थे।… एक के बाद एक दुकानें आती गर्इं और उसकी जेब से नोट खिसकते गए। चलते-चलते जब भी वह जेब में हाथ डाल कर देने के लिए रुपए निकालता, उसे न जाने कैसा आभास होता। मगर यह सोच कर कि फिर ऐसे ही चल जाएगा… ढर्रा तो बना ही लिया है उधार खाने का… दूसरा और कोई रास्ता भी तो नहीं है। वह सबका उधार चुकाता गया।

उधार के बोझ से हल्का होने के बाद जेब में पड़े रुपयों को उसने चुटकियों से टटोला। तब उसे लगा कि बोझ तो अब अधिक बढ़ गया है।… इस महीने में हर महीने से अधिक खर्च हो गया। छोटा भाई और बहू एक हफ्ते के लिए घूमने जो आए थे, उनके लिए कपड़े आदि… सोचते-सोचते उसके कदम इतने वजनदार हो गए कि चलते न बनता था।

इसी उधेड़बुन में पड़ा वह घर पहुंच गया। ‘पापा, मिठाई हमें दीजिए।’ एक साथ बच्चों के स्वर ने उसे याद दिलाया कि वह मिठाई लाना तो भूल ही गया। ‘क्या मिठाई-मिठाई लगाए हो…?’ उसकी पत्नी की आवाज ने बोल रहे गीदड़ों की आवाज में भेड़िए की आवाज का काम किया। उसने बचे हुए रुपयों को पत्नी के हाथों में थमा दिया। थोड़ी देर के बाद उसकी पत्नी बोली, ‘इस महीने तो और फूंक-फूंक के कदम रखना होगा।