उस क्षण विकास को ऐसा ही तो लगा था कि साठ पार कर चुकी मानसी ने जो हंसी अभी हंसी है, उसमें उसका आज का चेहरा नहीं, बारह-तेरह की किसी किशोरी का-सा चेहरा है। यानी जब वह हंसी है तो बारह-तेरह वर्ष की लगी है। उस क्षण उसे यह भी लगा कि ऐसा वह अपने उसी चेहरे के साथ ‘लगी’ है, जो सचमुच उसका ही था-बारह-तेरह की ‘उसकी’ उम्र का चेहरा।  हंसी, हमें और अधिक युवा बना देती है, पर वह किसी को किशोर या किशोरी भी बना दे सकती है, किसी के ‘अनुमान’ में, यह बात कम ही ध्यान में रहती है। और ऐसे क्षण आते भी तो कितने कम हैं। ऐसा होना पूरी तरह अभिनय में भी संभव नहीं है। विकास काफी देर तक उस हंसी के घेरे में रहा। इस हद तक कि कमरे में बैठे हुए लोग जो बातें कर रहे थे वे भी मानो उसके कानों में नहीं पड़ीं। वह उस हंसी के बाद मानसी के चेहरे को मानो सबकी नजरों से ओझल करके, मुग्ध भाव से देखता रह गया था।
बड़ी भाव प्रवण आंखें। कुछ गोल-सा ही चेहरा। आंखों पर गोल चश्मा! कितनी उजली, कितनी निश्छल थी वह हंसी। उसके होंठों और नाक से ऊपर जाकर, आंखों और माथे पर उछलती हुई-सी चढ़ गई थी। वह हंसी।

कमरे में कुछ ही लोग तो थे। कुछ आ-जा भी रहे थे। स्नैक्स परोसने वाले। घर के युवा, कभी प्रशांत बाबू और कभी मानसी को कुछ कह या बता कर चुपचाप लौट जाने वाले। विकास और उसकी पत्नी करुणा तो वहां थे ही। यह संयोग ही तो था कि जिस होटल में विकास और करुणा ठहरे हुए हैं, उसकी बेकरी शॉप में सहसा ही प्रशांत को करुणा दिखाई पड़ी थी। आज सुबह। विकास और करुणा उस वक्त बस ‘यों ही’ होटल की लॉबी में बैठे थे, नाश्ता करने के बाद। बेकरी शॉप, लॉबी में ही एक ओर थी। ज्यों ही मानसी ने विकास को देखा, वह उसके स्वागत में उत्फुल्ल होकर पलटी थी उसकी ओर, और अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाते हुए, प्रशांत बाबू ने भी पलट कर मुस्करा कर उसे देखा था। और फिर उन्हें शाम के लिए घर पर आमंत्रित कर लिया था।  विकास ने ऐसी बहुत-सी शामें बिताई हैं, किसी पार्टी में, किसी मित्र-परिजन के घर में, जहां ड्रिंक्स और स्नैक्स होते हैं, खाना खाने से पहले। बातें हीती हैं, कभी-कभी बहसें भी। कभी स्मृतियों का साझा किया जाता है। बीच में कोई उठ कर आराम से सिगरेट पीने चला जाता है। कोई फोन सुनने के लिए। और अगर पार्टी बड़ी हुई तो मेहमानों का आना-जाना भी लगा रहता है।
पर, आज की बात अलग है। अब किसी को आना-जाना नहीं है। प्रशांत बाबू और उनकी पत्नी मानसी के यहां वह और करुणा ही तो आज विशेष रूप से आमंत्रित हैं। बस विकास बाबू ने अपने एक पड़ोसी मित्र सुजित और उनकी पत्नी संध्या को भी बुला लिया है। उनसे तो विकास का परिचय अभी-अभी हुआ है। और सच तो यह है कि जिन्हें वह परिचित कह सके यहां वह तो मानसी ही है। उसके कॉलेज के दिनों की मित्र। रह-रह कर कॉलेज के दिनों के कई अड्डों की याद आज आ रही है। कॉफी हाउस की, जहां उसने कभी सिर्फ मानसी के साथ, कभी कुछ और मित्रों के साथ कई दोपहरें और शामें बिताई हैं। रात आठ-नौ बजे गर्ल्स हॉस्टल पहुंच जाने से पहले, मानसी को मानो और कोई जल्दी नहीं होती थी। पिता असम के एक चाय बागान में अधिकारी थे। मानसी स्वतंत्र-प्रकृति की थी, और हॉस्टल में रहने के कारण कई तरह की उन पारिवारिक वर्जनाओं से मुक्त थी-जो लड़कियों के लिए आमतौर पर हमारे समाज में बरती जाती हैं, और ‘उस जमाने’ में जिनकी ‘पकड़’ और मजबूत थी।

उसने सुना, करुणा से मानसी हिमाचल प्रदेश की किसी यात्रा का साझा कर रही है। बात निश्चय ही करुणा के कॉलेज के दिनों से शुरू हुई होगी, जब वह शिमला में पढ़ती थी। इस बीच उसका (विकास का) ध्यान कुछ बंट गया था। बात शुरू कैसे हुई थी-हिमाचली यात्राओं की, यह वह नहीं सुन पाया था। मानसी और करुणा को बातें करते देख कर उसे बहुत अच्छा लग रहा है। उसने कभी सोचा नहीं था कि जीवन में कोई ऐसा दिन भी आएगा, जब मानसी और करुणा इस प्रकार एक-दूसरे से मिलेंगी। विवाह के बाद करुणा ने उसके कॉलेज के दिनों की कुछ तस्वीरें देखीं थीं, एक एलबम में। और कुरेद-कुरेद कर मानसी के बारे में जानकारियां इकठ्ठा करती रही थी। मानसी को लेकर, उसकी जिज्ञासाओं के पीछे वह एक अलग-सी तस्वीर भी है, जो करुणा को कुछ ‘परेशान’ कर रही थी-यह बात विकास को समझ में आ गई थी। पिकनिक की एक तस्वीर में मानसी बड़े अनुराग के साथ विकास की ओर एक कौर बढ़ा रही है। उसमें मानो एक मनुहार भी झलक रही थी। और एक और तस्वीर में वह उसका हाथ अपने हाथ में लिए हुए है, और उससे कुछ कहती हुई मालूम पड़ रही है।
यह सच है कि मानसी कितना तो खयाल रखती थी विकास का। उसे विकास की स्थिति मालूम थी कि वह ट्यूशन करके अपनी पढ़ाई पूरी कर रहा है। सो, उसे किसी न किसी बहाने कोई भेंट देने के अलावा, वह बहुत आग्रह करके कॉफी हाउस में, ‘बिल’ शेयर करती रही है-यह कहते हुए कि उसने पिछली बार कुछ भी तो नहीं दिया था। जबकि सच्चाई यह होती थी कि पिछली बार तो समूचे बिल का भुगतान उसी ने किया होता था। थोड़ी देर की बहस के बाद, कुल मामले को मानसी एक अच्छी वकालती जिरह के साथ अपने पक्ष में कर लिया करती थी। यह जानते हुए भी कि दूसरे पक्ष को, और स्वयं, उसे सच्चाई मालूम तो है ही।

विकास ने, मानसी की देह का स्पर्श भी जाना है। छुट््िटयों में जब वह घर जा रही होती थी तो फेयरवेल के समय, वह हाथ मिला कर, बाकायदा मूहूर्त-दो मुहूर्त के लिए गले भी मिला करती थी। कभी अकेले, कभी दूसरों की उपस्थिति में। उस वक्त की सांसें मानो अब भी ‘सांस’ लेती हैं। उसके चले जाने के बाद, थोड़ी देर तक विकास मानसी द्वारा इस्तेमाल किए गए किसी एरोमेटिक प्रसाधन की सुगंध को भी महसूस किया करता था, मानो वह सुगंध कोई ‘छाया’ हो। और उसमें कुछ देर तक खोया रहता था। याद है, एकाध बार उन दिनों, मन ही मन ऐरोमेटिक और रोमैंटिक शब्दों की समान लगती ध्वनियों का एक खेल भी उसने खेला था। पर, उन दोनों के बीच इस मामले में बहुत कुछ ‘अनकहा’ ही रहा है, और दोनों ही बहुत अच्छे दोस्त की तरह दो-तीन बरस तक ‘साथ’ रहे हैं।

हां, दोस्ती ही तो थी वह-‘कुछ और’ की उपस्थिति दोनों के बीच रही भी थी तो क्या एक ‘मौनी’ की तरह ही नहीं! अंतत: हुआ यही था कि मानसी ने एक बार छुट््िटयों से लौट कर, अपने ‘एंगेजमेंट’ की खबर उसको और पूरी मंडली को मानो ‘सहजता’ से ही दी थी! सिर्फ खबर नहीं, उसमें वह ‘पार्टी’ भी तो शामिल थी, जो कॉफी हाउस में उसने उस शाम दी थी! सबके वहां इक्ठ्ठा होते ही यह कह कर कि आज बिल का भुगतान वह करेगी, सारे आॅर्डर भी वही देगी, और इसको लेकर कोई कुछ सवाल नहीं करेगा।…. उस शाम की एक झलक उसकी आंखों के सामने से तैर कर अभी ओझल हुई ही थी कि सहसा एक नीली दरी, जिसमें लाल-सी धारियां थीं, न जाने कहां से ‘उड़ती’ हुई आ गई, और विकास उसकी ओर देखने लगा। स्मृति विचित्र-से खेल खेलती है। उस वक्त विकास स्मृति के आईने में ‘देख’ जो रहा था, उसे कोई और देख नहीं पा रहा था। मानसी जो सामने बैठी थी, वह भी कहां देख पा रही थी!

जब मानसी और करुणा बातें कर रही थीं, ठीक उसी समय विकास और मानसी उस नीली दरी पर बैठे थे, जो ‘उड़ती’ हुई न जाने कहां से आ गई थी। तभी मानसी उसकी ओर मुखातिब हुई, और उससे कुछ पूछने लगी। वह अभी जिस मानसी के साथ दरी पर बैठा था, वह चेहरा युवा मानसी का था, पर सामने बैठी मानसी उस चेहरे से दूर भले चली आई हो, थी तो वही मानसी-और कुछ देर पहले ही तो उसकी उजली हंसी में मानो बारह-तेरह वर्ष की मानसी भी उसे दिख गई थी। एक सहजता, एक आश्वस्ति भर गई थी। जीवन मात्र के प्रति थी यह आश्वस्ति मानो। और इस ‘क्षण’ के प्रति तो थी ही, जिसमें मानसी-करुणा-प्रशांत-विकास, और कमरे में मौजूद एक अन्य दंपत्ति और कमरे की सारी चीजें एक लय में बंधी हई मालूम पड़ने लगी थीं। जो भी हो, थोड़ी ही देर में वह नीली दरी फिर लौट आई। कहीं बिला-से गए वे क्षण उभरे जब मानसी, जीवनानंद दास की एक कविता सुनाते-सुनाते उसके कंधे से टिक गई थी। किसी ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया था, क्योंकि यह सब तो उस मंडली के युवक-युवतियों के बीच, सहसा ही, मानो निष्प्रयोजन, कभी न कभी घट ही जाया करता था। पर, कंधा तो वह उस वक्त विकास का ही था-और वह उस स्पर्श से अछूता नहीं रहा था। निष्प्रयोजन और स-प्रयोजन की विभाजक रेखा कभी-कभी मिट जाती है या कहें थोड़ी देर के लिए वह दुविधा कहीं लुप्त हो जाती है, जो निष्प्रयोजन और स-प्रयोजन को लेकर किसी के मन में किसी बात को लेकर उठा करती है। फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मन की अतल गहराइयां कुछ ऐसी होती हैं कि कभी-कभी यह जानना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता है कि कोई चीज जानबूझ कर की गई थी-उसके पीछे कोई इच्छा, कोई आसक्ति थी या वह यों ही अनायास घटित हो गई थी।

हां, उस शाम बहुत-सी बातें हुर्इं। कई सूचनाओं का आदान-प्रदान हुआ। वह आदान-प्रदान, जो दो गृहस्थियों के बीच दिनों या वर्षों बाद मिल जाने पर होता है। बहुत कुछ खाया-पिया-सराहा गया। हां, यह वर्षों बाद का ही तो मिलना था। कभी, बीच में, यहां-वहां सरसरी मुलाकातें भर हुई थीं। पर, कभी इस तरह बैठ कर बतियाना नहीं हुआ था-विकास-करुणा और प्रशांत-मानसी का। बारिश होती और थमती रही। पर, मानो बहुत देर तक विकास मानसी की उसी उजली हंसी की प्रतीक्षा करता रहा, जो मानसी एक बार हंस चुकी थी। वह दो-एक बार और लौटी। पर, कोई हंसी चाहे भी तो अपनी पूरी पुनरावृत्ति नहीं कर सकती है। एक-जैसी जरूर लग सकती है। सो, हंसी का वह पहला क्षण विकास को अलग से याद आता रहा।
बहुत आग्रह करके देर रात प्रशांत बाबू और मानसी अपनी कार में विकास और करुणा को छोड़ने उनके होटल तक आए। विकास कहता ही रह गया कि आप लोग क्यों तकलीफ करते हैं, टैक्सी बुला लेते हैं। वापसी के रास्ते में भी कुछ न कुछ बातें सबकी होती रहीं।

गाड़ी मानसी ही चला रही थी। वापसी में फिर विकास ने मानसी की उस उजली हंसी के बारे में सोचा, जिसे हंसते हुए वह बारह-तेरह वर्ष की लगी थी। जाहिर है कि मानसी को विकास ने उस उम्र में कभी नहीं देखा था, उससे भेंट तो तब हुई थी जब मानसी की उम्र रही होगी बीस-इक्कीस वर्ष की! विकास ने गौर किया कि मानसी उस शाम करुणा से ही अधिक मुखातिब रही थी। क्या वह उजली हंसी जाने-अनजाने करुणा को ही संबोधित थी! जब उनका होटल आ गया, तो वे दोनों उतरे। पोर्च में प्रकाश था। ‘इस शाम कितना आनंद आया है’ की बात दोनों ओर से हुई। ‘शुक्रिया’ भी दोनों ओर से ली-दी गई। जब तक गाड़ी मुड़ी नहीं, विकास और करुणा वहीं खड़े रहे, जहां कार से उतर कर वे खड़े हुए थे। कार ओझल होने लगी, तो फिर मानसी की हंसी सुनाई पड़ी, शायद वहां पड़ा कोई पत्थर था, या फिर होटल की फुलवारी की कोई पथरीली बाड़, जिससे कार का एक टॉयर टकराया था, और कुछ कहते हुए मानसी हंस पड़ी थी! ०