उषा महाजन
‘माफ कर दो बेटी, इस बेबस को। तुम जाओ मत, बिटिया। इस परिवार की इज्जत की खातिर। मेरी तरफ से तुम जैसे रहना चाहो रहो, जो करना चाहो करो।…’ तीस बरसों तक वह मानती रही थी उनका। उनके परिवार की इज्जत के लिए नहीं, उनकी बेबसी, स्वयं के प्रति उनके अनाम से स्नेह की खातिर और उनके लिए अपने लगाव के चलते।
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इस घर में प्रवेश के पहले दिन ही समझ गई थी वह कि उसके एक जीवन का अंत हो चुका है। किसी उमंग, किसी खुशी, किसी कल्पना, किसी आस के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची थी। सास नहीं थी, सिर्फ ससुर थे- बाबूजी और बेवा ननद शांति। नई-नवेली ही वह काम में जुट गई थी, उस कमरे में जाने से बचने के लिए।
पति कहलाने वाले उस प्राणी को शायद सिखाया गया था- कमरे में अकेली पाते ही वह उसे दबोच लेता और हकलाते हुए अस्फुट स्वर में न जाने क्या कहता हुआ, उसे नोचने-खसोटने लगता। शुरू-शुरू में संकोच में वह कुछ न कह पाती, न उसको, न घर में किसी और को। पर एक हद के बाद तो उसने क्या-क्या नहीं किया! पंखे से फंदा तक बना लिया था। फिर जी में आया- नहीं जान नहीं लेगी वह अपनी! निकलेगी घर से बाहर, जब सुना था उसने ‘एक ठिकाना यह भी’ के बारे में।
फिर घनी बस्ती की संकरी गली के नुक्कड़ पर, जर्जर-सी इमारत में ‘एक ठिकाना यह भी’ का दरवाजा ठेल एक दिन भीतर कदम रखा था उसने। जैसे सारी दुविधाएं जाती रही थीं। छोटी-सी मेज के दूसरी तरफ बैठी एक उम्रदराज महिला एक युवा स्त्री को समझाने में लगी थी और दो अधेड़ औरतें रजिस्टरों में कुछ दर्ज करती बगल की मेज के गिर्द बैठी थीं। कमरे के कोने में एक दूसरी मेज पर, टाइप राइटर पर झुका एक मझोली वय का सुदर्शन-सा व्यक्ति अपने काम में लगा था।
उस युवा स्त्री के जाने के बाद, उसे बुलाया गया और अपनी तकलीफ बयान करने को कहा गया, तो वह झिझकी थी, मगर महिला ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘ओह, चिंता न करो, ये हमारी मददगार हैं, हमारी संस्था की ही हैं। और यह रोहिताश जी हैं। यह भी मेरी ही तरह काउंसलर हैं। यह संस्था इन्हीं की तो है और बेसहारा स्त्रियों को मदद दिलाने के लिए दौड़धूप का काम सब यही तो करते हैं।’
वह नहीं जानती, कैसे बताई और कितनी बताई उसने अपने जीवन की त्रासदी, पर उस महिला के साथ-साथ रोहिताश जी भी सब समझ गए थे। टाइप राइटर छोड़ कर वे पास आ गए थे, ‘देखिए, मानसिक अस्वस्थता से ग्रस्त व्यक्ति के साथ बिना बताए आपका विवाह एक धोखा है। आपको आसानी से तलाक मिल सकता है। आप चाहें तो…’
झरझर रोते हुए वह बोली थी, ‘पर मैं करूंगी क्या? रहूंगी कहां?…’ ‘प्लीज डोंट वरी, हमारे पास एक शार्ट स्टे होम है। आप पढ़ी-लिखी हैं, कोई काम भी मिल जाएगा आपको। हिम्मत रखिए… कानूनी मदद के लिए भी हम आपके साथ हैं।’
घर लौट कर उसने सचमुच सारी तैयारी कर ली थी, उस घर को छोड़ने की। पर बाबूजी… ‘बहू, तुम मत जाओ, मत जाओ बिटिया… तुम जैसे रहना चाहो, जो करना चाहो…’ वह दिन और आज का दिन, उस घर के उस कमरे में वह फिर कभी दोबारा नहीं सोई। शायद किसी तरह बाबूजी ने अपने लड़के को भी समझा दिया था कि अब वह उसकी कुछ नहीं लगती।
कुछ नहीं लगती थी सिर्फ घर की चहारदीवारी के भीतर, पर दुनियादारी के लिए इस घर की बहू के सारे फर्ज वह निभाती रही। घर में भी और बाहर भी। अब कोने वाला उसका नया कमरा सिर्फ उसी का था। बेशक घर के अन्य सदस्यों की तरह, पति कहे जाने वाले उस आदमी के भी खाने-पीने और दूसरी जरूरतों का सारा जिम्मा उसने अब भी ओढ़ रखा था, इंसानियत के नाते ही सही। और धीरे-धीरे आदत के तहत।
कमरा अलग होने के बाद जब पहली बार किसी अनिवार्य काम से वह उसके कमरे में गई थी। उसे देखते ही एकदम दौड़ कर उसे जकड़ते हुए हकलाया, ‘पारुल, तुम अब इस कमरे में क्यों नहीं आती? और बाबूजी ने क्यों कहा है कि मैं तुम्हारे कमरे में न जाऊं?’
उसे धकिया कर स्वयं को छुडाÞते हुए वह बाहर तो निकल आई थी, पर एक अजीब-सी आत्मग्लानि, हताशा और करुणा की मिलीजुली बेचैनी उसे मथने लगी थी। प्रकृति ने उसे वैसा क्यों बनाया था! उसे याद है, अपने कमरे में लौट कर वह कितनी उद्विग्न रही थी! वह उसके साथ जो कर रही थी, क्या वह ठीक था! तो क्या करे वह! लेकिन आखिर उसके ही साथ यह क्यों हुआ! जितनी दया खुद पर आई, उतनी ही उस पर भी।
जबसे ‘एक ठिकाना यह भी’ में जाने लगी थी, तब से अपनी असहायता से अधिक उसे उसकी असहायता सालने लगी थी। और एक अजीब-सा अपराधबोध उसे ग्रसने लगता। कभी-कभी तो उसका भोला-सा चेहरा देख उसका दिल ऐसा पसीज जाता कि जी होता, उसे किसी बच्चे की तरह सहला दे।
फिर स्वयं ही वह अपनी उस कल्पना से मानो दौड़ कर निकल आती और मन के स्थायी भाव उसको झिड़कने लगते- नहीं, नहीं तुम्हें कमजोर नहीं पड़ना है। जो रास्ता तुमने चुना है, वही सही है। हरेक इंसान का अपने आप के लिए भी कोई दायित्व होता है। ठीक है, अपने आप को तुष्ट करती है वह। तो क्या?
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बाबूजी ने शहर भर में ‘साहूकोठी’ के नाम से मशहूर इस घर की चाबियों समेत, बैंकों के, रुपए-पैसे के लेन-देन के भी सारे अधिकार और जिम्मेदारी उसी को सौंप दी थी। और जवाबदेही की कोई ताकीद नहीं। बहुत प्यार और परवाह भी इंसान को इस कदर फंसा देता है कि आप चाहते हुए भी उस शहद में फंसे अपने पंखों को नहीं छुड़ा सकते, नहीं उड़ सकते उससे निकल कर।
जितना खयाल वह बाबूजी और शांति जिज्जी की सुख-सुविधा का करती थी, उतना ही उस पति नाम के जीव की भी भौतिक जरूरतों का, उसके खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने से लेकर हारी-बीमारी में उसकी तीमारदारी का भी। संवेदना के धरातल पर वह उसके लिए जो भी कर सकती, करती थी, सिवाय उसके करीब जाने के। और शायद इसी अपराधबोध के चलते वह उस पर तरस खाते हुए बहुत कुछ जरूरत से ज्यादा भी करती थी। बाहर से कोई आता, तो समझ भी नहीं सकता था उनके रिश्ते को।
‘एक ठिकाना यह भी’ में जाना अब उसका नित्यक्रम बन गया था। घर में यही बताया था कि वहां वह सलाहकार के बतौर जाती है। पर धीरे-धीरे कैसे रोहिताश जी उसके जीवन का एक अभिन्न अंग बनते गए थे, यह बाबूजी से छिपा नहीं था, पर उन्होंने उससे न कभी कुछ कहा, न पूछा। बाबूजी ही क्या, धीरे-धीरे शहर में सभी को खबर लग गई थी और अब तो लोगों को उसे रोहिताश जी के साथ देखने की आदत ही हो गई थी।
जिस दिन पहली बार छुआ था रोहिताश जी ने उसको, लगा था जैसे अब तक तो कुमारी ही थी वह, अनछुई। बदन का पोर-पोर महकती-मचलती हवा में झूमते पत्ते की तरह कांपता रहा था देर तक। जिस देह को उसने अभी तक मृतप्राय समझा था, उस देहवीणा के तार-तार रोहिताश जी ने झनझना दिए थे। वही देह अब मन में भरपूर जीने की अद्भुत ललक जगा रही थी।
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संस्था में आने वाली बेसहारा स्त्रियों को वह कभी-कभी अपने घर भी ले आती, मित्रों-परिचितों को भी, पर रोहिताश जी ने कभी इस घर में कदम नहीं रखा था, न ही वे कभी बाबूजी या उसके पति से मिले थे, उसके घर आकर। वह जानती थी उन्हें कि वे कितने रिजर्व किस्म के व्यक्ति थे, न किसी से एक शब्द भी व्यर्थ बोलते, न सुनते। उसने स्वयं भी कभी उन पर ऐसा कोई दबाव नहीं डाला था।
बाबूजी को गए महीने भर से ज्यादा हो गया था। इस बीच रोहिताश जी से कभी ऐसे मिलना नहीं हो पाया कि दोनों अकेले हो पाते। क्या करे वह? कैसे मुक्त करे स्वयं को अपनी तमाम जिम्मेदारियों से! बाबूजी थे तो लगता नहीं था, पर घर की ज्यादातर जिम्मेदारियां वे ही निभाया करते थे। नौकर-चाकर थे, पर उनको भी तो निर्देश चाहिए थे।
बैंकों में पैसे थे, पर उनका संचालन भी तो किसी को करना होता था। और फिर बाबूजी थे, तो घर के इन दो असहाय जीवों को वे ही तो संभालते रहे थे, जब भी वह घर से बाहर होती। पर अब…
शांति जिज्जी को दवा देने उनके कमरे में आई थी, तभी रोहिताश जी का फोन आया, ‘पारु, फिर क्या सोचा तुमने? कब तक शिफ्ट करोगी यहां?’ कुछ कहने की स्थिति में कहां थी वह! फोन लेकर, शांति जिज्जी के कमरे से बाहर बालकनी में निकल आई। बात बदलते हुए बोली, ‘जिज्जी की तबियत ठीक नहीं। अभी-अभी लंच कराया था।
फिर से खाना मांग रही हैं। बाबूजी के रहते ही डाक्टर तो कह चुके थे- अल्झाइमर की शुरुआत है उनमें। पर अब तो हालत ज्यादा ही बिगड़ती लग रही है। कभी इनको देखती हूं, तो कभी उनको। उनकी भी आंखें तो पहले ही खराब थीं, अब मानसिक संतुलन और ज्यादा… महीने भर में चार बार डाक्टर को बुला चुकी हूं। बाबूजी पता नहीं कैसे संभालते थे दोनों को, मेरे पीछे! अभी तो पता नहीं कब तक मैं संस्था में आ ही नहीं पाऊंगी, इन दोनों को छोड़ कर।…’
‘सुनो पारु, ऐसे तो तुम कभी भी नहीं निकल पाओगी वहां से। इतना पैसा छोड़ गए हैं बाबूजी। दो नर्स रख दो न, दोनों के लिए।’ क्या कह रहे हैं, रोहिताश जी! वह सिर्फ अपनी खुशी के लिए दो अक्षम प्राणियों को उस समय असहाय छोड़ कर चली जाए, जब उन्हें उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है?… नहीं नहीं! शायद रोहिताश जी का ऐसा आशय नहीं होगा! मिलने की तड़प में शायद वे उसकी स्थिति नहीं समझ पा रहे होंगे। उसके मन में हूक-सी उठी- रोहिताश जी अब उसके बिना नहीं रह सकते।
न जाने उसे क्या सूझा, एकदम बोली, ‘रोहिताश जी, आप ही क्यों नहीं यहां चले आते, मेरे साथ रहने। कोई कुछ नहीं कहेगा। सबको पता है कि मेरा आपसे क्या रिश्ता है।…’
‘तुम पागल तो नहीं हो गई? मैं चला आऊं वहां, उस घर में…?’ और फिर व्यंग भरे स्वर में बोले, ‘समझ गया तुम्हें! तिमंजिला साहूकोठी का लोभ नहीं छोड़ पा रही हो न!’ उधर से फोन काट दिया गया था। फोन के साथ और भी क्या-क्या नहीं चीर दिया था रोहिताश जी ने! कीमती मोबाइल उसके हाथों से छूट कर, औंधा गिरा और उसका स्क्रीन तिड़क गया। उसके भीतर क्या टूटा था, कौन देखता!