Kejriwal Governance Failure: केजरीवाल वादों पर सवार होकर आए थे। वादा था कि जनहित के लिए राजनीति को बदल देंगे। लेकिन उन्होंने राजनीति से कुछ भी नहीं छोड़ा, हवा और पानी भी नहीं। वैकल्पिक राजनीति के नारे के साथ आई आम आदमी पार्टी अन्ना हजारे के 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उभरी थी, और केजरीवाल ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के चेहरों में से एक थे। हाफ शर्ट और चप्पल पहनकर केजरीवाल ने एक ऐसी छवि बनाई जो आम राजनेता से बिलकुल अलग थी। जेब में रखी कलम एक शिक्षित कार्यकर्ता का प्रतीक थी, जिसने व्यवस्था को स्वच्छ रखने के लिए भारतीय राजस्व सेवा की नौकरी छोड़ दी थी।
वर्ष 2013 की दिल्ली पूरी तरह से उम्मीदों से भरी थी
वर्ष 2013 की दिल्ली पूरी तरह उम्मीदों से भरी थी। आप का पहला प्रदर्शन और फिर 2015 में उसकी जबरदस्त जीत, उस पार्टी में भरोसे की अभिव्यक्ति थी, जिसने जमीनी स्तर पर बदलाव लाने का वादा किया था। यह आशा सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में महसूस की गई। केजरीवाल ने मुफ्त पानी, बिजली का वादा किया, उन्होंने बेहतर सरकारी स्कूल और नौकरियों का भी वादा किया। दिल्ली के लोगों ने इसका भरपूर लाभ उठाया और जनसमर्थन केजरीवाल, अखिल भारतीय नेता बनने के अपने सपनों को आकार देने की कोशिश में लग गए।
तब तक योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे कई आप नेता पार्टी से बाहर हो चुके थे, जिससे आप के भीतर की गलाकाट राजनीति सड़क पर आ गई थी। आप पूरी तरह से केजरीवाल और उनके वफादारों के इर्द-गिर्द सिमट गई। आरंभ में ही केजरीवाल ने सत्ता की स्वार्थी राजनीति में अपना भाग्य आजमाने का फैसला कर लिया। पूरी तरह से निरंकुश होने के कारण उन्होंने हर उस व्यक्ति को बेअसर कर दिया जो उनके प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता था या उनकी अंतरात्मा को झकझोरता था। केजरीवाल का पहला महत्त्वपूर्ण कदम प्रशांत भूषण समेत उन कई लोगों को बाहर करना था, जो आप की अंतरात्मा का प्रतिनिधित्व करते थे और लगातार उन्हें नैतिक संहिता की याद दिलाते थे। एक अन्य निंदनीय कदम में, उन्होंने दो अज्ञात लोगों – एक व्यवसायी और एक सीए जो उनकी जाति से संबंधित थे – को राज्यसभा में मनोनीत किया, पार्टी के लिए काम करने वाले दिग्गजों की अनदेखी करते हुए।
‘इंडिया अगेंप्ट करप्शन’ में अनुभवी पेशेवरों और बुद्धिजीवियों की मेजबानी के बावजूद, यह मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल थे, जिन्होंने चतुराई से नेतृत्व की बागडोर हथिया ली। उस समय यह बात सामने नहीं आई थी कि वे सत्ता के लिए कितने अत्यधिक लालायित हैं। सत्ता का स्वाद चखने के बाद जवाबदेही के बगैर वह और अधिक पाने के लिए लालायित थे। केजरीवाल को एहसास हुआ कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपना काम कर चुका है और उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र में प्रासंगिक बने रहने के लिए वास्तविक सत्ता की ओर जाना चाहिए।
वर्ष 2012 के अंत में केजरीवाल अन्ना हजारे से अलग हो गए। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) अन्ना आंदोलन द्वारा उत्पन्न व्यापक जन समर्थन और सद्भावना का फायदा उठाने के लिए दृढ़ संकल्प थी। उनकी प्रवृत्ति सही साबित हुई, क्योंकि 2013 के दिल्ली चुनाव में 70 विधानसभा सीटों में से 28 सीटें जीतकर उनकी पार्टी कांग्रेस और भाजपा से आगे निकल गई। वर्ष 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में, इस पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीतकर दो प्रमुख राजनीतिक दलों को धूल चटाते हुए शानदार जीत हासिल की। शुरूआती दौर में आप को राजनीति में एक नवीनता, एक घटना के रूप में देखा जा रहा था। लेकिन केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा और राजनीति अब दिल्ली के धुंध के बावजूद स्पष्ट दिखाई देने लगी थी।
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आप ने पंजाब में चुनाव लड़ा और 2022 में वहां सरकार बनाई। यह एक राष्ट्रीय पार्टी भी बन गई। लेकिन गोवा, गुजरात, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा समेत बाकी सभी जगहों पर यह विफल रही। फिर 2022 में दिल्ली शराब घोटाले का विस्फोटक मामला सामने आया। आरोप लगाया गया कि आप ने दिल्ली में शराब लाबी को नकदी के लिए बढ़ावा दिया, जिसका इस्तेमाल दूसरे राज्यों के चुनावों में किया गया।
एक समय ऐसा भी था जब दिल्ली मंत्रिमंडल का आधा हिस्सा जेल में था। केजरीवाल अपने भरोसेमंद मनीष सिसोदिया के साथ शराब मामले में तिहाड़ जेल में बंद थे। अब तक केजरीवाल अपनी चमक खो चुके थे। उन्होंने दिल्ली हर चीज पर राजनीति की, यहां तक कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं उस पर भी। यही बात भारी पड़ने लगी, जिसे वे महसूस नहीं कर पाए।
वर्ष 2015 में आप के चुनावी घोषणापत्र में दिल्ली में प्रदूषण को 66 फीसद तक कम करने का वादा किया गया था, लेकिन 2020 के घोषणापत्र से यह वादा गायब हो गया, जबकि धुंध और भी गहरा गई। केजरीवाल ने पहले कांग्रेस शासित पंजाब और फिर भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और हरियाणा को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। जन लोकपाल विधेयक और 2023 के बजट में 20 लाख नौकरियां पैदा करने जैसे कई वादों से वह पीछे हट गया, जिसे उसने रोजगार बजट नाम दिया। केजरीवाल दिल्ली की सड़कों को यूरोप की सड़कों जैसा बनाने और दिल्ली के सभी निवासियों को पीने योग्य पाइप वाला पानी उपलब्ध कराने के अपने वादों को पूरा करने से भी कोसों दूर रहे। अब तक लोगों को अच्छी तरह से पता चल चुका था कि वादे, खास तौर पर केजरीवाल के, टूटने के लिए ही होते हैं।
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शुरुआत में केजरीवाल की राजनीति शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं पर केंद्रित थी। धीरे-धीरे उनकी पूरी राजनीति मुफ्त योजनाओं पर केंद्रित हो गई. जनता को लुभाने के लिए मुफ्त बिजली, पानी, बस यात्रा जैसी योजनाओं का सहारा लिया गया लेकिन इससे सरकार की वित्तीय स्थिति कमजोर होती चली गई।
दूसरे, शुरुआत में केजरीवाल जनता के बीच जाने वाले नेता माने जाते थे लेकिन समय के साथ उनकी कार्यशैली बदल गई। केजरीवाल ने जिस ईमानदार और पारदर्शी राजनीति का वादा किया था, वह धीरे-धीरे सत्ता और संसाधनों के लालच में बदल गई। जनता ने उन्हें अर्श तक पहुंचाया था, लेकिन जब उन्होंने अपनी पहचान बदल ली, तो जनता ने उन्हें फर्श पर ला दिया।
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अगर आम आदमी पार्टी और टीम केजरीवाल अपनी नैतिक आभा नहीं खोते तो उनकी जीत जारी रहती। दरअसल 2013 से दिल्ली की राजनीति में मिलने वाली अपार लोकप्रियता से अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी के अपराजेय होने का भ्रम पैदा कर दिया था। उन्होंने जनता को अपने पीछे चलने वाली भीड़ समझ लिया। वे भूल गए कि जनता किसी व्यक्ति या दल के पीछे नहीं, बल्कि उन वादों, दावों और सपनों के साथ है, जिन्हें नई राजनीति के नारे के साथ अरविंद केजरीवाल और आप ने शुरू किया था। नई राजनीति में कट्टर ईमानदारी, सत्ता के तामझाम से दूर सादगी, आम जन से निकटता, राजनीति में शुचिता, सार्वजनिक नैतिकता की स्थापना, भ्रष्टाचार उन्मूलन और सर्व धर्म समभाव के मंत्र शामिल रखने के वादे थे।
वर्ष 2013 में दिल्ली के लोगों ने केजरीवाल में संभावना देखी। वर्ष 2015 में उन्हें अपार बहुमत मिला और 2020 में मुफ्त, बिजली, पानी, बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए उठाए गए कदमों पर मुहर लगाते हुए दोबारा भरोसा दिया। लेकिन वर्ष 2020 से 2025 के दौरान अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी रास्ता भटक गए। 2022 में दिल्ली नगर निगम की जीत ने आप और टीम केजरीवाल का मनोबल और बढ़ा दिया। इससे वे अति आत्मविश्वास के शिकार हुए, जो सत्ता के अहंकार में बदल गया। लोग अरविंद केजरीवाल से उनके किए गए स्वच्छ पानी, स्वच्छ सड़कें और सीवर समस्या हल ना कर पाने से भी नाराज थे। कई बार लोगों ने उनको वादाखिलाफी के लिए जिम्मेदार ठहराया। उप राज्यपाल और केंद्र सरकार के साथ उनकी रोजमर्रा की नोकझोंक ने पार्टी के तौर-तरीकों पर सवाल उठाया।
दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने से पहले से केजरीवाल और तमाम आप नेता यमुना की सफाई के मुद्दे को उठाते रहे हैं। तत्कालीन दिल्ली की सरकार को आड़े हाथों लेकर सभी नेताओं ने सरकार में आने पर नदी को साफ करने का दावा किया था। इसके बाद दिल्ली की जनता ने आप को सरकार बनाने का मौका दिया। हालांकि, 10 से ज्यादा साल तक सत्ता में रहने के बाद भी यमुना साफ नहीं हो पाई।
इस बार जब चुनाव प्रचार चल रहा था तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दिल्ली आकर केजरीवाल को चुनौती दी। इसके बाद केजरीवाल ने यमुना के जहरीले पानी का मुद्दा उठाया। उन्होंने इसका ठीकरा हरियाणा सरकार पर फोड़ा। इस पर पलटवार करते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने चुल्लू में यमुना का पानी पिया। चुनाव आयोग ने भी इस मुद्दे पर केजरीवाल से कठिन सवाल किए। इसके अलावा दिल्ली की खस्ताहाल सड़कें और बारिश के मौसम में जलभराव के मुद्दे ने भी केजरीवाल की मुश्किलें बढ़ाईं। भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही इस मुद्दे पर केजरीवाल और आप को घेरा।
शराब घोटाले और शीशमहल जैसे विवादों ने आप और केजरीवाल की नैतिक आभा को खत्म किया। अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, सत्येंद्र जैन की गिरफ्तारी और जेल यात्रा ने भाजपा को और ज्यादा हमलावर होने का मौका दे दिया। गिरफ्तार होने और जेल जाने के बावजूद मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र न देकर अरविंद केजरीवाल ने सार्वजनिक नैतिकता और राजनीतिक शुचिता के सार्वभौमिक मूल्य के संकल्प को तार-तार कर दिया।
उसके बाद केजरीवाल ने इस्तीफा देकर सिर्फ चुनाव तक आतिशी सिंह को मुख्यमंत्री बना दिया। इसकी जगह अगर केजरीवाल गिरफ्तार होते ही इस्तीफा देकर आतिशी को पूर्णकालिक मुख्यमंत्री बना देते तो उनकी नैतिक आभा बचती। लेकिन केजरीवाल को लगा कि जनता उनके हर सही और हर गलत फैसले को झूमते हुए सिर माथे लगा लेगी। केजरीवाल अपने नाराज नेताओं को भी नहीं संभाल सके।
अपने उदय के साथ, आप ने राजनीति और शासन का एक नया मुहावरा पेश किया। अब, अपने सबसे बुरे दौर में, इसे सही सबक सीखने और सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देने की जरूरत है। आप एक अंशकालिक विचारधारा के साथ पूर्णकालिक राजनीतिक पार्टी नहीं बन सकते। भाजपा का प्रभुत्व एक वास्तविकता है जिसे नकारा नहीं जा सकता। आप को इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए अपनी राजनीति तैयार करनी होगी। साथ ही, आप को पीड़ित दिखने की राजनीति का सहारा लेना छोड़ना होगा। वह अपनी हार के लिए कांग्रेस को दोषी ठहरा रही है- यहां अभी भी वह गलती कर रही है। यह तथ्यात्मक रूप से सही है कि कांग्रेस ने खेल बिगाड़ने का काम किया। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि क्या भाजपा को बाहर रखने के लिए अपनी राजनीतिक जमीन का त्याग करना अकेले कांग्रेस की जिम्मेदारी रही? जैसे-जैसे आप आगे बढ़ती गई, उसने अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान नहीं दिया। उसने कांग्रेस से असाधारण व्यवहार की उम्मीद रखी, उसने अपने इस सहयोगी की जमीन हड़पकर गोवा, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड जैसे राज्यों में विस्तार करने की कोशिश की। दिल्ली में तो उसका जनाधार ही कांग्रेस की जमीन पर बना। ऐसे में विपक्षी गठबंधन के स्वरूप को बनाए रखना क्या अकेले किसी एक की जिम्मेदारी थी?
वर्ष 2025 में दिल्ली में चुनाव के नजदीक आने पर केजरीवाल को एहसास हुआ कि अब उनकी कमर टूट चुकी है, तो उन्होंने हरियाणा के द्वारा यमुना के पानी को दिल्ली के निचले इलाकों में जहरीला करने का आरोप लगाया। दिल्लीवासियों ने इसे राजनीतिक हताशा का एक उदाहरण समझा। इस बीच, भाजपा ने वह काम किया जो वह सबसे बेहतर तरीके से करती है – अपना चुनावी रथ आगे बढ़ाना। वह केजरीवाल पर दबाव बनाती रही और आखिरकार भरपूर वार कर दिया।
एक व्यक्ति का असली चरित्र भयंकर विपत्ति में सामने आता है। वर्ष 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों ने केजरीवाल को एक अनैतिक राजनेता के रूप में सामने ला दिया। चार दु:स्वप्न दिनों में हुई तबाही मानवीय दुर्दशा का एक भयानक प्रदर्शन था, शायद 1984 में सिख नरसंहार के बाद सबसे बुरा। इस महत्त्वपूर्ण समय में मुख्यमंत्री गायब हो गए, यह दिखावा करते हुए कि कानून और व्यवस्था उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। बिना किसी लाग लपेट यह कहा जाए कि अरविंद केजरीवाल ने खुद ही अपनी और आम आदमी पार्टी की उम्मीदों पर पानी फेर दिया तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। सपाट शब्दों में कहें तो आम आदमी की छवि गढ़कर राजनीति में कदम रखने वाले केजरीवाल का सफर शीशमहल तक पहुंचने के बाद उनकी सादगी वाली छवि को ध्वस्त कर गया। शराब नीति घोटाले जैसे आरोप, तानाशाहीपूर्ण नेतृत्व शैली और अड़ियल रवैये ने जनता का भरोसा तोड़ा। नतीजा सामने है।