रूपा
सफलता का अर्थ है ऊपर उठना, उर्ध्वगामी होना। नीचे की तरफ गिरना, अधोगामिता, सफलता नहीं मानी जाती। इसलिए सफलता के लिए सारी कोशिशें इसी सिद्धांत के इर्द-गिर्द बनती-बुनी जाती हैं। यथास्थितिवाद किसी को स्वीकार्य नहीं। इसीलिए समाज निरंतर प्रवहमान बना रहता है। वह अपने पुराने हो चुके मूल्यों को खुद बदल लिया करता है। समाज का सिद्धांत है कि कुदरत ने पांव इसीलिए दिए हैं कि आगे बढ़ा जाए। पीछे चलने का स्वभाव पांव का है ही नहीं। आगे बढ़ते रहना ही तरक्की की निशानी है, उसी से सफलता के सूत्र बनते-विकसते हैं।
मगर सफलता ही जीवन का आत्यंतिक सूत्र नहीं है। इससे बड़ा मूल्य है सार्थकता। केवल सफलता अर्जित कर लें, केवल सफल हो जाएं, उसकी कोई सार्थकता न हो, तो उसका कोई मोल नहीं। वह सफलता व्यर्थ है। अगर आपकी सफलता से दूसरों को लाभ न पहुंचे, दूसरों को प्रसन्नता न मिले, उस सफलता का कोई अर्थ नहीं। सार्थकता का अर्थ है, ऐसी सफलता, जो दूसरों का कल्याण करे। आपने शिक्षा में अच्छी सफलता अर्जित कर ली, पर वह सार्थक तभी कही जाएगी, जब वह दूसरों के कल्याण के काम आए।
इसलिए सफलता के साथ सार्थकता भी जरूरी है। हमारी तमाम प्रार्थनाओं में ईश्वर से मांग की गई है कि वह सफलता और सार्थकता प्रदान करे। दृढ़ निश्चय, धैर्य और निरंतर प्रयास से सफलता तो मिल ही जाती है। जिसके प्रति गहरी तड़प पैदा हो जाए, वह मिल ही जाता है। ‘जेहि पर जेहि के सत्य सनेहू, मिलहिं सो तेहिं नहीं कछु संदेहू’। बाबा ने कहा। यह तो हुई सफलता कि जिसे चाहा, जो चाहा वह मिल जाए। मगर हर सफलता सार्थक भी हो, जरूरी नहीं।
सफलता की कसौटी है सार्थकता। मगर हमारे समय का सच यह है कि सफलता की दौड़ में सार्थकता का मूल्य खत्म हो गया है। हम सफल तो होना चाहते हैं, पर सार्थक होने की चाह शायद ही किसी में दिखती है। इसलिए सफलता का अर्थ भी सिकुड़ता गया है। अब सफल वही माना जाता है, जो खूब सारा धन इकट्ठा कर ले, चाहे वह किसी भी तरीके से करना पड़े।
ऐशो-आराम के तमाम सरंजाम जुटा ले, जो हर तरह की ताकत अर्जित कर ले। उसके एक इशारे पर सैकड़ों लोग सड़क पर उतर आएं, उसका सुरक्षा कवच अभेद्य हो। फिर इस तरह वह लंबा और सुखी जीवन जीता रहे।
मगर उपनिषद कहता है कि ‘मुहूर्तम् ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितम् चिरम्’। चाहे क्षण भर को ही जियो, पर श्रेय के साथ जीयो, सम्मान के साथ जीयो, धुएं के साथ, कालिख छोड़ते हुए, लंबे समय तक जीने की कोई सार्थकता नहीं है। मगर कितने लोग सफलता के पीछे भागते हुए खुद मूल्यांकन कर पाते हैं कि उनका जीवन तो कालिख छोड़ती लौ की तरह है, जो प्रकाश कम और धुआं अधिक छोड़ रही है, कालिख अधिक फैला रही है। उसमें कोई ताप भी नहीं। कोई ताब नहीं। कालिख भरा जीवन भी भला क्या जीवन हुआ।
मगर अब कालिख की किसे परवाह। कई लोग तो कहते मिल जाएंगे कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ। समाज की चिंता छोड़ दी है लोगों ने। व्यक्तिवादिता इस कदर महत्त्वपूर्ण हो उठी है कि करुणा, अपरिग्रह जैसे मूल्य की जैसे किसी को जानकारी ही नहीं रह गई। किसी को हमारे व्यवहार से, हमारे किए से तकलीफ होती है, तो होती रहे, हमारा मकसद सधना चाहिए। हमारी तिजोरी भरी रहनी चाहिए।
हमारे पास दुनिया के सारे सुख सरंजाम उपलब्ध रहने चाहिए। यही तो जीवन की सफलता है। इसीलिए अमीरी की अजीब अमानवीय दौड़ शुरू हो चुकी है। अमीर बनने की होड़ में अपने पीछे मुड़ कर, अपने अगल-बगल कोई देखना ही नहीं चाहता कि उस अमीरी ने कितनों को गरीब कर दिया। कितनों को पीड़ा पहुंची। कितने तकलीफ में जीने लगे। दूसरे की तकलीफ तो तब महसूस होती है, जब मन में करुणा होती है। करुणा आए कैसे, जब धन और भौतिक सुखों की भूख ने अंतस को कालिख से भर दिया हो।
अब तो शिक्षा-व्यवस्था ही कुछ ऐसी हो चली है कि वह बेहतर मनुष्य बनाने के बजाय सफल और कुशल कर्मचारी बनाने के सूत्र रटाती है। सफलता का अर्थ अब केवल धन है, अधिक वेतन और बेपनाह ‘ऊपरी कमाई’ है। बच्चा पैदा होता है और मां-बाप उसे ऐसा अधिकारी बनने की घुट्टी पिलाना शुरू कर देते हैं, जो खूब धन कमाए, चाहे जैसे कमाए। शिक्षक भी ऐसी ही नौकरियों के लिए बच्चों को प्रेरित कर रहे हैं।
किताबें सारी इसी मकसद से तैयार हो रही हैं। सफलता के सूत्र देने वाली किताबों की बाजार में मांग बहुत है। व्यवसाय में सफल मान लिए गए लोगों के जीवन के प्रेरक कथाएं तो खासतौर पर युवाओं को आकर्षित करती हैं। वे ऐसी किताबें पढ़ रहे हैं और सपने बुन रहे हैं उनकी तरह सफल होने के। ऐसे सैकड़ों प्रेरणादायक यानी ‘मोटिवेटर’ आ गए हैं, जो सफलता के मोहक नुस्खे बांट रहे हैं।
बड़े-बड़े होटलों में उनके भाषण होते हैं, लोग भारी रकम चुका कर उन्हें सुनने जाते हैं। कंपनियां ऐसे लोगों के प्रवचन आयोजित करती हैं। बहुत सारे ‘आध्यात्मिक’ कहे जाने वाले बाबा सफलता के सूत्र बांट रहे हैं। इस तरह सफल होने की एक दौड़-सी लगी हुई है।
मगर सार्थक होना शायद कोई नहीं चाहता। कोई नहीं चाहता कि वह धन जुटाने के बजाय लोगों के मन में जमी कालिख को साफ करे। जो ऐसा करने का दिखावा करता है, उसका मकसद भी धन ही होता है। मगर संतोष की बात यह है कि अब भी सार्थक वे लोग अधिक नजर आते हैं, जो तथाकथित सफल नहीं हैं।