रोहित कुमार
कबीर ने कहा- ‘अणी देसरा लोग अचेते, पग पग पर पछिताई’। इस दुनिया के लोग इतने बेसुध हैं कि गलतियां पर गलतियां करते रहते हैं, पछताते रहते हैं। पछताने के बाद भी वही-वही गलतियां करते हैं। एक ही गलती बार-बार करना कोई अच्छी बात नहीं। मगर गलती करके उस पर पछतावा होना, उसका पश्चात्ताप करना, बड़ी बात है। गलती करने के बाद उसका बोध ही नहीं रह जाए कि कुछ गलत हो गया है, तो यह सबसे खतरनाक बात है।
गलती के बाद स्वीकार करना और पश्चात्ताप करना बड़ी बात
गलती करके उसे सही ठहराना, एक आपराधिक वृत्ति है। जिन्हें गलतियां करने के बाद अहसास ही नहीं रह जाता कि उनसे कुछ गलत हो गया है। वे उसे सही ठहराने के लिए बार-बार गलतियां करते हैं। उसे अंत तक जिदवश सही ठहराने पर तुले रहते हैं, वह ठीक नहीं है। गलती करके अहसास हो जाए कि गलत हो गया। उसके लिए व्यक्ति माफी मांग ले, अपनी गलती स्वीकार कर ले, उसका पश्चात्ताप कर ले, तो उसके फिर वही गलती दोहराने की संभावना नहीं रह जाती। वह उस गलती को सुधार लेता है।
दरअसल, पश्चात्ताप वह अग्नि है, जिसमें व्यक्ति खुद अपने को तपाता है। वह उसमें अपनी गलती को गलाने का प्रयास करता है। अपने उस दुर्गुण को भस्म करने का प्रयास करता है, जिसके चलते वह गलती उससे हो गई। इसलिए पश्चात्ताप कोई बुरी बात नहीं। ईसाई धर्म में तो पश्चात्ताप को आत्मशुद्धि का बड़ा उपक्रम माना गया है। ईश्वर के सामने खड़े होकर अपनी गलती को स्वीकार करना, उसके लिए पछतावा प्रकट करना, ‘कनफेस’ करना उनकी पूजा पद्धति का ही एक अंग है।
गांधी भी तो मानते थे कि गलती करने से बड़े साहस की बात है, उसे स्वीकार करना। अगर आपकी किसी गलती से किसी का दिल दुखा है, उसे पीड़ा पहुंची है, तो उससे माफी मांग लेना, बड़े साहस की बात है। मगर माफी मांगने में बहुत सारे लोगों को अपनी हेठी समझ आती है। वे अड़े रहते हैं, अपनी गलती को सही ठहराने में। ऐसा नहीं कि वास्तव में उनके अंतरतम में यह बोध होता ही नहीं कि उनसे गलती हो गई है। अंतर कभी गलत को स्वीकार कर ही नहीं सकता। मगर हमारी हेठी न हो जाए, कोई हमें कमजोर न समझ ले, इसलिए हम अपनी उस गलती को सही ठहराने पर तुले रहते हैं। कबीर उसी गलती की बात करते हैं।
ऐसा भी संभव नहीं कि किसी व्यक्ति से गलती हो ही नहीं। मनुष्य से अज्ञानतावश या किसी भावावेश में, किसी वैचारिक दबाव में गलतियां हो ही जाती हैं। मगर बहुत सारे लोग जानबूझ कर भी गलतियां करते हैं, जानबूझ कर समाज और सत्ता के बनाए नियम-कायदों को ताक पर रख कर कुछ ऐसा करने का प्रयास करते हैं, जिससे केवल उनका स्वार्थ सधता है। ऐसे लोग प्राय: अपनी गलतियों को सही ठहराने का प्रयास करते रहते हैं। कोई न कोई नियम कायदा ऐसा निकाल लाते हैं, जिसके जरिए वे अपनी गलती को सही ठहरा सकें। नाजायज को जायज ठहरा सकें।
प्राय: लोग धनलिप्सा में ऐसा अधिक करते हैं। जानबूझ कर की गई गलती, फिर उसे सही ठहराने की कोशिश इसीलिए अपराध है। उसकी माफी नहीं है। उसके लिए दंड का प्रावधान है। मगर अज्ञानवश अगर कोई गलती हो गई है, किसी भावावेश में कोई भूल हो गई है, तो उसकी माफी बनती है। मगर इसके लिए भी जरूरी है कि उस भूल, उस गलती का अहसास उस व्यक्ति को हो जाए। वह उसके लिए पश्चात्ताप करे।
भावावेश में होती हैं ज्यादा गलतियां
जो जितना संवेदनशील होता है, उसके भावावेश में या किसी वैचारिक दबाव में कुछ ऐसा कर बैठने की अधिक संभावना होती है, जो गलती की श्रेणी में आती है। ऐसे लोग अपने करीबी रिश्तों को ही अधिक आहत कर बैठते हैं। उन्हें परिवार के किसी सदस्य से किसी तरह का असंतोष हो जाए, तो भावावेश में वे कुछ ऐसी बातें बोल बैठते या कोई ऐसा कदम उठा जाते हैं, जिससे उनके करीबियों को चोट पहुंचती है।
ऐसी गलतियों का अहसास भी उन्हें जल्दी ही हो जाता है। वे पश्चात्ताप से भर उठते हैं। संवेदनशील लोग खुद को पश्चात्ताप में अधिक तपाते हैं। जो पश्चात्ताप में खुद को तपाता है, उसके फिर से वह गलती करने की संभावना बहुत कम होती है। मुक्तिबोध ने कहा था- ‘भूल गलती आज बैठी है जिरहबख्तर पहन कर तख्त पर दिल के’। गलती का अहसास मन पर बोझ की तरह महसूस होने लगे, तो उसका शमन आवश्यक है।
अपनी गलतियों का, अपनी भूलों का शमन व्यक्ति खुद कर ले, तो उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। यही शास्त्रों की सीख है कि गलती हो जाए, तो उसका स्वीकार कर लेने से व्यक्ति पाप का भागी बनने से बच जाता है। मगर हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या यही बनती जा रही है कि हम गलतियां जानबूझ कर ज्यादा करते जा रहे हैं। जानबूझ कर की गई गलतियों के प्रति स्वीकार भाव, उन्हें लेकर पश्चात्ताप का भाव कभी पैदा ही नहीं होता। पश्चात्ताप का भाव न पैदा हो, तो मानवीय गुण धीरे-धीरे समाप्त होते जाते हैं।
मनुष्य दूसरों के प्रति संवेदनशील नहीं रह जाता। दूसरों के दुख-दर्द उसे महसूस नहीं होते। वह दूसरों की पीड़ा में आनंद लेने लगता है। इतना ही नहीं, वह खुद दूसरों को दुख पहुंचा कर पीड़ा देकर आनंद लेने लगता है। हमारे समाज में आपराधिक गतिविधियों में बढ़ोतरी हो रही है, तो इसकी बड़ी वजह यही है कि लोगों में अपनी गलतियों का अहसास नहीं हो पाता। उनमें बहुत सारे लोगों ने जानबूझ कर की जाने वाली गलतियों को सही मान लिया है।
जिसे अपनी गलतियों का अहसास नहीं, वे दूसरों को माफी भी नहीं दे सकते। जितना जरूरी अपनी गलतियों का अहसास होना है, उससे कहीं अधिक जरूरी क्षमा करने का भाव जरूरी है। दोनों अन्योनाश्रित भाव हैं। एक के स्वीकार भाव से ही दूसरा भाव सधता है। इसलिए अपनी गलतियों के प्रति स्वीकार भाव विकसित करने के लिए उसका निरंतर अभ्यास जरूरी है। इसके प्रति सतर्क रहना जरूरी है।