विवेकानंद के जीवन से जुड़ी एक कथा बार-बार सुनाई जाती है। वे एक नदी किनारे नाव की प्रतीक्षा में बैठे थे। नाव को आने में देर लग रही थी। वह उस पार थी। तभी एक साधु वहां उपस्थित हुए। उन्होंने विवेकानंद को देखा तो पूछा, ‘अगर मैं गलत नहीं, तो आप विवेकानंद हैं!’

विवेकानंद ने मुस्करा कर हां कहा, तो साधु ने पूछा, ‘नदी किनारे कैसे बैठे हैं।’ विवेकानंद ने बताया कि वे नाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह सुनना था कि साधु जोर से अहंकारपूर्ण हंसी हंसा, ‘अरे मैं तो समझता था कि आप बहुत सिद्ध पुरुष हैं। आपने बहुत साधना की हुई है। मगर आप तो एक सामान्य व्यक्ति की तरह नदी किनारे बैठ कर नाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं। आपसे अधिक साधना तो मैंने कर रखी है। मुझे नाव लेने की जरूरत नहीं पड़ती। पानी पर चल कर पार पहुंच जाता हूं। विश्वास न हो, तो अभी दिखाता हूं।’

फिर अहंकार में तना वह साधु खड़ाऊं पहने पानी पर चलता हुआ नदी के बीच तक गया और फिर वापस लौट कर विवेकानंद के पास आ गया। उसने बड़े गर्व से कहा, ‘इसे कहते हैं सिद्धि। अगर आपने सचमुच साधना की होती, सिद्धि प्राप्त की होती, तो मेरी तरह पानी पर चलते हुए अब तक नदी के उस पार पहुंच चुके होते। नाव की जरूरत नहीं पड़ती।’

साधु की बात सुन कर विवेकानंद मुस्कराए। पूछा, ‘कितने दिन लगे आपको यह सिद्धि प्राप्त करने में।’ साधु ने कहा, ‘अब तक का सारा जीवन ही मैंने इसके लिए खर्च कर दिया।’ तब विवेकानंद ने कहा, ‘जब चार आने देकर नाव से नदी पार की जा सकती है, तो फिर इतने से काम के लिए, सिद्धि प्राप्त करने के लिए जीवन क्यों खपाया जाए। आपकी सिद्धि का मोल तो चार आने से अधिक न हुआ।’

हममें से बहुत सारे लोग इसी तरह ‘चार आने’ की सिद्धियां प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हैं। टुच्ची सफलताओं के लिए जीवन खपाए दे रहे हैं। अगर सचमुच सफलता का अर्थ समझ आ जाए, तो शायद जीवन की दिशा ही बदल जाए। पता नहीं विवेकानंद की बात सुन कर उस साधु के जीवन की दिशा बदली या नहीं।