मनुष्य की मुश्किल यह है कि अक्सर भाषा उसके भावों, विचारों का साथ नहीं दे पाती। अगर दोनों के बीच तालमेल बैठ जाए, तो उसके जीवन के बहुत सारे झगड़े समाप्त हो जाएं। अक्सर देखा गया है कि जहां मनुष्य के भाव भाषा में प्रकट नहीं हो पाते, वहां वह शारीरिक रूप से प्रतिक्रिया देता है और वह प्रतिक्रिया अक्सर हिंसा होती है। दरअसल, भाषा आपको थोड़ा संयम देती है, ठहर कर सोचने का वक्त देती है, जब वह वक्त नहीं मिल पाता और भाव तीव्र होते हैं, तो शारीरिक प्रतिक्रिया अक्सर हिंसा का रूप ले लेती है।
बुद्ध के जीवन से जुड़ी कथा है। एक व्यक्ति बुद्ध के विचारों से असहमत था। इतना कि वह उनसे घृणा करने लगा था। एक बार वह बुद्ध के पास आया। काफी क्रोध में था। कांप रहा था। मगर उसकी भाषा उसका साथ नहीं दे रही थी। वह भावावेश में था। जब भाषा साथ नहीं दे पाई तो वह क्रोध में बस बुद्ध के सामने थूक कर चला गया। बुद्ध के पास ही आनंद खड़े थे।
उस व्यक्ति की इस हरकत पर उन्हें भी कुछ क्रोध आया। आनंद इस तरह आवेशित हो ही जाया करते थे। बुद्ध ने आनंद को रोका। कहा- दरअसल, वह व्यक्ति भावावेश में था। भाषा उसके भावों को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही थी, इसीलिए वह ऐसा कर गया। जब वह कुछ शांत होगा, तो उसे समझ में आ जाएगा कि जो उसने किया, वह ठीक नहीं था। और हुआ वही। कुछ दिनों बाद वही व्यक्ति फिर आया। अबकी बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। अपने पहले के व्यवहार के लिए क्षमा मांगी। बुद्ध ने आनंद की ओर देखा। आनंद समझ गए।
ऐसा कभी न कभी हर किसी के जीवन में होता है। तीव्र घृणा, क्रोध की अवस्था में अक्सर भाषा भावों का साथ देना बंद कर देती है। तब वह शारीरिक प्रतिक्रिया ही दे पाता है। फिर जब शांत होता है, तो उसे अपने किए पर पछतावा होता है। मगर संयमी तो वह है, जिसने अपने भावों और भाषा के बीच संतुलन बिठा लिया है। जिसने शरीर पर भावों के प्रभाव को काबू करना सीख लिया है।