राजा जनक को विदेह भी कहते हैं। विदेह इसलिए कि उन्होंने शरीर से ऊपर उठ कर मनुष्य की वास्तविक सत्ता को प्राप्त कर लिया था। शरीर को जिन भौतिक चीजों की जरूरत महसूस होती है, उनके प्रति तटस्थ भाव अर्जित कर लिया था। बाहरी दुनिया से निर्लिप्त। इस तरह पुराणों में वही एक ऐसे राजा मिलते है, जो किसान भी हैं। खुद खेत जोतते है। उसी खेत जोतने के दौरान उन्हें सीता मिलती है। राजा को नौकर-चाकर की भला क्या कमी, मगर जनक खुद खेत जोतते हैं।

राजा होने का कोई अहंकार नहीं, कोई ठसक नहीं। इसलिए कि वे बाहरी दुनिया से निर्लिप्तत हो चुके हैं। वे अपनी भीतरी दुनिया को जान चुके हैं। अष्टावक्र जैसे ज्ञानीसे तत्त्व ज्ञान लेते हैं। ऐसे-ऐसे सवाल पूछ देते हैं कि अष्टावक्र भी कई बार उलझ जाते हैं। जो अपने भीतर उतर गया है, उसे बाहर का संताप नहीं रह जाता। देह से ऊपर उठने का, जनक एक अद्भुत उदाहरण हैं। जो बाहरी दुनिया से निर्लिप्त हो गया है, वही बाहरी दुनिया को सुंदर बनाने का जतन भी अच्छी तरह कर सकता है। जिस पर बाहरी दुनिया को भोगने की सनक सवार हो, वह तो इस पृथ्वी को इस प्रकृति को रौंदेगा ही।

कथा है कि जनक के महल में आग लग गई। पूरा गांव परेशान कि आग कैसे बुझे। सब भाग कर पानी ला रहे थे, आग बुझाने में जुटे थे। मगर राजा जनक महल से दूर कहीं खेतों में काम कर रहे थे। उन्हें सूचना पहुंचाई गई। वे मुस्कराए और कहा- मैं वहां जाकर भी क्या कर सकता हूं, आग तो महल को जला ही डालेगी। फिर अपने काम में जुट गए। यानी जो सरंजाम जुटाए हैं, उन्हें भी भस्म हो जाने का गम नहीं। फिर जुट जाएंगी जरूरत की चीजें। मगर कोई साधारण मनुष्य हो तो उसे दिल का दौरा पड़ सकता है।