इंटरनेशनल लिक्विड क्रिस्टल सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष थे। चंद्रशेखर का जन्म कोलकाता में हुआ था। उन्होंने 1951 में नागपुर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी के साथ भौतिकी में एमएससी की डिग्री प्राप्त की थी। उसके बाद, वे अपने मामा सीवी रमण के मार्गदर्शन में भौतिकी में डाक्टरेट के लिए रमण रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआइ), बंगलुरु चले गए। उनके शोध का मुख्य विषय कई क्रिस्टलों पर आप्टिकल घूर्णी फैलाव के माप से संबंधित था। फिर वे छात्रवृत्ति पर कैवेंडिश प्रयोगशाला गए और कैंब्रिज विश्वविद्यालय से दूसरी डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की। मुख्य रूप से उन्होंने क्रिस्टल से न्यूट्रान और एक्स-रे प्रकीर्णन में विलुप्त होने के सुधार पर काम किया।
मैसूर विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के पहले अध्यक्ष रहे
फिर 1961 में वे भारत लौट आए और उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के पहले अध्यक्ष के रूप में कर्यभार संभाला। यहीं पर उन्होंने अपना पूरा ध्यान तरल क्रिस्टल की ओर लगाया। फिर उन्होंने 1988 में छड़ जैसे अणुओं से बने तरल क्रिस्टल की खोज की। चंद्रशेखर और उनके सहकर्मियों ने कोलेस्टेरिक तरल क्रिस्टल के आप्टिकल गुणों का अध्ययन करने के लिए प्रतिबिंब के गतिशील सिद्धांत के अनुप्रयोग में योगदान दिया, जिसमें एक पिच के साथ एक पेचदार संरचना होती है।
1971 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा आरआरआइ में तरल क्रिस्टल प्रयोगशाला स्थापित करने के लिए चंद्रशेखर को आमंत्रित किया गया था। इससे उनके काम करने की क्षमता पर काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा। जल्द ही कई नए प्रयोगात्मक और कुछ सैद्धांतिक परिणाम सामने आए और आरआरआइ में तरल क्रिस्टल प्रयोगशाला दुनिया में अनुसंधान के अग्रणी केंद्रों में से एक बन गई।
ट्विस्टेड नेमैटिक तरल क्रिस्टल डिस्प्ले का आविष्कार 1971 में यूरोप में किया गया था, फिर एलसीडी ने व्यावसायिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण डिस्प्ले के रूप में सीआरटी को विस्थापित कर दिया। चंद्रशेखर और उनके सहयोगियों ने भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड (बीईएल), बंगलुरू के सहयोग से घरेलू बाजार के लिए सरल एलसीडी के निर्माण के लिए स्वदेशी तकनीक विकसित की।
चंद्रशेखर के वैज्ञानिक करिअर में उत्कृष्ट समय 1977 में आया, जब उन्होंने और उनके सहकर्मियों ने छड़ों के बजाय डिस्क के आकार के अणुओं से बने तरल क्रिस्टल की खोज की। इससे संबंधित शोधपत्र प्रकाशित हुआ, तो वह तरल क्रिस्टल के क्षेत्र में सर्वाधिक उल्लेखनीय शोधपत्र साबित हुआ। उसके बाद, डिस्क जैसे अणुओं वाले कुछ हजार यौगिकों को संश्लेषित किया गया। 1996 में इस विषय पर एक और बदलाव किया गया, जब जापानी वैज्ञानिकों ने एक और नए प्रकार के (केले के आकार के) अणु से बने यौगिकों द्वारा प्रदर्शित नए प्रकार के तरल क्रिस्टलीय चरणों की खोज की, जिनमें मुड़े हुए कोर थे।
तरल क्रिस्टल पर चंद्रशेखर की पुस्तक काफी लोकप्रिय हुई
वर्ष 1977 में कैंब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस ने तरल क्रिस्टल पर चंद्रशेखर की पुस्तक प्रकाशित की, जो काफी लोकप्रिय हुई और इसका रूसी और जापानी में अनुवाद किया गया। चंद्रशेखर ने कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का भी आयोजन किया, जिसमें 1973 में आरआरआइ की स्थापना की रजत जयंती के अवसर पर आयोजित सम्मेलन भी शामिल था। चंद्रशेखर द्वारा आयोजित कुछ प्रमुख सम्मेलनों में 1982 में नौवां अंतरराष्ट्रीय तरल क्रिस्टल सम्मेलन और 1986 में दूसरा एशिया-प्रशांत भौतिकी सम्मेलन शामिल हैं। 1990 में आरआरआइ से सेवानिवृत्त होने के बाद चंद्रशेखर ने बीईएल द्वारा उपलब्ध कराई गई एक इमारत में तरल क्रिस्टल अनुसंधान केंद्र शुरू किया।
चंद्रशेखर की वैज्ञानिक उपलब्धियों के लिए कई सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें भारतीय विज्ञान अकादमी और भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी सहित भारत की सभी तीन वैज्ञानिक अकादमियों का फेलो चुना गया । उन्हें 1983 में रायल सोसाइटी का फेलो चुना गया था, और वे इंस्टीट्यूट आफ फिजिक्स (लंदन) के फेलो भी थे। वे 1990-92 तक इंटरनेशनल तरल क्रिस्टल सोसाइटी के संस्थापक अध्यक्ष थे। उन्हें रायल सोसाइटी का पदक, यूनेस्को का नील्स बोहर अंतरराष्ट्रीय स्वर्ण पदक भी उन्हें दिया गया था। उन्हें पद्म भूषण और फ्रांसीसी सरकार द्वारा नाइट आफ द आर्डर आफ एकेडमिक पाम्स सम्मान से भी विभूषित किया गया था।