शांति स्वरूप भटनागर का जन्म ब्रिटिश भारत के शाहपुर जिले (अब पाकिस्तान) के भेरा में हुआ था। जब वे मात्र आठ महीने के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया। उनका बचपन उनके नाना के घर गुजरा। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सिकंदराबाद के दयानंद एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल में हुई। सन 1911 में उन्होंने लाहौर के नव-स्थापित दयाल सिंह कालेज में दाखिला लिया। सन 1913 में पंजाब यूनिवर्सिटी से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उसके बाद उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कालेज से 1916 में बीएससी और सन 1919 में एमएससी की परीक्षा उत्तीर्ण की।

शांतिस्वरूप भटनागर को विदेश में पढ़ने के लिए ‘दयाल सिंह ट्रस्ट’ से छात्रवृत्ति मिली और वे अमेरिका के लिए रवाना हो गए, पर उन्हें अमेरिका जाने वाले जहाज पर सीट नहीं मिल सकी, क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के चलते जहाज की सभी सीटें अमेरिकी सेनाओं के लिए आरक्षित कर दी गई थीं।

तब ट्रस्टी ने उन्हें यूनिवर्सिटी कालेज लंदन में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक प्रोफेसर फ्रेडरिक जी. डोनन के निर्देशन में पढ़ने की अनुमति दे दी। सन 1921 में उन्होंने डाक्टर आफ साइंस (डीएससी) की उपाधि अर्जित की। लंदन प्रवास के दौरान वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग ने उन्हें ढाई सौ पाउंड सालाना फेलोशिप भी प्रदान की थी।

अगस्त 1921 में वे भारत वापस आ गए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हो गए। तीन साल तक वहां अध्यापन किया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलगीत की भी रचना की। वहां तीन साल गुजारने के बाद वे लाहौर चले गए, जहां उन्हें पंजाब यूनिवर्सिटी में ‘फिजिकल केमिस्ट्री’ का प्रोफेसर और विश्वविद्यालय के रासायनिक प्रयोगशालाओं का निदेशक नियुक्त किया गया।

इस दौरान उन्होंने ‘इमल्सन्स’, ‘कोल्लोइड्स’ और औद्योगिक रसायन शास्त्र पर कार्य किया पर ‘मैग्नेटो-केमिस्ट्री’ के क्षेत्र में उनका योगदान सबसे अहम रहा। सन 1928 में उन्होंने केएन माथुर के साथ मिलकर ‘भटनागर-माथुर मैग्नेटिक इंटरफेरेंस बैलेंस’ का आविष्कार किया। यह चुंबकीय प्रकृति ज्ञात करने के लिए सबसे संवेदनशील यंत्रों में एक था। बाद में एक ब्रिटिश कंपनी ने इसका उत्पादन भी किया।

आजादी के बाद भटनागर ने देश में विज्ञान एवं प्रद्योगिकी के आधारभूत ढांचे और नीतियों को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई युवा और होनहार वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन और प्रोत्साहित किया। वे ‘रमन प्रभाव’ पर सीवी रमन और केएस कृष्णन द्वारा किए जा रहे कार्यों पर भी गौर करते थे। उन्होंने शिक्षा मंत्रालय में सचिव के पद पर कार्य किया और भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार भी रहे।

‘वैज्ञानिक श्रमशक्ति समिति रिपोर्ट 1948’ के गठन और विचार-विमर्श में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यावहारिक रसायन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया और ‘नेशनल रिसर्च डेवलपमेंट कारपोरेशन’ (एनआरडीसी) की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश में ‘औद्योगिक शोध आंदोलन’ के प्रवर्तन और सन 1951 में तेल कंपनियों से ‘आयल रिफायनरीज’ स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आजादी के बाद 1947 में शांति स्वरूप भटनागर के नेतृत्व में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) की स्थापना की गई और उन्हें इसका पहला महानिदेशक बनाया गया। उन्हें ‘शोध प्रयोगशालाओं का जनक’ कहा जाता है। भटनागर ने भारत में कुल बारह राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं स्थापित कीं।

भारत में विज्ञान के विकास में इनके महत्त्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उनकी मृत्यु के उपरांत, सीएसआइआर ने ‘भटनागर पुरस्कार’ की शुरुआत की घोषणा की। यह पुरस्कार विज्ञान के हर क्षेत्र के कुशल वैज्ञानिकों को दिया जाता है। भारत सरकार ने सन 1954 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।