उन्होंने भारतीय स्त्रियों को दयनीय स्थिति से बाहर निकालने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। पंडिता रमाबाई का जीवन इस बात का प्रमाण है कि अगर व्यक्ति दृढ़ निश्चय कर ले तो गरीबी, अभाव, दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। उनकी सफलता का रहस्य था- प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना। उनका जन्म मैसूर रियासत में हुआ था। उनके पिता विद्वान और स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे। पर उस समय की पारिवारिक रूढ़िवादिता इसमें बाधा बनी रही।

पिता रमा के बचपन में ही साधु-संतों की मेहमाननवाजी के कारण निर्धन हो गए और उन्हें पत्नी तथा रमा की एक बहन और भाई के साथ गांव-गांव घूम कर पौराणिक कथाएं सुनाकर पेट पालना पड़ा। पंडिता रमाबाई असाधारण प्रतिभा की धनी थीं। अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके बारह वर्ष की उम्र में ही उन्होंने बीस हजार श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण उन्होंने मराठी के साथ-साथ कन्नड़, हिंदी, तथा बांग्ला भाषाएं भी सीख लीं। बीस वर्ष की उम्र में ही रमाबाई को संस्कृत ज्ञान के लिए सरस्वती और पंडिता की उपाधियां प्रदान की गई थीं। तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी जाने लगीं।

1876-1877 के भीषण अकाल में दुर्बल पिता और माता का देहांत हो गया। अब ये बच्चे पैदल भटकते रहे और तीन वर्ष में इन्होंने चार हजार मील की यात्रा की। बाईस साल की उम्र में रमाबाई का विवाह हो गया। उसके बाद उन्होंने बाल विवाह के विरोध में और विधवाओं की स्थिति पर बोलना शुरू किया। मेडिकल की उपाधि हासिल करके वे ब्रिटेन चली गईं। फिर अमेरिका से स्नातक की उपाधि ली। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने पुणे में आर्य महिला समाज की स्थापना की।

फिर रमाबाई ने कोलकाता में बाल विधवाओं और विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। उनके संस्कृत ज्ञान और भाषणों से बंगाल के समाज में हलचल मच गई। भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने अछूत जाति के एक वकील से विवाह किया, पर एक नन्ही बच्ची को छोड़ कर डेढ़ वर्ष बाद हैजे से उनकी मृत्यु हो गई। अछूत से विवाह करने के कारण रमाबाई को कट्टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और वे पूना आकर स्त्री-शिक्षा के काम में लग गईं। उनकी संस्था आर्य महिला समाज की शीघ्र ही महाराष्ट्र भर में शाखाएं खुल गईं।

मेधावी क्रेटर शुक्र ग्रह के एक गड्ढे का नाम है, जिसे रमाबाई मेधावी के नाम पर रखा गया था। शुक्र ग्रह को भोर का तारा भी कहा जाता है। इस ग्रह पर बहुत बड़े-बड़े गड्ढे हैं। इन गड्ढों का नाम कुछ प्रसिद्ध महिलाओं के नाम पर रखा गया है। अमेरिका में उनके प्रयत्न से रमाबाई एसोसिएशन बना, जिसने भारत के विधवा आश्रम का दस वर्ष तक खर्च चलाने का जिम्मा लिया। इसके बाद वे 1889 में भारत लौटीं और विधवाओं के लिए ‘शारदा सदन’ की स्थापना की। बाद में ‘कृपा सदन’ नामक एक और महिला आश्रम बनाया।

पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी, जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सकें। उन्होंने मुक्ति मिशन शुरू किया, जो ठुकराई गई महिलाओं-बच्चों का ठिकाना था। सन 1919 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कैसर-ए-हिंदी’ के तमगे से नवाजा था।