हुक्म नहीं मानने वाली या आदेश को सही ढंग से नहीं समझकर उसका तुरंत पालन नहीं करने वाली पत्नी की पिटाई एक कड़ुवी सच्चाई है। यह बात भारत-पाकिस्तान समेत कई अन्य दक्षिण एशियाई देशों में कराए गए सर्वेक्षणों से निकलकर आ चुकी है। इन सर्वेक्षणों से पहले भी कई बार आश्चर्यजनक रूप से यह साबित करने की कोशिश भी की गई है कि अपने पति के हाथों पिटाई को पत्नी बुरा नहीं मानती। हाल में, बात ऐसे सर्वेक्षणों से आगे बढ़कर इस संबंध में कानून बनाने तक पहुंच गई और इसकी एक पहलकदमी पड़ोसी देश पाकिस्तान में हुई है।

वहां एक शीर्ष इस्लामिक संगठन ‘द काउंसिल आॅफ इस्लामिक आइडियोलॉजी’ (सीआईआई)ने महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक विधेयक पेश किया, जिसमें कई अन्य विवादित बातों के साथ सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि अगर बीवियां अपने शौहर की बात नहीं मानती हैं तो पति उनकी हल्की पिटाई कर सकते हैं। पिटाई ऐसी होनी चाहिए, जिससे कि पत्नी की हड्डी न टूटे और शरीर पर कोई जख्म न आए। डेढ़ सौ से ज्यादा पन्नों के विधेयक में औरतों पर कई और पाबंदियां लगाने की सिफारिशें की गई हैं। जैसे अगर बीवी अपने शौहर की बात नहीं मानती है, उसकी मर्जी के मुताबिक कपड़े नहीं पहनती है और शारीरिक संबंध बनाने को तैयार नहीं होती है तो पति को यह हक मिलना चाहिए कि वह अपनी पत्नी की थोड़ी पिटाई कर सके।

यही नहीं, अगर कोई औरत हिजाब नहीं पहनती है, अजनबियों के साथ बात करती है, तेज आवाज में बोलती है और अपने पति की सहमति के बगैर लोगों की रुपए-पैसे से मदद करती है तो उसकी पिटाई करने की भी इजाजत मिलनी चाहिए। सीआईआई के इस विधेयक को नजरअंदाज करना मुश्किल है, क्योंकि इस संगठन को पाकिस्तान सरकार का समर्थन-संरक्षण हासिल है और यह संगठन देश की संसद को इस्लामी कानून के हिसाब से कानून बनाने के प्रस्ताव देता है। हालांकि, पाक संसद इन प्रस्तावों को मानने के लिए बाध्य नहीं है, लेकिन जड़ और बंद समाजों में महिलाओं के हको-हकूक का ख्याल रखने के नाम पर कब और कैसे ऐसी सिफारिशों को अमल में लाया जाने लगे, कोई कह नहीं सकता।

यही वजह है कि इन दिनों पाकिस्तान में महिलाओं ने सीआईआई के इस प्रस्तावित विधेयक के खिलाफ मोर्चा खोल लिया है और वे ऐसी सिफारिशों को मूर्खतापूर्ण और महिलाओं के खिलाफ हिंसा भड़काने वाला बता रही हैं। हालांकि, सीआईआई के मसविदा विधेयक में पिटाई के प्रस्ताव के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि महिलाओं को वे सारे हक मिलेंगे जो शरिया में उन्हें दिए गए हैं। असल में, इन प्रस्तावों की शुरुआत इस साल पाकिस्तान की पंजाब असेंबली से हुई थी, जिसने महिला सुरक्षा से जुड़ा एक विधेयक पारित किया था, पर उसे सीआईआई और अन्य मजहबी पार्टियों ने गैरइस्लामिक बताकर खारिज कर दिया था। ऐसा ही एक अन्य विधेयक खैबर पख्तूनख्वा सरकार ने भी काउंसिल के पास विचार के लिए भेजा था, जिसे सीआईआई ने ठुकराते हुए कहा था कि इसकी जगह वह एक मॉडल विधेयक तैयार करेगा। पत्नी की पिटाई का ताजा प्रस्ताव उसकी मॉडल विधेयक का हिस्सा है।

पाकिस्तान ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर समाजों में यह सोच बेहद आम है कि महिलाएं प्रताड़ना या कहें कि पिटाई के लिए ही बनी हैं और हफ्ते-पंद्रह दिन में एकाध मौकों पर ऐसा कर लेने में कोई हर्ज नहीं है। खास तौर से तब जब वे अच्छा खाना न पकाएं, सास-ससुर की सेवाटहल में कमी छोड़ दें, पति के कामकाज में सहयोग देने की बजाय खुद पर ध्यान देने और उसके लिए वक्त निकालने की मांग करें। इन्हीं कायदों का हवाला देते हुए तकरीबन पूरी दुनिया में पत्नी प्रताड़ना के मामले जागरूकता के बावजूद बढ़ रहे हैं। यह तथ्य 2013 में लंदन स्कूल आॅफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन और साउथ अफ्रीका मेडिकल रिसर्च काउंसिल के साथ मिलकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) द्वारा किए गए अध्ययन में भी सामने आए हैं।

अध्ययन में बताया गया था कि दुनिया भर में एक तिहाई से ज्यादा महिलाएं घर और समाजों के भीतर शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार हैं और आंकड़े गवाह हैं कि दुनिया में महिलाओं के प्रति हिंसा की समस्या महामारी के स्तर पर पहुंच चुकी है। इस रिपोर्ट के अनुसार करीब पैंतीस फीसद महिलाएं अपने करीबी साथी या दूसरे की हिंसा का शिकार होती हैं। घर की चारदीवारी के भीतर महिलाओं के लिए साथी या पति की हिंसा का सामना करना आम बात हो गई है। इस तरह की हिंसा से भी तीस फीसद महिलाएं पीड़ित हैं। पिछड़े देशों में तो हालात और भी खराब है क्योंकि वहां तो बाकायदा कानून बनाकर ऐसे पुरुषों को पत्नी की प्रताड़ना के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

पाकिस्तान में सीआईआई के प्रस्तावित विधेयक की तरह ही 2014 में अफगानिस्तान की संसद ने भी एक नया कानून पास किया था जिसके अनुसार पत्नी, बेटियों और बहनों को पीटने वाले पुरुष को अपराधी नहीं माना जाएगा, बशर्ते उसने यह काम समाज में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की खातिर किया हो। अफगानी संसद में पास किया गया वह कानून बाल विवाह के बाद ससुराल में प्रताड़ना झेल रही एक बाल-बहू (चाइल्ड ब्राइड) सहर गुल से जुड़ा हुआ था। मामला यह था कि जब सहर गुल ने ससुराल वालों के दबाव के बावजूद पैसा कमाने के मकसद से वेश्यावृत्ति करने से इनकार कर दिया तो उसे घर के तहखाने में भूखे-प्यासे रखकर और जंजीरों में जकड़ कर प्रताड़ित किया गया। ऐसी सोच और कानूनों से पुरातनपंथी एशियाई समाजों की स्त्री विरोधी मानसिकता की एक झलक तो मिलती ही है।

कम-ज्यादा मात्रा में महिलाओं के प्रति यह रवैया दुनिया के अन्य समाजों में भी कायम है। आर्थिक तरक्की और तमाम तरह के आधुनिक विचारों के बावजूद स्त्रियों को कई समाजों में आज भी पुरुषों की जागीर की तरह देखा जाता है। ऐसे में अगर कोई स्त्री पुरुषों के मन-मुताबिक आचरण नहीं करती तो उसे मारने-पीटने, जंजीरों में जकड़ने, सिगरेट से जलाने, चेहरे पर तेजाब फेंकने और भूखे रखकर मार डालने का अलिखित अधिकार पुरुषों को दिया गया है। भोजन पकाने या घर के काम निपटाने में जरा-सी चूक करने से लेकर जाति से बाहर प्रेम या विवाह कर लेने और वांछित काम नहीं करने- जैसे वेश्यावृत्ति कर पैसे कमाने से इनकार करने आदि पर उसे प्रताड़ित करना जायज ठहराया जाता है। यह भी नहीं मानना चाहिए कि ऐसी समस्याएं सिर्फ गांव-देहात या खाप पंचायतों के असर वाले इलाकों की ही हैं। शहरों में और विकसित समाजों में भी महिलाओं को ऐसी ही प्रताड़नाओं का सामना करना पड़ता है।

शायद इसकी एक वजह यह है कि समाज के ज्यादातर कायदों और उनका पालन कराने की जिम्मेदारी मर्दों की मान ली गई है। मर्दों का बनाया यह समाज स्त्री की आजादी की सीमा निर्धारित करता है। इसी नीति के तहत लड़कियों को बचपन से ही अपने पिता या भाइयों की निर्भरता की घुट्टी पिलाई जाती है। घरों के भीतर जहां पुरुष को शोषक और स्त्री को उस पर निर्भर रहने की सीख दी जाती है, वहीं से समाज का भेदभाव शुरू हो जाता है। इस तरह मामलों में पति या प्रेमी की यह सोच काम करती है कि सेवाटहल का कोई आदेश नहीं मानने, प्रेम करने या रिश्ता तोड़ने का कोई अधिकार स्त्री के पास नहीं है। पति या प्रेमी पीट दे, दुलार दे, लतिया कर बाहर निकाल दे या खुद ही छोड़ कर चल दे-यह उसकी मर्जी है और इसमें उसका कोई दोष नहीं है।

लेकिन इस मामले में कोई बराबरी नहीं हो सकती क्योंकि समाज ने यह अधिकार स्त्री को नहीं दिया है। दिक्कत यह भी है कि कथिततौर पर पढ़े-लिखे और सभ्य कहलाने वाले सामाजिक दायरों में भी पुरुषों की स्त्री संबंधी बंधी-बंधाई सोच में कोई बदलाव नहीं आता। तमाम आइआइटी पास और लाखों कमा रहा शख्स या आइएएस-आइपीएस अधिकारी भी अपनी पत्नी को पांव की जूती से ज्यादा कोई अधिकार नहीं दे पाते हैं। और जब भी पत्नी से जरा-सी ऊंच-नीच हो जाती है तो उससे बहुत ही बुरा व्यवहार किया जाता है।

कोई समाज तभी बदलेगा, जब उसे बदलने की पहल घर के छोटे से दायरे से होगी। समझना होगा कि स्त्री को देवी मानकर साल में दो बार उसकी पूजा कर लेने से कोई पाप नहीं धुलता, बल्कि असली पुण्य तभी मिलता है जब समस्त नारी जगत के प्रति व्यक्ति के मन में सम्मान जगता है। सवाल यह है कि लगभग हर मामले में पोंगापंथी कुरीतियों में जकड़ा हमारा समाज क्या अपने भीतर ऐसी तब्दीलियां करेगा, जिसमें एक स्त्री अपनी आजादी से ज्यादा अपने अधिकार और सम्मान की मांग करती है।