चेतना कुमावत
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा न केवल देशी धान्य बीज और उत्पादन व्यवस्था, बल्कि पारंपरिक उत्सवों और त्योहारों में उपयोग में लाए जाने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म उपकरणों पर चतुराई से नियंत्रण किया जा रहा है। ऐसे में प्राचीन सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना व्यर्थ होने की दिशा में कमोबेश प्रतिदिन बढ़ रहा है। इसका असर सामाजिक बनावट और उसमें मौजूद आपसी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। ऐसे में उग्र, उत्तेजक और असहज व्यापार पद्धति हमारे पारंपरिक उद्योगों को मार कर कदाचित अधोगति की दिशा में दो कदम और आगे बढ़ रही है।
हमारे सभी त्योहार भारत के आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और पारंपरिक उल्लास के प्रतीक तो हैं ही, इनका अर्थव्यवस्था से भी गहरा संबंध है। भारत के धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक अंत:संबंध परस्पर यों जुड़े हैं जो एक-दूसरे के पूरक हैं। धार्मिक पर्व और त्योहारों का काल इस रूप में शताब्दियों से स्थापित है, जब उन त्योहारों की भारतीय अर्थव्यवस्था को जरूरत होती है। इसी नाते न केवल हमारा अर्थतंत्र के कृषि आधारित है, बल्कि सारे पर्व और त्योहार भी अर्थतंत्र आधारित हैं। इसमें फसल चक्र का असर साफ दिखाई देता है।
दीपावली पर खरीफ की फसल पक कर तैयार होती है तो होली पर रबी की फसल की कटाई शुरू हो जाती है। किसान यह सोच कर दोनों त्योहारों को दोगुने उल्लास के साथ मनाता है कि कई महीनों तक कड़ी मेहनत से तैयार फसल से उसे आर्थिक लाभ मिलेगा, जिसका वह त्योहार पर भरपूर उपयोग कर पाएगा। इस लाभ के लिए वह फसल को बाजार तक पहुंचाता है, इन कृषि उत्पादों से उद्योग चलते हैं। ‘अन्नदाता’ की इस प्रवृत्ति का असर अर्थव्यस्था के बाकी क्षेत्रों पर भी साफतौर पर दिखाई देता है।
वास्तव में हमारे ऋषि-महर्षियों ने सभी त्योहारों को सहजता के साथ लोक जीवन से जोड़ा था। भारतीय परंपरा के आधार ऋषि और कृषि हैं। ऋषि शास्त्रीय तथ्यों से कृषि को जोड़ कर उत्सवों की अर्थमूलक महत्ता स्थापित करते हैं। उत्पादों के लिए बाजार तैयार करना इसी परंपरा का अहम हिस्सा है। इसका उद्देश्य श्रमिकों को उनकी मेहनत का प्रतिफल देना और व्यापार चक्र को गति देना है। उदाहरण के तौर पर त्योहार के अवसर पर देवपूजन के लिए रोली, चावल, मोली, पान, सुपारी, नारियल, लौंग, इलाइची, जायफल, वस्त्र, पंचमेवा, धूप, दीप, गंध, हवन सामग्री, घृत आदि की आवश्यकता रहती है।
देश के किसी एक प्रदेश से इन सभी का उत्पादन नहीं होता। देशव्यापी स्तर पर इनकी पूर्ति व्यापार के माध्यम से होती है। आश्चर्य की बात है कि प्राचीन काल से ही यह व्यापार अतंरराज्यीय होने के साथ-साथ अंतरदेशीय भी है। समूचे उत्तर भारत में सुपारी, नारियल, लौंग, इलाइची, जायफल आदि की आपूर्ति दक्षिण भारत से होती है। पंचमेवा कश्मीर और अफगानिस्तान से पूरे देश में पहुंचता है। पान की आपूर्ति बुंदेलखंड के महोबा से लेकर कोलकाता और श्रीलंका तक से होती है। यानी आज जिसे उदारीकरण और वैश्वीकरण कहा जाता है, वह भारत के लिए नई चीज नहीं है। यह जरूर है कि इसका प्राण ‘उपभोक्तावाद’ न होकर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ था।
उदारीकरण और वैश्वीकरण के नए दौर में यह बदलाव जरूर हुआ है कि त्योहारों की क्षेत्रीय सीमाएं लगभग खत्म कर दी हैं। वर्तमान में दुर्गापूजा केवल पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडीशा तक सीमित नहीं है, बल्कि समूचे देश में बड़े धूम-धाम से की जाती है। गणेश चतुर्थी का इंतजार केवल महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना या हैदराबाद के लोग ही नहीं, करते बल्कि पूरे देश और विदेश में बप्पा का बड़े धूम-धाम से आगमन और स्वागत किया जाता है। अर्थव्यवस्था के बदले कलेवर ने जनमानस के खर्च व्यवहार को भी बदला है। पहले जहां बचत करके फिर आवश्यकता के अनुरूप वस्तुओं को खरीदा जाता था, वहीं आज क्रेडिट कार्ड और इएमआई के माध्यम से खरीदारी की जा रही है।
आज का उपभोक्ता भविष्य के उपभोग के बजाय वर्तमान में वस्तुओं के उपयोग को अधिक तरजीह देता है। लोगों की इस आदत ने बाजार को नए पंख लगाए हैं। तकनीकी क्रांति ने बाजार को एक नई परिभाषा दी है, जिससे बाजार एक स्थान विशेष न रह कर मोबाइल की स्क्रीन पर आ गया है। आज व्यक्ति किसी भी समय घर बैठे खरीदारी कर सकता है।
त्योहार के मौकों पर बड़ी कंपनियों की ओर से छूट का चलन भी खूब लोकप्रिय है। इससे व्यापार तो बढ़ा है, लेकिन लोगों में अनावश्यक चीजें खरीदने की प्रवृत्ति भी बढ़ी है। लोगों की खरीदारी के प्रति बदली हुई आदत से सरकार भी अनभिज्ञ नहीं है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय वित्तमंत्री ने हाल में मंदी से जूझ रही अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए दीपावली के त्योहार को देखते हुए कॉरपोरेट कर में अप्रत्याशित कटौती की है। इसका असर आने वाले दिनों में अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलेगा।
हालांकि बाजार की इस चकाचौंध के बीच लघु और कुटीर उद्योग की उपेक्षा का पहलू भी हमारे सामने है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों से प्रतिस्पर्धा में गांधी के ग्राम स्वराज के सपने को साकार करने वाले स्थानीय उद्योगों का दम घुट रहा है। घर के भीतर रसमयी रसोई का स्वरूप बदल रहा है। अखबारों और चैनलों से प्रसारित विज्ञापन संस्कृति का असर जनमानस पर तेजी से बढ़ रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा न केवल देशी धान्य बीज और उत्पादन व्यवस्था बल्कि पारंपरिक उत्सवों और त्योहारों में उपयोग में लिए जाने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म उपकरणों पर चतुराई से नियंत्रण किया जा रहा है।
ऐसे में हमारा प्राचीन सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना व्यर्थ होने की दिशा में कमोबेश प्रतिदिन बढ़ रहा है। इसका असर सीधा हमारी सामाजिक बनावट और उसमें मौजूद आपसी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। ऐसे में उग्र, उत्तेजक और असहज व्यापार पद्धति हमारे पारंपरिक उद्योगों को मार कर कदाचित अधोगति की दिशा में दो कदम और आगे बढ़ रही है। यथार्थ से दूर अपनी बुद्धि के ख्वाबगाह में सुरक्षित बैठे अर्थशास्त्री इस सारी स्थिति को युक्तिसंगत घोषित कर रहे हैं, जिससे समाज में अंधी उपभोगवाद बढ़ रहा है। इससे देश का अर्थचित्त अस्वस्थ हो रहा है।
अलबत्ता त्योहारों के साथ बढ़ रहे पर्यटन ने स्थानीय उद्योगों के लिए नई उम्मीद जगाई है। हाल ही में आयोजित मैसूर का 409 साल पुराना दशहरा मेला इसका बहुत बड़ा उदाहरण है, जिसे देखने एक लाख से ज्यादा पर्यटक पहुंचे। इसके साथ ही विदेशी पर्यटकों के लिए ‘कुंभ’ सबसे बड़े कौतुहल का विषय है। पिछले साल प्रयागराज में हुए कुंभ से भारतीय पर्यटन खासकर उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग को अप्रत्याशित लाभ हुआ।
हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में लगने वाले कुंभ से सरकार को तो आय होती ही है, लेकिन स्थानीय उद्योगों और लोगों को भी रोजगार मिलता है। जगन्नाथपुरी की रथयात्रा, बंगाल का दुर्गा पूजन, मथुरा की होली, जयपुर की तीज और गणगौर, गुजरात का गरबा और महाराष्ट्र में गणपति पूजन इसी कड़ी का हिस्सा हैं। अर्थव्यवस्था का आज इतनी तेजी से विस्तार हो रहा है, जिससे हमारा कोई भी त्योहार अछूता नहीं है। त्योहार बाजार के पीछे-पीछे दौड़ रहे हैं। इन दोनों के बीच सहयोग और द्वंद्व दोनों रिश्ते साथ-साथ चल रहे हैं।