प्रीतनगर, पंजाब का एक सीमावर्ती गांव है। यह अमृतसर और लाहौर से भी करीब बीस किलोमीटर की दूरी पर है। लेखक और चिंतक गुरबख्श सिंह चाहते थे, पे्रम की एक ऐसी बस्ती बसाना, जहां संवेदनशील, लेखक, चित्रकार, रंगकर्मी इकट्ठे रहें। वर्ष 1938 में एक सौ पचहत्तर एकड़ जमीन खरीदी गई। एक जैसी कोठियों का निर्माण हुआ। पहले-पहले वहां बसने वालों में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी, अमृता प्रीतम, बलराज साहनी, नानक सिंह, नूरजहां, उपेंद्रनाथ अश्क, अहमद नदीम कासमी आदि शामिल थे। कुछ वर्ष तो ‘प्रीत’ का जादू खूब चला, मगर धीरे-धीरे परिंदे अपनी-अपनी जड़ों की ओर उड़ने लगे। खुशबू अब भी थोड़ी बहुत कायम है। पे्रस है, पत्रिका निकलती है, कुछ किताबें भी छपती हैं।
गुरबख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ का जन्म वर्तमान पाकिस्तान के सियालकोट शहर में 26 अप्रैल, 1895 को हुआ था। 1918 में उन्होंने रुड़की स्थित इंजीनियरिंग कॉलेज से सिविल इंजीनियरिंग में डिग्री प्राप्त करने के बाद सेना की इंजीनियरिंग शाखा में नौकरी कर ली। सेना की नौकरी के सिलसिले में उन्हें बगदाद में तैनाती मिली। वहां कुछ वर्ष बिताने के बाद वे सिविल इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका की मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी में प्रविष्ट हो गए। वापसी पर भारतीय रेलवे में 1925 से 1932 तक नौकरी करते रहे। इसी बीच कृषि के क्षेत्र में नई तकनीकों के प्रयोग की दिशा में काम करते रहे।
अलग-अलग तरह के अनुभवों से गुजरते हुए गुरबख्श सिंह के मन में एक ऐसा कस्बा बसाने की परिकल्पना जगी, जिसमें लेखन कला और संस्कृति से जुड़ी नामी शख्सियतें एक साथ रह सकें। शुरुआत ‘प्रीतलड़ी’ पत्रिका के प्रकाशन से हुई। मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और थोड़े उच्च मध्यवर्ग से लेखन और कला की दुनिया में आए बुद्धिजीवियों को ‘प्रीतलड़ी’ ने प्रकाश में आने का अवसर दिया। गुरबख्श सिंह खुद भी खूब लिखते थे। उनका लेखन क्षेत्र उपन्यास था। उनकी व्यापक सोच और मौलिक परिकल्पना का ही परिणाम था कि ‘प्रीतनगर’ कल्पना से ठोस धरातल पर उतर आया।
इस प्रीतनगर में आकर बसने वालों की फेहरिस्त में फ़ैज़, साहिर, अश्क, कर्तार सिंह दुग्गल, कवि मोहन सिंह, अमृता, बलवंत गार्गी, मुल्कराज आनंद, उपन्यासकार नानक सिंह आदि के नाम शामिल थे। सिलसिला इतना प्रभावी था कि गांधी और नेहरू को भी एक जिज्ञासु पर्यटक के रूप में खींच लाया। लेकिन सृजन की दुनिया के इन बंदों को जोड़ कर नहीं रख पाए गुरबख्श सिंह। सभी की चिंतन दिशा अलग-अलग थी। वे जानते थे कि सिलसिला शायद लंबा नहीं चल पाएगा।
ऐसा कभी होता नहीं कि किसी व्यक्ति की कोई पत्रिका ही उसके नाम का एक हिस्सा बन जाए। पर उनके नाम के साथ उनकी पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ का नाम भी जुड़ गया। इस विलक्षण लेखक के खाते में चौबीस बहुचर्चित पुस्तकें दर्ज हैं, लेकिन उन्हें अब भी प्रीतलड़ी और अपने एक अभिनव प्रयोग प्रीतनगर के लिए याद किया जाता है। भारत-पाक विभाजन के समय प्रीतनगर भी उजड़ गया था, हालांकि लेखकों में से कई वहां से कुछ वर्ष बिताने के बाद ही चले गए थे। भारत-पाक विभाजन के समय दंगों और असुरक्षा की भावना ने यहां पर हलचल पैदा कर दी। अनेक लेखक दिल्ली, लाहौर या जालंधर चले गए। गुरबख्श सिंह का परिवार भी एक बार तो वहां से चला गया था, लेकिन कुछ अन्य परिवारों के साथ वे कुछ माह बाद वापस लौट आए।
नब्बे के दशक में वहां ‘गुरबख्श सिंह-नानक सिंह फाउंडेशन’ नाम से एक ट्रस्ट बना। उनके बेटे नवतेज सिंह ने काफी लंबे समय तक गतिविधियां चलार्इं और उनके बाद उनके बेटे सुमित सिंह ने परंपरा जारी रखी। इन दिनों सरदार गुरबख्श सिंह की बड़ी बेटी उमा गुरबख्श सिंह ट्रस्ट की देखरेख करती हैं। जब सीमा पर शांति होती है तो पाकिस्तान से भी कुछ रंगकर्मी यहां अपनी प्रस्तुतियां देने आ जाते हैं। पंजाबी कवि शिवकुमार बटालवी लंबी अवधि तक यहां आते रहे। उन्होंने अपने अधिकांश पे्रम-गीत या तो यहां लिखे थे या फिर यहीं की पृष्ठभूमि पर लिखे थे। साहित्य, कला और संस्कृति है प्रीतनगर की रीत, कभी कलाकारों और साहित्यकारों का मक्का कहलाता था यह गांव। इसे पंजाब का पहला सुनियोजित गांव होने का गौरव प्राप्त है। नाम के अनुरूप यहां प्रेम और दोस्ती का बसेरा रहा है। करीब नब्बे साल से कला और साहित्य का अनोखा संगम इस गांव ने देखा है।
अनेक उतार-चढ़ाव के बावजूद यह गांव आज पुन: अपने गौरवशाली इतिहास को संजो कर नई पीढ़ी के लिए एक अनोखे सृजन केंद्र के रूप में लौटने लगा है। पैंतीस साल बाद यहां सांस्कृतिक मेले का आयोजन किया गया है। इससे कलाकारों के लिए सृजनात्मक वातावरण उपलब्ध करवा कर प्रीत और अमन की नई इबारत लिखने की तैयारी है। इस अनोखे गांव में ‘प्रीत मिलनियों’ का आयोजन होता था, जिनमें सांस्कृतिक और राजनीतिक हस्तियां पहुंचती थीं। 23 मई, 1942 को पंडित जवाहर लाल नेहरू भी यहां आए थे और रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने प्रतिनिधि गुरुदयाल मलिक, जो शांतिनिकेतन विश्वविद्यालय के कुलपति थे, को यहां भेजा था। महात्मा गांधी ने भी यहां आने की इच्छा जाहिर की थी।
जो साहित्यकार प्रीतनगर में रहे उनमें उपन्यासकार नानक सिंह का विशेष उल्लेख जरूरी है, क्योंकि वे अंतिम सांस तक प्रीतनगर की मिट्टी से जुड़े रहे। यही कारण था कि गुरबख्श सिंह तथा उनकी याद में 16 अप्रैल, 1999 को ‘गुरबख्श सिंह-नानक सिंह फाउंडेशन’ की स्थापना की गई और ठीक पांच साल बाद यहां ‘प्रीत भवन’ खुला। इसमें एक संग्रहालय है, जहां गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी के जीवन से संबंधित तस्वीरें और अन्य वस्तुएं संग्रहित हैं। नाटक मंचन के लिए एक बड़ा हॉल है। डिजिटल सुविधाओं वाला एक हॉल भी है।
उनके सृजनात्मक कार्य में सबसे महत्त्वपूर्ण है उनके द्वारा शुरू की गई पंजाबी पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’। इसे आज भी उनके पौत्र और पौत्रवधू चला रहे हैं। इनके अलावा चौथी पीढ़ी के समिया, रतिका और सहज भी इसमें रचनात्मक भूमिका निभाते हैं। साझे (भारत और पाकिस्तान के) पंजाब के लेखकों की रचनाएं तबसे अब तक इसमें छपती हैं। सरहदों से ऊपर उठ कर साहित्य के जरिए प्रीत की लड़ी पिरोने वाले इस परिवार ने एक चिराग आतंकवाद में खोया है। गुरबख्श सिंह के पोते सुमित सिंह जो तब प्रीतलड़ी के संपादक थे, को उनके जोशीले लेखों के कारण 22 फरवरी, 1984 को आतंकियों ने गोली का निशाना बनाया था।
प्रीतलड़ी की संपादक पूनम सिंह बताती हैं कि इस गांव की परंपरा को जारी रखने का जिम्मा अब चौथी पीढ़ी ने उठाया है। रतिका सिंह और समिया सिंह द्वारा शुरू किए गए ‘आर्टिस्ट्स रेजिडेंसी प्रोग्राम’ के अंतर्गत ब्रिटिश कोलंबिया तथा स्कॉटलैंड से भी विद्यार्थी आकर यहां पंजाबियत के बारे में लिखते और डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाते हैं। यहां मॉरिशस, कनाडा, बंगलूरू के कलाकारों का काम भी प्रदर्शित है। प्रीतनगर पहुंचते ही आपका स्वागत एक ऐतिहासिक तालाब करता है। कहते हैं कि नानकशाही र्इंटों से यह तालाब जहांगीर ने बनवाया था। इसी के पास स्थित है एक ऐतिहासिक इमारत, जो कभी जहांगीर और नूरजहां की आरामगाह थी, पर अब खंडहर हो गई है। इसी इमारत में कभी गुरबख्श सिंह ‘प्रीतलड़ी’ ने अपनी प्रिंटिंग प्रेस लगाई थी।
प्रीत मिलनियों के पैंतीस वर्ष बाद शुरू हुआ मेला आज भी जारी है। इस मेले में फरीदकोट से पारंपरिक खेस बुनने वाले तथा जंडियाला गुर से पीतल पर नक्काशी करने वाले कलाकार अपने हुनर का प्रदर्शन करते हैं। साथ ही आॅर्गेनिक खेती के बारे में गांव वालों के लिए एक कार्यशाला ‘खेती विरासत मिशन’ द्वारा चलाई जाती है। पटियाला से लोकनृत्य गिद्दा प्रस्तुत करने कलाकार विशेष रूप से पहुंचते हैं। यहां महीने के हर तीसरे गुरुवार को नाटक का मंचन भी होता है। प्रीतलड़ी ने अपने अस्सीवें वर्ष में कदम रखा। नई दिल्ली में अंतरराष्ट्रीय अभिलेखागार ने इस विरासत के महत्त्व को स्वीकार किया।
