खेत-खलिहानों में रागनियां गाते किसान, कच्चे मिट्टी के घर और झोपड़ियां, ऊबड़-खाबड़ धूल-धुसरित सड़कें, हौले-हौले चलती बैलगाड़ियां, पेड़ की ठंडी छांव में जमी चौपालें, पनघट पर पानी भरती महिलाएं और मिट्टी में खेलते छोटे-छोटे नंग-धड़ंग बच्चे। पहले कहीं भी गांव का जिक्र चलते ही ए सभी दृश्य अनायास ही हमारे दृष्टिपटल पर अंकित हो जाते थे। लेकिन आज गांवों की यह तस्वीर बदल रही है। खेत-खलिहानों और गांवों की गलियों में अब रागनियां सुनाई नहीं पड़ती हैं। रागनियों का स्थान अब फिल्मों के आधुनिक गीत-गानों ने ले लिया है। कच्चे मिट्टी के घर पक्के मकानों में तब्दील हो रहे हैं। हौले-हौले चलती बैलगाड़ियां भी अब कम ही दिखाई देती हैं। बैलगाड़ियों का स्थान भैसा-बुग्गी और ट्रैक्टर ले चुके हैं। गांव की चौपालें अब फीकी पड़ने लगी हैं। ग्रामीणों में शिक्षा और स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ी है। इतना सब कुछ बदलने के अतिरिक्त गांवों में और भी बहुत कुछ बदलाव आए हैं। ग्रामीणों की मानसिकता भी लगातार बदलती जा रही है। कहते हैं समय की मार से कोई नहीं बच सकता, सो गांव भी समय की मार से नहीं बच सके हैं। आधुनिकता का प्रभाव गांवों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस बदलाव से गांवों ने जहां एक ओर बहुत कुछ प्राप्त किया है वहीं दूसरी ओर बहुत कुछ गंवाया भी है।

किसान से मजदूर
राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के सर्वेक्षण (2016-17) के अनुसार ग्रामीण खेतिहर परिवारों की औसत आय अब कृषि से ज्यादा दैनिक मजदूरी से होने लगी है। कृषि पर आश्रित एक ग्रामीण परिवार की औसत वार्षिक आय 1,07,172 रुपए है, जबकि गैर-कृषि गतिविधियों से जुड़े ग्रामीण परिवारों की औसत वार्षिक आय 87,228 रुपए है। रिपोर्ट के अनुसार मासिक आमदनी का उन्नीस प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है, जबकि औसत आमदनी में दैनिक मजदूरी का हिस्सा चालीस फीसद से ज्यादा है। सतासी फीसद ग्रामीण घरों में अब मोबाइल ने अपनी पहुंच बना ली है, जबकि 88.1 फीसद परिवारों के पास बचत खाते हैं। आज अट्ठावन फीसद परिवारों के पास टीवी, चौंतीस फीसद परिवारों के पास मोटरसाइकिल और तील फीसद परिवारों के पास कार उपलब्ध है। इसके अलावा दो फीसद परिवारों के पास लैपटॉप और एसी भी पहुंच गए हैं। खेती करने वाले छब्बीस फीसद और गैर-कृषि क्षेत्र के पच्चीस फीसद परिवार बीमा के दायरे में आ गए हैं। पेंशन योजना 20.1 फीसद कृषक परिवारों ने और 18.9 फीसद गैर-खेतिहर परिवारों ने प्राप्त की है। हालांकि इस सर्वेक्षण पर किसानों के कुछ संगठनों ने प्रश्नचिह्न लगाया है। उनके अनुसार इस सर्वेक्षण में किसानों की परिभाषा बदल कर आंकड़े जुटाए गए हैं। 2012-13 के एक सर्वेक्षण में उस परिवार को कृषक परिवार माना गया था, जिसे केवल खेती से तीन हजार रुपए तक की आमदनी प्राप्त होती हो। इसकी तुलना 2015-16 के उन आंकड़ों से की गई है जिनमें खेती से पांच हजार रुपए कमाने वालों को कृषक परिवार का दर्जा दिया गया है। बहरहाल, यह सर्वेक्षण किसानों की दुर्दशा की ओर भी संकेत करता है। सर्वेक्षण में बताया गया है कि ग्रामीण क्षेत्र के सैंतालीस फीसद परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं। छोटे किसानों को खेती में अनेक समस्याओं से दो चार होना पड़ रहा है। फलस्वरूप उन्हें मजदूरी करनी पड़ रही है। विभिन्न राज्यों के ग्रामीण परिवारों की औसत आय में भी भारी अंतर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज एक ओर तो गांवों में समृद्धि आई है, लेकिन दूसरी ओर गांवों के छोटे-मोटे उद्योग कमजोर हुए हैं।

धुंधलाती ग्रामीण संस्कृति
पहले गांव की अपनी एक अलग संस्कृति थी। उस संस्कृति के सुरक्षा कवच में ही दिल को सुकून देने वाली न जाने कितनी चीजें सुरक्षित रहती थीं। सुख-शांति, स्वस्थ प्राकृतिक वातावरण और सहकारिता की भावना, सभी कुछ तो था गांवों में। बुजुर्ग ग्रामीण आज भी गावों में आतिथ्य सत्कार की परंपरा को याद करते हुए रोमांचित हो उठते हैं। जब कभी गांवों में कोई बारात आती थी, तो वह पूरे गांव की बारात होती थी। गांव के सभी लोग बारात का आतिथ्य सत्कार करना अपना धर्म समझते थे। गांव के प्रत्एक घर से लड़की वाले के घर दूध-दही पहुंचाई जाती थी। लेकिन आज यह बीते जमाने की बात हो गई है। पहले एक घर का मेहमान पूरे गांव का मेहमान होता था। अगर कोई नया मेहमान गांव में आता था तो गांव के लोग स्वयं उसके साथ चल कर उसे गन्तव्य तक पहुंचाते थे। हालांकि गांव की इस परंपरा में पहले की अपेक्षा थोड़ा परिवर्तन तो अवश्य हुआ है, लेकिन आज भी गांवों में यह परंपरा काफी हद तक विद्यमान है। पहले शहर के बड़े-बड़े क्लब गांव की चौपाल के सामने फीके थे। गांवों की चौपालों में शहर के क्लबों की तरह इत्र की मादकता तो नहीं बिखरती थी, लेकिन वहां माटी की सौंधी गंध अवश्य बिखरती थी। वह माटी की सोंधी गंध ही हमें बार-बार अपनी मिट्टी से जुड़ा होने का अहसास कराती थी। गांव की चौपाल में बैठ कर एक अजीब-सी शांति का अनुभव होता था। चौपाल में शहर के क्लबों की तरह दिखावटी तौर-तरीके नहीं थे। लेकिन वहां जीवन से जुड़ी हुई अन्य बहुत-सी बातें सिखाई जाती थीं। वहां जो भी कुछ था, वह दिखावटी और बनावटी नहीं था। मसलन, अगर गांव का कोई युवक खाट पर बैठे अपने से बड़े व्यक्ति के सिराहने बैठ जाता था तो उसे जम कर लताड़ लगाई जाती। इस तरह चौपाल गांव के युवकों को उठने-बैठने का सलीका भी सिखाती थी। अक्सर चौपाल में एक ही हुक्का रखा रहता था। सभी लोग बारी-बारी से एक ही हुक्के से अपना काम चला लेते थे। सबके मुंह लगे एक ही हुक्के की गुड़गुड़ाहट से सहकारिता का संगीत सुनाई देता था। ऐसा नहीं कि पहले गांवों में ईर्ष्या, द्वेष और गंदी राजनीति का कोई स्थान नहीं था। गांवोें में ये सभी विसंगतियां पहले भी मौजूद थीं। लेकिन आज की तरह इनका स्वरूप विकृत और घिनौना नहीं था।

बदल गए मनोरंजन के साधन
पहले गांव में मनोरंजन का कोई अन्य साधन उपलब्ध नहीं था। ग्रामीण लोग रागनियां, आल्हा और लोकगीतों के माध्यम से ही अपना मनोरंजन करते थे। गांव की गलियों और खेतों में जहां एक ओर रागिनी, आल्हा और लोकगीतों के बोल सुनाई पड़ते थे वहीं दूसरी ओर पत्तियों के झुरमुट और कोयल की कूक से एक मधुर संगीत निकलता था। खेत में हल चलाता किसान प्रकृति के मधुर संगीत के बीच जब खुल कर रागिनियां गाता था तो उसे जेठ की तपती धूप का अहसास तक नहीं होता था। इस देशी गीत-संगीत के साथ खेत में काम करते हुए दिन कब बीत जाता उसे पता ही नहीं चलता। इसके अलावा पहले गांवों में मनोरंजन के लिए विभिन्न नौटंकी पार्टियों को भी बुलाया जाता था। आज आल्हा गाने की परंपरा गांवों से लुप्त हो चुकी है। आधुनिकता की चकाचौंध में रागनियां और लोकगीत भी गांवों से विदा ले रहे हैं। इस देशी गीत-संगीत का स्थान अब आधुनिक गीत-संगीत ने ले लिया है। इस दौर में आधुनिकता गांव की मौलिक संस्कृति को लगातार निगलती जा रही है। टेलीविजन के कारण गांवों की चौपालें भी फीकी पड़ती जा रही हैं। इस तरह टीवी जैसे साधनों के कारण गांवों में भी लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं। मगर गांवों में टीवी जैसे साधनों के आगमन का सकारात्मक पहलू देखें, तो हम पाएंगे कि इस तरह के साधनों ने सूचना क्रांति के इस दौर में बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य भी किए हैं। आज टीवी के माध्यम से ग्रामीण लोगों को विश्व की किसी भी घटना की दृश्य सहित नवीनतम जानकारी तीव्र गति से प्राप्त हो जाती है। टीवी और शिक्षा के प्रसार से ही ग्रामीण लोग हर क्षेत्र में पहले से अधिक जागरूक हुए हैं। इन सभी कारणों से ही आज भोले-भाले किसान या फिर ग्रामीण युवक की छवि प्रगतिशील किसान और स्मार्ट जागरूक युवक में परिवर्तित हो रही है।

शिक्षा का स्वरूप
शिक्षा के क्षेत्र में भी गांवों में आश्चर्यजनक रूप से प्रगति हुई है। आज ग्रामीण अंचलों में अनेक इंटरमीडिएट और डिग्री कॉलेज मौजूद हैं। अनेक संस्थाएं एवं ट्रस्ट भी ग्रामीण इलाकों में अंग्रेजी माध्यम वाले पब्लिक स्कूल खोल रहे हैं। ग्रामीण अंचलों में शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन तो अवश्य हुआ है, लेकिन इस विषय का एक दुखद पहलू भी रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित बहुत से शिक्षण संस्थानों के क्रियाकलाप संदिग्ध रहे हैं। बहरहाल, कुछ विसंगतियों के बावजूद यह तो मानना होगा कि आज गांवों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी है और पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में ग्रामीण छात्र अपना कौशल दिखा रहे हैं। पहले गांव को मिट्टी के कच्चे मकानों और झोपड़ियों का पर्याय माना जाता था। लेकिन आज गांवों में र्इंट और सीमेंट के पक्के मकान मौजूद हैं। पहले गांवों में मिट्टी के घर वातानुकूलित कमरों की तरह कार्य करते थे। मिट्टी से निर्मित होने के कारण ये मकान जेठ की तपती धूप में भी शीतलता प्रदान करते थे। गांव के बड़े-बूढ़ों को तो आज भी गर्मी में ठंडक प्रदान करने वाले मिट्टी से निर्मित घर ही पसंद हैं। आज गांवों में एक वर्ग तो ऐसा है, जिनके घरों में सुख-सुविधाओं के लगभग सभी साधन मौजूद हैं। अब ग्रामीणों के पास परिवहन के सभी आधुनिकतम साधन जैसे स्कूटर, मोटरसाइकिल और कारें उपलब्ध हैं। पहले गांव की गलियों से अगर कोई कार गुजर जाती थी तो उसे देखने के लिए बच्चों की भीड़ जुट जाती थी लेकिन आज गांवों में परिवहन के ये आधुनिकतम साधन किसी आश्चर्य के रूप में नहीं देखे जाते हैं।

बिलाते पारंपरिक खेल
आज भी गांवों में प्राचीन परंपरागत खेल जिंदा हैं, लेकिन बदलते समय के अनुसार इन खेलों का प्रभाव कम होता जा रहा है। अब ग्रामीण बच्चों और युवकों पर भी क्रिकेट का नशा सवार है। जैसे गांव के चुन्नू और मुन्नू को अब भी गिल्ली-डंडा पसंद है वैसे ही ग्रामीण युवकों की ऊधम मचाती एक टोली को वॉलीबाल और कबड्डी जैसे खेल ही पसंद हैं। खैर, ऊधम मचाती टोली वॉलीबाल और कबड्डी खेले या फिर चुन्नू-मुन्नू गिल्ली-डंडा, गांव के अन्य बच्चों और युवकों पर इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ना है। आज गांव क्रिकेटमय जो है, सो उन्हें तो क्रिकेट ही खेलना है। गांव का किसान खेत में काम कर रहा है, लेकिन वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच का स्कोर जानने को उत्सुक है। आज गांव के लोग अपने पहनावे को लेकर भी जागरूक हैं। आज ग्रामीण पीढ़ी नए फैशन को अपना रही है। उसमें ठीक ढंग से कपड़े पहनने के प्रति एक नई समझ विकसित हुई है। पहले गांव का वातावरण स्वच्छ था, क्योंकि दूर-दूर तक कारखाने नहीं थे। आज उद्योगीकरण के चलते जंगलों और खेतों में बड़ी संख्या में कारखाने स्थापित हो रहे हैं। फलस्वरूप गांव का वातावरण भी अब पहले जैसा स्वच्छ नहीं रहा। व्यावसायिकता और आपाधापी के इस दौर में शांति का पर्याय माने जाने वाले गांवों में भी विभिन्न अपराधों ने अपने पैर पसार लिए हैं। ग्रामीण अंचलों में विभिन्न आपराधिक गतिविधियों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। ग्रामीणों का कहना है कि पहले उन्हें कोई डर नहीं था। वे मात्र जंगली जानवरों से डरते थे। लेकिन आज गांवों में भी आदमी को आदमी से डर लगने लगा है।

आधुनिकता का आलम
पहले किसान खेती के लिए पुरानी तकनीक और पुराने औजारों का ही प्रयोग करते थे। लेकिन आज किसान नवीनतम तकनीक और औजारों को अपना रहे हैं। वे कृषि के क्षेत्र में दिन पर दिन हो रहे नवीनतम शोध कार्यों से भी भली-भांति परिचित हैं और आवश्यकता पड़ने पर इन्हें अपना भी रहे हैं। इस सभी कारणों से आज फसल की पैदावार में पहले ही अपेक्षा बढ़ोतरी हुई है। आज किसानों के पास नई-नई नस्लों की गाय और भैंसें मौजूद हैं, जो अधिक दूध तो देती ही हैं, साथ ही इनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक है। आज किसानों को पेड़-पौधों पशुओं से संबंधित विभिन्न रोगों की जानकारी भी है, जिससे वे समय रहते इनका उपचार करा सकते हैं। पहले विभिन्न खतरनाक रोगों से गांव के गांव ही समाप्त हो जाते थे। लेकिन चिकित्सा विज्ञान में हुई अभूतपूर्व क्रांति एवं ग्रामीणों में अपने स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता से ग्रामीणों के स्वास्थ्य स्तर में सुधार हुआ है। हालांकि ग्रामीण अंचलों में स्थापित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों के मौजूद न रहने की शिकायतें भी लगातार मिलती रहती हैं। आज लगभग हर गांव में बिजली पहुंच चुकी है, लेकिन बिजली की स्थिति दयनीय है। गत वर्षों में हुई संचार क्रांति के चलते लगभग हर ग्रामीण के पास मोबाइल भी उपलब्ध हैं। ग्रामीण अंचलों में विभिन्न बैंक भी लगातार अपनी शाखाएं खोल रहे हैं। आज गांव लगातार विकास की ओर अग्रसर हैं। लेकिन ग्रामीण बुजुर्गों को गांवों का यह विकास नहीं भा रहा है। गांव के बुजुर्गों का कहना है- ‘पहले गांव आज से बेहतर थे। कम से कम लोगों की आंखों में शर्म तो थी, छोटे-बड़े का लिहाज भी था। लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है। हर किसी को मात्र अपना खयाल है। गांव के विकास ने हमारी शांति ही भंग कर दी है।’हालांकि इस बात में कोई शक नहीं है कि आज गांव लगातार विकास की ओर अग्रसर हैं, लेकिन इस विकास में दिल को सुकून देने वाली बहुत-सी चीजें पीछे छूट गई हैं। आज गांव और शहर के बीच की दूरी सिमटती जा रही है। लेकिन गांव में आदमी की आदमी से दूरी बढ़ती जा रही है। गांव की ठंडी हवा के झोंके अब गर्म हो चले हैं। हालांकि इतना सब कुछ बदलने के बाद शहरों की अपेक्षा गांव आज भी सुकून देते हैं। गांवों में अब भी बहुत कुछ शेष है। गांव का विकास एक सुखद अनुभूति है। लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि विकास की प्रक्रिया में गांवों की आत्मा नष्ट न होने पाए, तभी गांव से जुड़ी सुखद अनुभूतियां जिंदा रह पाएंगीं।