पूरे छह महीने बीत जाने के बाद भी बड़े बाबू रामगोपाल की सीट खाली थी। उनकी जगह अभी तक कोई नियुक्ति नहीं हुई है और न ही उनकी जगह पर किसी दूसरे बाबू को भेजा गया है। ऑफिस में काम ज्यादा है और आदमी कम हैं। एक आदमी को दो-दो, तीन-तीन आदमियों का काम देखना पड़ रहा है। जो लोग हैं वे भी धीरे-धीरे अपने समय पर सेवानिवृत्त हो रहे हैं और जो रिटायर हो रहे हैं उनकी जगह कोई नई भर्ती नहीं हो रही है। यही कारण है कि फाइलों में अपनी जिंदगी बिताने वाला आदमी जब सुबह से लेकर शाम तक फाइलों में इस कदर उलझता है कि उसे चिढ़, खीझ व गुस्से के अलावा कुछ नहीं सूझता है। बल्कि कभी-कभी तो वह ऑफिस का अपना गुस्सा घर आकर अपनी पत्नी व बच्चों पर उतारते हुए अपना दिमाग ठंडा कर लेता है। यही नहीं, बल्कि जब कोई आदमी रिटायर होता है तो उसके साथ काम करने वाले कर्मचारी उसे बधाई देते हुए कहते हैं कि, ‘यार तुम तो बड़े भाग्यशाली निकले जो कि अपनी सेवा पूरी करके घर जा रहे हो। अब आपके हिस्से का काम भी मुझे ही करना पड़ेगा। समय ऐसा आ गया है कि सरकारी नौकरी करना मुश्किल हो रहा है क्योंकि आदमी हैं नहीं और काम लगातार बढ़ता ही जा रहा है। अब आपके जाने के बाद आपकी सीट का सारा काम भी मुझे ही करना पड़ेगा। सुबह से लेकर शाम तक काम करते हुए हालत गधे जैसी हो जाती है। गधे को तो दिन में आराम भी मिल जाता है, लेकिन अपने हालात तो गधे से भी खराब होते जा रहे हैं। छुट्टी होने के बाद भी बस या मेट्रो में खड़े-खड़े सफर करते हुए रीढ़ की हड्डी जवाब देने लगती है।
अपने साथियों की बातें सुनकर रिटायर होने वाला आदमी खुशी के मारे हंसने लगता है। आज से पहले वह इस तरह से कभी नहीं हंसा था। पर…अब हंस रहा है क्योंकि वह जानता है कि फाइलों में उकड़ू बने-बने रीढ़ की हड्डी व कमर में इतना दर्द होता है कि रात में भी ठीक से नींद नहीं आती है। चीखने-चिल्लाने में ही सारी रात बीत जाती है। कई बार ऐसा भी होता है कि जब कार्यालय में ही दर्द होने लगता है तो मेज की दराज से निकाल कर डिस्पेंसरी से लाई गई दर्द निवारक ट्यूब लगानी पड़ती है। लेकिन अब रिटायर होने के बाद ऑफिस की फाइलों से हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा मिल गया है। परंतु रामगोपाल के साथ ऐसा नहीं हुआ। उसका रिटायर होने का समय आया ही नहीं। वह जिंदगी से ही रिटायर हो गया था। उस दिन सुबह जब वह ऑफिस आया तो बहुत खुश था। जिस दिन वह गांव जाता उस दिन वह बहुत खुश दिखाई देता। लेकिन इस बार जब रामगोपाल गांव गया तो फिर उसके मरने की सूचना ही ऑफिस को मिली। उसकी खाली सीट को देखते हुए हमेशा उसका हंसता-मुस्कराता चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता है। रामगोपाल मेरे साथ ही ऑफिस में काम करता था। वह हमेशा सही समय पर ऑफिस आता रहा है। उसे मैंने कभी भी ऑफिस में देरी से आते नहीं देखा। सीट पर बैठने से पहले वह अपनी कुर्सी को दोनों हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए सीट पर बैठता तो ऐसा लगता जैसे कोई गूंगा आकर सीट पर बैठा हो। फाइलों पर झुके हुए वह बार-बार अपने चश्मे को अपने दोनों हाथों से ऊपर-नीचे सरकाता रहता। अक्सर उसका चश्मा बार-बार उसकी आंखों से खिसककर नीचे आ जाता था। एक दिन मैंने उससे कहा, ‘सर, अपना चश्मा ठीक करवा लीजिए।’
‘समय ही नहीं मिलता भैये। पर…अब इसे जल्दी ही ठीक करवा लेंगे।’
उन दोनों की बातें सुनकर हम मुस्कराने लगते तो रामगोपाल अपना चश्मा उतारकर मेज पर रखी फाइल के ऊपर रखते हुए कहता, ‘क्यों हंस रहे हो भैये?’
‘आपका चश्मा देख रहे हैं सर।’
‘लो भैये, ये चश्मा अगर तुम्हें पसंद है तो इसे तुम्हीं रख लो। ‘रामगोपाल ने अपना चश्मा उठाकर विनीत की ओर बढ़ाते हुए कहा तो विनीत ने कहा, ‘आपका चश्मा भी आपकी ही तरह जवान दिख रहा है सर।’
‘हा…हा…हा…। इसका मतलब है कि हम अभी जवान हैं।’ कहते हुए श्याम बाबू ने अपना बैग खोलकर उसमें रखी गुटखे की दो अलग-अलग तरह की पुड़िया निकाल कर उन्हें मिलाया और फिर उसे अपने मुंह में डालते हुए कहा, ‘तुम भी खाओगे भैये?’
‘हलुआ पूरी होता तो खाते। क्या इसे खाने से पेट भर जाता है सर?’
‘आदत हो गई है भैये। का करें…? छूटने से नहीं छूटती। अब यह आदत तभी छूटेगी जब हम ऊपर जाएंगे।’ कहते हुए रामगोपाल ने मेज के नीचे अपने पैरों के पास रखे कूड़ेदान में पिच करके थूक दिया।
रामगोपाल दिन भर फाइलों में उलझा होता और गुटखे पर गुटखा खाते हुए डस्टबिन में थूकता रहता। ऐसा करते वक्त थूक के छींटे उसके कपड़ों और जूतों पर भी गिर जाते थे। कपड़े धुलने के बाद भी गुटखे के दाग उसके कपड़ों पर साफ दिखाई देते। सुबह ऑफिस आते ही वह अपने साथ एक अखबार लाकर कूड़ेदान के तलवे पर बिछा देता ताकि उसका थूक फर्श को खराब न कर सके। लेकिन काम करते हुए रामगोपाल ने कभी यह नहीं कहा कि वह थक चुका है। उसकी कमर और रीढ़ की हड्डी में दर्द होने लगा है। एक बजते ही वह बैग में से अपना टिफिन निकालते हुए कहता, ‘भैये खाना लाए हो कि नहीं। खाने का समय हो गया है।’ और फिर वह अपना टिफिन सबकी ओर बढ़ाते हुए कहता, ‘थोड़ा-थोड़ा सभी चख लो भैये।’ ऑफिस में काम करते हुए हमने रामगोपाल को कभी भी किसी के साथ गुस्सा करते या फिर जोर से बोलते नहीं देखा। बात-बात पर उसे हमेशा हंसते हुए ही देखा। एक बार विनीत ऑफिस नहीं आया और उसने फोन पर कहा कि उसकी पत्नी अस्पताल में भर्ती है तो रामगोपाल ने तुरंत कहा, ‘रुपए-पैंसों की चिंता मत करना भैये। घबराना नहीं। अलमारी की चाबी कहां है। अपने काम के साथ-साथ मैं आपका काम भी करता रहूंगा। जब तक भाभी जी की तबीयत ठीक नहीं होती उसकी देखभाल करते रहना।’
जब उसकी बातें खत्म हुर्इं तो मैंने कहा, ‘क्या सर…आप हर किसी की पत्नी को भाभी कहते रहते हो। विनीत साहब तो आपसे उम्र में बहुत छोटे हैं।’
‘वो क्या है न भैये कि हम तो हर किसी की पत्नी को भाभी ही बोलेंगे। क्यों बोलेंगे, पूछो…पूछो…। अगर हम भाभी नहीं कहेंगे तो हमें दरवाजे के बाहर ही खड़ा रहना पड़ेगा। बहू कमरे में हो तो जेठ कमरे में नहीं घुस सकता न। भाभी कहेंगे तो दरवाजे पर खड़ा नहीं रहना पड़ेगा। समझ गए न भैये…हा…हा…हा…।’
रामगोपाल कहता जरूर था लेकिन किसी के घर नहीं जाता था। वक्त पड़ने पर वह सबकी मदद जरूर कर दिया करता था। उसकी खाली कुर्सी देखकर ऐसा कोई भी दिन नहीं होता था जिस दिन मुझे उसकी याद नहीं आती थी।
मुझे वह दिन याद आया जब एक दिन बातों के दौरान अचानक ही मैंने उससे कहा, ‘सर, आपकी सरकारी नौकरी कैसे लगी और आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की…?’
मेरे शब्दों को सुनकर रामगोपाल खामोश हो गया था। उसकी नजरें झुक गई थीं। वह बड़ी देर तक अपना सिर झुकाए रहा। ऐसा लगा जैसे वह रो देगा तो मैंने कहा, ‘सर, मैंने कुछ गलत कह दिया क्या…?’
उसने अपना चश्मा मेज पर पड़ी फाइल के ऊपर रखते हुए कहा, ‘नहीं भैये, तुमने कुछ भी गलत नहीं कहा। लेकिन जब कोई मुझसे ऐसा सवाल करता है तो मुझे अपना अतीत, अपना जीवन, अपना घर, सब याद आने लगता है। ऐसा लगता है जैसे जिंदगी और भी कड़वी हो गई है।’ ‘मुझे पता नहीं था सर, इसीलिए पूछ लिया था।’
‘लंबी कहानी है भैये।’ रामगोपाल ने कहना शुरू किया, ‘हम छह भाई-बहन थे। तीन भाई और तीन बहनें। जमीन तो हमारे पास नाममात्र की थी। उसमें जो कुछ भी पैदा होता उससे हमारा गुजारा भी नहीं हो पाता। पिताजी मेहनत- मजदूरी के लिए दूसरे के खेतों में चले जाते और मैं अपने छोटे भाई-बहनों के साथ स्कूल चला जाता। गरीबी इतनी थी कि न तो हमारे पास ठीक से कॉपी-किताबें होती और न ही वक्त पर स्कूल की फीस होती। उस वक्त मैं गुस्से में पिताजी से कहता कि जब आपसे कुछ होना ही नहीं है तो हमें क्यों स्कूल भेजते हो? पिताजी खामोश रहते लेकिन मां उस वक्त जरूर कहती, ‘तू अपने पिता को ऐसा क्यों कह रहा है रे। तू घर की हालत नहीं समझेगा तो कौन समझेगा? तू बड़ा है, यह क्यों नहीं सोचता कि एक दिन घर की जिम्मेदारियां तेरे कंधों पर ही आनी हैं।’
मैं मां की बातें सुनकर खामोश हो जाता। मां ठीक ही कहती थी। पर…मुझे इन बातों से कोई मतलब नहीं था। कई बार जब मां ज्यादा बोलने लगती तो राधा मेरा पक्ष लेने लगती। मां हमें खाना देती तो राधा मां से कहती, ‘दादा को और दे मां।’ अपने हिस्से की आधी रोटी मेरी थाली में रखते हुए वह कहती, ‘और लो दादा।’ लेकिन मैंने उसके हिस्से की रोटी कभी नहीं ली। सभी को बराबर का हिस्सा मिलता था। कभी-कभी ऐसी नौबत भी आती कि आधी-आधी रोटी ही खाने को मिलती। जिस दिन आधी रोटी खाने को मिलती उस दिन राधा मुझसे कहती, ‘दादा आपको भूख लग रही होगी न…!’
जैसे-तैसे दिन बीत रहे थे। मां व पिताजी दिन-रात यही सोचते कि अगर उनके बच्चे पढ़-लिख जाएं तो उनकी गरीबी दूर हो। उनका सोचना भी सही था। सभी मां-बाप अपने बच्चों को लेकर यही सोचते हैं। लेकिन मेरे मां-बाप की जो सोच थी उस पर एक दिन अचानक ऐसा वज्रपात हुआ कि उनकी कमर ही टूट गई। छोटी बहन राधा की किसी ने हत्या कर दी। हमारे पास इतना भी समय नहीं था कि हम उसे अस्पताल ले जाते। उसे ढूंढ़ते हुए जब हम खेत में पहुंचे तो प्राण त्यागने से पहले उसने हमें सब कुछ बता दिया था। न तो हमारे पैसा था और न ही कोई हमारी मदद करने वाला था। राधा के साथ जिसने भी वह सब किया वह पैसे वाला था। सारा गांव उसके कर्ज तले दबा हुआ था। किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह हमारा साथ दे सके। उस दिन मुझे पहली बार अंदाजा हुआ कि हम गांव में बिल्कुल अकेले हैं। अगर आपके पैसा है तो सारी दुनिया आपकी मुट्ठी में है। अन्यथा आपकी जान भी आपकी नहीं है।
राधा की मौत के बाद मैं कई महीनों तक अपने आप को संभाल नहीं पाया था। एक दिन श्यामगोपाल ने मुझसे कहा, ‘हम मर गए दादा। राधा के लिए हम कुछ भी नहीं कर सके। आज हमारी गरीबी हमारे आगे आकर खड़ी हो गई है। अगर हमारे पास भी पैसा होता तो राधा के कातिल इस तरह सरेआम गांव में घूमते नजर नहीं आते?’
मैं खामोश रहा। क्या कहता, पर… उसकी बातों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया था कि मां-बाप की मेहनत, मजदूरी व हड्डी तोड़ कमाई को हम पांचों कब तक खाते रहेंगे। कब तक उनके पसीने से भीगे शरीर को जर्जर होते देखेंगे। मैं कई महीनों तक यही सोचता रहा और फिर एक दिन बिना बताए घर छोड़कर दिल्ली आ गया।
दिल्ली आया तो दुनिया अजनबी व बेगानी नजर आई। मन में खयाल आया कि घर से भागकर अच्छा नहीं किया। वापस गांव लौट जाना चाहिए। लेकिन फिर सोचा कि भागकर आया हूं तो इतनी जल्दी नहीं लौटूंगा।
मैं दिल्ली में भूखा प्यासा रहा। भटकता रहा। कभी कहीं तो कभी कहीं। एक दिन मैं सड़क के किनारे बैठा हुआ था। दो दिन हो गए थे। कुछ खाया नहीं था। तभी एक कार मेरे सामने आकर रुकी। कार पंक्चर हो गई थी। कार चलाने वाला आदमी उतर कर कार के चारों पहियों को देखने लगा। मैंने देखा कि कार का एक पिछला पहिया बिल्कुल बैठ चुका है।
‘क्या बात हो गई साब?’
‘कार का पहिया पंक्चर हो गया है।’
‘मैं पहिया बदल दूं साब।’
‘हां, बदल दो।’
कार का पहिया बदलने के बाद जब वह मुझे पांच रुपए का नोट देने लगा तो मैंने नोट पकड़ते हुए कहा, ‘साब दो दिन से भूखा हूं। दिल्ली में अपना कोई नहीं है। अगर कहीं नौकरी मिल जाती तो…!’
उसने एक कागज पर अपना पता लिखकर मुझे पकड़ाते हुए कहा, ‘कल इस पते पर आ जाना।’
उसके जाने के बाद मैं बड़ी देर तक पांच रुपए के नोट को देखता रहा। कई बार जेब से निकालता और फिर वापस जेब में रख देता। उस समय पांच का नोट भी बहुत बड़ा होता था भैये। उस दिन मैंने दिल्ली आने के बाद पहली बार पेट भरकर खाना खाया। दूसरे दिन मैं बताए पते पर जाकर उससे मिला तो उसने ओएस साहब से कहा, ‘ओएस साहब रजिस्टर में इसका नाम लिखो और इसे आज से ड्यूटी पर रखो।’
ओएस साहब रजिस्टर में मेरा नाम लिखते हुए बोला, ‘आज से तुम्हारी नौकरी पक्की। तुम्हें साहब की घंटी सुननी है। साहब जो कहें वही करना है। कुर्सी ले जाओ और साहब के दरवाजे के पास बैठ जाओ।’
‘मैं खुश था भैये। कुर्सी लगाकर साहब के दरवाजे के पास बैठ गया। शाम को छुट्टी होने पर साहब मुझे पांच रुपए का नोट देते हुए बोले, ‘कहां रह रहे हो?’
‘फुटपाथ पर साब…।’
साहब ने फिर ओएस साहब से कहा, ‘इसका रहने का बंदोबस्त करो।’
ओएस साहब ने मुझे गेट के पास बने चौकीदार के कमरे की चाबी देते हुए कहा, ‘चौकीदार अभी छुट्टी पर है। जब तक वह नहीं आता तब तक तुम इसी कमरे में रहो, और हां…रात को उसके आने तक तुम्हें चौकीदारी भी करनी है।’
मुझे रहने का ठिकाना मिल गया था। साहब मुझे हमेशा छुट्टी होते ही रोज कभी पांच तो कभी दो रुपए देकर जरूर जाते। मैं खुश था। लेकिन जब मुझे पहली तनख्वाह मिली तो मैं उछल पड़ा। एक सौ सत्तर रुपए थे भैये।
मैं साल भर तक गांव नहीं गया भैये। पैसे जमा करता रहा। एक साल बाद जब मैं गांव गया तो मुझे देखकर घर के सभी लोग रोने लगे। मगर राधा को न पाकर मैं रोने लगा। उसी दिन मैंने अपने मन में निश्चय किया कि मैं पहले अपने भाई-बहनों की शादी करवाऊंगा।
घर की हालत सुधारूंगा। फिर अपने बारे में सोचूंगा और मैं आज तक अपने निश्चय पर अडिग हूं भैये। सभी की शादी कर दी है। घर में पक्का मकान बनवा लिया है। हर साल मैं अपना पीएफ निकाल कर अपने परिवार की इच्छाओं की पूर्ति करता आ रहा हूं। जब तक अपने बारे में सोचता उम्र निकल गई।
रामगोपाल की खाली कुर्सी देखकर मैं सोच में उलझा हुआ था। ठीक ही तो कहा था रामगोपाल ने, अपने परिवार के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने वाला रामगोपाल उस ठूंठ की तरह ही तो था जिसे देखते सब हैं, लेकिन उसके बारे में कभी कोई नहीं सोचता।

